सियासत क्या क्या नहीं करा लेती है

सरकार ने जिन्हें रुलाया है #क्या वे आसानी से उसके पाले में चले जाएंगे #वोटों की फसल काटने की होड

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घनश्याम भारतीय
जुताई बुवाई से लेकर खाद पानी की व्यवस्था में की गई जी तोड मेहनत का बेहतरीन परिणाम जब एक किसान देखता है तो उसका उत्साह कई गुना बढ जाता है। उसका सारा कष्ट भी लगभग भूल जाता है। ऐसे में वह घर के अन्न भंडार भरने से लेकर अपनी व परिवार की अन्य सभी आवश्यकताएं पूर्ण करने के सपने भी देखने लगता है।…और यह स्वाभाविक भी है। इसी बीच प्राकृतिक आपदाएं कभी-कभार उसके सारे अरमानों को चूर कर देती हैं, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता। बस उम्मीद के सहारे जीवनपर्यंत अपने उसी पारंपरिक कार्यों में लगा रहता है। इस बीच उसकी तमाम अग्नि परीक्षाएं भी होती हैं।
कमोवेश यही स्थिति वर्तमान राजनीति की भी हो चली है। जहां पाँच साल तक सियासी जमीन तैयार करने के बाद वोटों की लहलहाती फसल देख उसे काटने के लिए हर नेता चुनाव में बेचैन हो उठता है। वह भी बिना बोये। वर्तमान विधानसभा चुनाव में भी यही स्थिति सामने आ रही है। जहां अधिकांश के अरमान दावेदारी में ही सियासी आपदा की भेंट चढ चुके हैं। बचे खुचे लोग ही वोटों की फसल पर अपना हक जता रहे हैं, परंतु काटेगा कौन यह सवाल फिलहाल बना हुआ है। यह समय विभिन्न दलों और उसके नेताओं के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। जिसमें सभी बडी सावधानी से फूंक फूंक कर कदम रख रहे है।
वर्तमान समय में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत के पांच राज्यों की कुल ६९१ विधानसभा सीटों के लिए चुनावी दुंदुभी बज चुकी है। निर्वाचन आयोग और राजनैतिक दलों ने अलग-अलग रणनीति बनाकर कमर कस ली है। पाँच साल तक शासन सत्ता का रसास्वादन करने वाले नेताओं का समय अब समाप्त हो चुका है। बारी अब उस जनता की है जिसने नेताओं की कार्यशैली को कसौटी पर कसने और उसके नतीजे का मूड बना लिया है। इसलिए यह चुनाव नेताओं के लिए किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। सर्वाधिक अग्नि परीक्षा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की होगी। जिनके सम्मुख भाजपा का परचम लहराने का एक बडा लक्ष्य खडा है। खासतौर से उस उत्तर प्रदेश में जहां बसपा और सपा के तिलिस्म में जनता उलझी उलझी रही है।
देश के जिन पांच प्रांतों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं, उनमें सर्वाधिक ४०३ सीटो वाले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सत्तारूढ रही है। जो अंतिम दौर में पारिवारिक अंतर्कलह से जूझते हुए स्वयं अस्तित्व के संकट में थी। ऐसे में बसपा और भाजपा की ताकत बढना लाजमी है। दूसरे नंबर पर ११७ सीटों वाला पंजाब है। जहां भाजपा की मदद से अकाली दल सत्तारुढ है। तीसरे नंबर पर आता है ७१ सीट वाला उत्तरांचल जो कांग्रेस के हाथ में है। ६० सीटों वाले मणिपुर में कांग्रेस और ४० सीटों वाले गोवा में भाजपा की सरकार रही है। इन सभी राज्यों में सात चरणों में मतदान होने हैं। जहां विभिन्न राजनीतिक दलों ने जन मन जीतने की कोशिश तेज कर दी है। अब जनता की कसौटी पर जो खरा उतरेगा, वोटों की फसल तो वही काटेगा। सत्ता भी उसी की प्रतीक्षा करेगी।
इस विधानसभा चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती, उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, राहुल गांधी, अमित शाह आदि नेताओं की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। यद्यपि उन सभी को वोटों की फसल काटने के लिए अपने कृत्य और सिद्धांतों को लेकर अग्निपरीक्षा के दौर से गुजरना होगा। सर्वाधिक अग्निपरीक्षा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ही होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्तमान समय में भाजपा का सारा दारोमदार उन्हीं पर है। उनके सामने इन पांच प्रदेशों में भाजपा का परचम लहराने की बहुत बडी जिम्मेदारी है। यदि वे उस में सफल होते हैं तभी वोटों की फसल काट पाना आसान होगा।
विदेशों में जमा काले धन और आतंकवाद विरोधी नारे को लेकर केंद्र में पूर्ण बहुमत से पहुंची भाजपा ने बीते दिनों हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, असम और केरल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो प्रदर्शन किया, उसकी पुनरावृति इस चुनाव में किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि विदेशों में जमा काला धन लाने के बजाय देश में छिपे कथित काला धन को बाहर करने के प्रयास में सरकार ने जिन्हें रुलाया है क्या वे आसानी से उसके पाले में चले जाएंगे। …और यह तो विधानसभा का चुनाव है। इसमें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे गौड हो जाते हैं। विकास और क्षेत्रीय मुद्दों के आधार पर इस चुनाव में जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है।
दूसरी तरफ जिस कांग्रेस को कुछ दिनों पहले तक यूपी बेहाल नजर आ रहा था और उसके नेता सत्ताधारी दल को पानी पी पी कर गरिया रहे थे आज वही दल प्यारा हो गया है। और उसी की गोद में जा बैठे हैं। यही है सत्ता की चाह। वोटों की फसल काटने के लिए सियासत क्या क्या नहीं करा लेती है। उत्तर प्रदेश का सबसे बडा सियासी कुनबा भी इसका शिकार हुआ है। जहां परिवार की अंतरकलह महीनों तक मीडिया के लिए खुराक बनी रही। शायद इसीलिए मां-बेटी भी आमने सामने आई और अपना दल टूट गया। अब खुद को असली बताने की होड में लगी हुई है। रही बात बसपा की तो उसने भी वोटों की फसल काटने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोडी है। मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का बसपा में विलय भी इसी फसल की चाह में हुआ है। इसी चाह में दलबदल का खेल भी खूब खेला गया। लहलहाती फसल देकर उसे काटने की लालसा में तमाम ने अपना जमीर भी बेच डाला। भारतीय समाज पार्टी, पीस पार्टी, निषाद पार्टी, जैसे तमाम छोटे दल भी वोटों की फसल काटने के लिए बेचैन हैं वरन सिद्धांतों से समझौता कर बडे दल से हाथ न मिलाते।
वास्तव में आज की सियासत की चाल के साथ उसका चरित्र भी बदल चुका है। जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं।’कसमें, वादे, प्यार, वफा, यह सब बातें हैं, बातों का क्या‘ की तर्ज पर चल निकली सियासत आम नागरिकों का गला रेतने पर आमादा है। श्वेत लिबास में लिपटे लोगों के दिल अंदर से बहुत ही काले हैं। ऐसे लोगों द्वारा ही राष्ट्रभक्ति की परिभाषा बदलने का प्रयास किया जा रहा है। जाति धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं से खेलना उनका शगल बन चुका है। ऐसे में बिना कुछ किए सब कुछ पाने की चाहत हर नेता में पनप चुकी है। वास्तव में सियासत समाज में फैली बुराइयों को दूर करने का बेहतरीन माध्यम है। जिसका कार्य बुराइयों से लडना और सुशासन स्थापित करना है। इस से हटकर वर्तमान समय में पद और अर्थ पिपाशा ने इसकी परिभाषा ही बदल दी है। जो समाज और राष्ट्र के लिए घातक है। आज सियासत की सीढी से राष्ट्रीयता के सूर्य को निगलने की कोशिश की जा रही है। जो किसी संक्रमण काल से कम नहीं है।

घनष्याम भारतीय
राजीव गांधी एक्सीलेंस एवार्ड प्राप्त पत्रकार
ग्रा व पो-दुलहूपुर अम्बेडकरनगर उ०प्र
मो० ९४५०४८९९४६

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