फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकार ;उत्तराखंड का लोक पर्व – चन्‍द्रशेखर जोशी G.S.

उत्तराखंड के पहाड़ों का लोक पर्व है फूलदेई। नए साल का, नई ऋतुओं का, नए फूलों के आने का संदेश लाने वाला ये त्योहार आज उत्तराखंड के गांवों और कस्बों में मनाया जाता है। चंद्रशेखर जोशी केंद्रीय महासचिव केंद्रीय कुर्मांचल परिषद देहरादून ने बताया कि देहरादून में अलग अलग स्थानों में हमारी समस्त 10 शाखाये यह त्‍यौहार मनाती है

 फूल और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकार

चंद्रशेखर जोशी केंद्रीय महासचिव केंद्रीय कुर्मांचल परिषद देहरादून ने ने बताया कि कुर्मांचल परिषद देहरादून द्वारा आपको दिनांक 14 मार्च 2020 को उत्तराखंड के लोक पर्व फूलदेई की हार्दिक शुभकामनाएं प्रेषित है, उत्तराखंड के इस विलुप्त होते लोक पर्व को जागृत करने के लिये कुर्मांचल परिषद देहरादून प्रयासरत है l कुर्मांचल परिषद देहरादून की महिला शक्ति तथा केंद्रीय सांस्कृतिक सचिव बबिता शाह लोहनी द्वारा इस लोक पर्व पर होने वाले प्रोग्राम को जारी किया गया है

केंद्रीय सांस्कृतिक सचिव बबिता शाह लोहनी ने  बताया कि उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है। फूलेदई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार, पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार…. (आपकी देहरी (दहलीज) फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली (क्षमाशील) हो, घर व समय सफल रहे, भंडार भरे रहें, इस देहरी को बार-बार नमस्कार, द्वार खूब फूले-फले…) गीत की पंक्तियों के साथ कुर्मांचल परिषद द्वारा फूलदेई का त्योहार हर वर्ष मनाया जाता है।

#हिन्दू_नववर्ष चैत्र के प्रथम दिवस यानि 1 गत्ते को उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचल में एक पर्व मनाया जाता है जो #फूलदेई (#FULDEI) के नाम से जाना जाता है। मुख्यतः इस पर्व को यहाँ के बच्चों द्वारा मनाया जाता है। जिसमें छोटे-छोटे बच्चे गांव के हर घर की दहलीज पर जाकर फूल बिखेरते हैं। #फूलदेई पर्व पर बच्चे सुबह ही उठकर स्नान करके पास के जंगल जाकर ताजे-ताजे फूल तोड़कर लाते हैं। जिनमें बुरांश, प्योंली, बासिंग, भिटौर आदि के सुन्दर पुष्प होते हैं। इन्हें बच्चे रिंगाल की छोटी टोकरियों में सजाते हैं और फिर नए कपड़े धारण कर घर-घर जाते हैं और लोगों के घरों की देहरी पर फूल बिखेरते हुए यह कहते हैं – ” फूलदेई, फूलदेई, छम्मा देई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार, यो देई सौं, बारम्बार नमस्कार। फूलदेई, फूलदेई। ” फिर छोटे बच्चों को उस घर द्वारा गुड़, चांवल और सिक्के दिए जाते हैं। शाम को इन चांवलों की सई बनाई जाती है और लोगों में बांटा जाता है।

फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल की टोकरी लेकर फ्यूंली, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं। अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहरियों में फूल बिखेरते हैं।बच्चों को लोग इसके बदले में चावल, गुड़, और दक्षिणा (रुपए) दान करते हैं।इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहरियों में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है।) बनाने की परंपरा भी है। पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है। यह त्योहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। बच्चों से जुड़ा त्योहार होने के चलते इसे खूब पसंद भी किया जाता है। फूलदेई पूरी तरह बच्चों का त्योहार है। इसकी शुरुआत से लेकर अंत तक का जिम्मा बच्चों के पास ही रहता है। इस त्योहार के माध्यम से बच्चों का प्रकृति और समाज के साथ जुड़ाव बढ़ता है। यह हमारी समृद्ध संस्कृति का पर्व है।

 चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है।

फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को रिंगाल (बांस जैसी दिखने वाली लकड़ी) की टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है- फूलदेई, छम्मा देई जतुकै देला, उतुकै सही दैणी द्वार, भर भकार

फूलदेई त्योहार में एक द्वारपूजा के लिए एक जंगली फूल का इस्तेमाल होता है, जिसे फ्यूली कहते हैं। इस फूल और फूलदेई के त्योहार को लेकर उत्तराखंड में कई लोक कथाएं मशहूर हैं। जिनमें से एक लोककथा कुछ यूं है-  एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार भी थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी, खुशहाली। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ों को छोड़कर उसके साथ महल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे। उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था…और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की, कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। इसी फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की दुआ करती हैं।

ज्ञात हो कि कूर्माचल परिषद द्वारा फ्यूली अवार्ड भी दिया जाता है;

गूगल ने अपने सर्च इंजन में रखा वरियता क्रम में- BY: www.himalayauk.org (Uttrakhand Leading Newsportal & Daily Newspaper) Publish at Dehradun & Hariwar Mail us; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030## Special Bureau Report. उत्‍तराखण्‍ड सरकार से विज्ञापन मान्‍यता प्राप्‍त न्‍यूज पोर्टल तथा दैनिक समाचार पत्र

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