“संतों की इस भूमि पर न आना”; किस महान गुरू संत ने कहा था?

High Light# मान्यता अनुसार इस मंदिर को तानसेन के गुरु संत हरिदास ने अपने भजन से राधा−कृष्ण के युग्म रूप को साक्षात प्रकट किया था। स्वयं स्वामी हरिदास महाराज लुप्त हुए भक्तिमय शास्त्रीय संगीत के जन्मदाता थे। इसी संगीत के द्वारा उन्होंने ठा. बांकेबिहारी को प्रगट कर दिया।

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एक दिन बादशाह अकबर ने तानसेन से उनके गुरु स्वामी हरिदासजी का गायन सुनने की इच्छा जताई और तानसेन के साथ वे वृंदावन आ गए, लेकिन स्वामी हरिदास ने बादशाह अकबर के सामने गाने से इन्कार कर ही दिया। इतना ही नहीं जब अकबर ने कुछ मांगने को स्वामी हरिदास से कहा तो स्वामीजी ने एक ही वस्तु मांगी कि भविष्य में संतों की इस भूमि में न आना।

श्री बांकेबिहारीजी महाराज को वृन्दावन में प्रकट करने वाले स्वामी हरिदासजी का जन्म विक्रम सम्वत् 1535 में  भाद्रपद  मास के  शुक्लपक्ष  की अष्टमी (श्री राधाष्टमी) के ब्रह्म मुहूर्त में हुआ था। आपके पिता श्री आशुधीर जी अपने उपास्य श्रीराधा-माधव की प्रेरणा से पत्नी गंगादेवी के साथ अनेक तीर्थो की यात्रा करने के पश्चात् अलीगढ जनपद की कोल तहसील में ब्रज आकर एक गांव में बस गए। हरिदास जी का व्यक्तित्व बड़ा ही विलक्षण था। वे बचपन से ही एकान्त-प्रिय थे। उन्हें अनासक्त भाव से भगवद्-भजन में लीन रहने से बड़ा आनंद मिलता था। हरिदासजी का कण्ठ बड़ा मधुर था और उनमें संगीत की अपूर्व प्रतिभा थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई। उनका गांव उनके नाम से विख्यात हो गया। हरिदास जी को उनके पिता ने यज्ञोपवीत-संस्कार के उपरान्त वैष्णवी दीक्षा प्रदान की। युवा होने पर माता-पिता ने उनका विवाह हरिमति नामक परम सौंदर्यमयी एवं सद्गुणी कन्या से कर दिया, किंतु स्वामी हरिदास जी की आसक्ति तो अपने श्यामा-कुंजबिहारी के अतिरिक्त अन्य किसी में थी ही नहीं। उन्हें गृहस्थ जीवन से विमुख देखकर उनकी पतिव्रता पत्नी ने उनकी साधना में विघ्न उपस्थित न करने के उद्देश्य से योगाग्नि के माध्यम से अपना शरीर त्याग दिया और उनका तेज स्वामी हरिदास के चरणों में लीन हो गया।

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुंचे। वहां उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं। वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा का अवतार मानते हैं। श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, किसी राजा-महाराजा को नहीं। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य थे। मुग़ल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन आया था। विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ।

स्वामी हरिदास   Swami Haridas) भक्त कवि, शास्त्रीय संगीतकार तथा कृष्णोपासक सखी संप्रदाय के प्रवर्तक थे, जिसे ‘हरिदासी संप्रदाय’ भी कहते हैं। इन्हें ललिता सखी का अवतार माना जाता है। इनकी छाप रसिक है। इनके जन्म स्थान और गुरु के विषय में कई मत प्रचलित हैं। इनका जन्म समय कुछ ज्ञात नहीं है। हरिदास स्वामी वैष्णव भक्त थे तथा उच्च कोटि के संगीतज्ञ भी थे। प्रसिद्ध गायक तानसेन इनके शिष्य थे। सम्राट अकबर इनके दर्शन करने वृंदावन गए थे। ‘केलिमाल’ में इनके सौ से अधिक पद संग्रहित हैं। इनकी वाणी सरस और भावुक है। ये प्रेमी भक्त थे।

प्राचीन इतिहासकार विसेंट स्मिथ ने अपने अकबर द ग्रेट मुगल नामक ग्रंथ में विक्रम संवत 1627 में अकबर बादशाह का वृंदावन निधिवन आना तथा दिव्य ²ष्टि से श्रीवृंदावन के चिन्मय तत्व को देखने का उल्लेख किया है। बादशाह अकबर के बारे में उल्लेख है कि एक दिन अकबर ने तानसेन के गायन पर रीझकर कहा तानसेन, तुम्हारे जैसा संगीतज्ञ और कोई नहीं। तानसेन ने कान पकड़े और बोले खुदा के लिए ऐसा मत कहिए। मेरे गुरु स्वामी हरिदास के आगे मैं कुछ भी नहीं। अकबर ने कहा स्वामी हरिदास को दरबार में बुलाओ, मैं उनका संगीत सुनना चाहता हूं। तानसेन बोले उनके गुरु सिर्फ प्राण प्रियतम भगवान श्रीराधाकृष्ण के लिए ही गाते हैं, किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने अथवा धन व प्रतिष्ठा के लिए नहीं। आप उन्हें सुनना चाहते हैं, तो पद को भुलाकर वृंदावन चलना पड़ेगा। अकबर वृंदावन के लिए चल दिए। इसके बाद तानसेन ने उन्हें तानपुरा पकड़ा कर कहा आपको स्वामीजी सेवक समझेंगे, तो भजन सुनने में सहूलियत होगी। बादशाह इसके लिए तैयार हो गए। निधिवन में जब स्वामीजी का गायन सुनने को मिला तो अकबर कृतज्ञ हो गया, लेकिन स्वामीजी अपनी दिव्य ²ष्टि से अकबर को पहचान गए। अकबर ने दरबार में गाने का प्रस्ताव रखा तो स्वामीजी ने मनाकर दिया था। अकबर ने स्वामीजी से अपनी बादशाहत दिखाते हुए कुछ मांगने का आग्रह किया, तो स्वामीजी हंस पड़े, बोले अकबर कुछ देना ही है तो बस इतना दे कि अब भविष्य में कभी भी संतों की इस भूमि पर न आना।

दिल्ली के सम्राट् के एक बिगड़ा हुआ मूर्ख बेटा था, जो अपमानपूर्वक वहाँ से निकाल दिया गया था। अपनी घुमक्कड़ी में संयोगवश वह वृन्दावन आ निकला और वहाँ सड़क पर सो गया। उषाकाल में स्वामी जी जब निधिबन से स्नानाथ जा रहे थे, तो उससे टकरा गये और उसकी महानी सुनकर उसका तानसेन नाम रख दिया और मात्र अपनी इच्छा शक्ति के प्रयोग से उसे एक अप्रतिम संगीतज्ञ के रूप में परिवर्तित कर दिया। उसके दिल्ली लौटने पर सम्राट् उसकी विचक्षणता पर आश्चर्य विजडित रह गया और उसने वृन्दावन यात्रा की तथा उस गुरु के दर्शन करने की ठान ली, जिससे उसने शिक्षा ग्रहण की थीं तदनुसार, जब वह आगरा आया, तो वह मथुरा चला गया तथा भतरौंद तक आधे मार्ग घोड़े पर और वहाँ से पैदल निधिबन तक गया। सन्त ने अपने पुराने शिष्य का गरिमापूर्वक स्वागत किया और उसके शाही सी को देखा भी नहीं , यद्यपि वह जानते थे कि वह कौन है। अन्तत: जब सम्राट् ने निरन्तर कुछ करने योग्य सेवा की अभ्यर्थन की तो उसे वह समीपस्थ बिहारी घाट ले गये, जो वर्त्तमान में ऐसा लग रहा था जैसे कि प्रत्येक सीढ़ी बहुमूल्य स्वर्ण जड़ित पत्थर की हो और एक सीढ़ी में कुछ कमी दिखाते हुए सम्राट् से कहा कि उसके स्थान पर दूसरी रखवा दें। यह कार्य महान् सम्राट् की भी शक्ति से परे था। सम्राट् ने पवित्र वानरों और मयूरों के पोषणार्थ छोटा सा अनुदान देकर तुष्टि पाई और वह प्रभूत सदुपदेश प्राप्त करके अपने मार्ग चला गया।

विक्रम सम्वत् 1560 में पच्चीस वर्ष की अवस्था में हरिदास वृन्दावन पहुँचे। वहाँ उन्होंने निधिवन को अपनी तपोस्थली बनाया। हरिदास जी निधिवन में सदा श्यामा-कुंजबिहारी के ध्यान तथा उनके भजन में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी ने प्रिया-प्रियतम की युगल छवि श्री बांकेबिहारीजी महाराज के रूप में प्रतिष्ठित की। हरिदासजी के ये ठाकुर आज असंख्य भक्तों के इष्टदेव हैं। वैष्णव स्वामी हरिदास को श्रीराधा का अवतार मानते हैं। श्यामा-कुंजबिहारी के नित्य विहार का मुख्य आधार संगीत है। उनके रास-विलास से अनेक राग-रागनियां उत्पन्न होती हैं। ललिता संगीत की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। ललितावतार स्वामी हरिदास संगीत के परम आचार्य थे। उनका संगीत उनके अपने आराध्य की उपासना को समर्पित था, किसी राजा-महाराजा को नहीं। बैजूबावरा और तानसेन जैसे विश्व-विख्यात संगीतज्ञ स्वामी जी के शिष्य थे। मुग़ल सम्राट अकबर उनका संगीत सुनने के लिए रूप बदलकर वृन्दावन आया था। विक्रम सम्वत 1630 में स्वामी हरिदास का निकुंजवास निधिवन में हुआ।

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