प्रेयसी का प्रेम जीवन का संगीत बना; ऐसा प्रेमी धरती पर दूसरा न हुआ

High Light# संगीत और गायन के धुनी कलावती के प्यार में भी पागल हो गए# ऐसा कौन सा राग अलापा था जिससे पत्थर भी पिघला था?# गाने से पत्थर भी पिघल जाते थे# एक युवती के प्यार में ये ऐसे दीवाने हुए कि लोग इन्हें बावरा कहने लगे #ऐसे हराया # मालकोस’ राग गाया# जिसके प्रभाव से पत्थर मोम की तरह पिघल गया # इसमें तानपुरा फेंक दिया जो पत्थर के ठंडा होते ही उसमें गढ़ा रह गया # उस तानपुरे को पत्थर में से वापस निकालने के लिये कहा #एक दिन गाते-गाते घने जंगल में निकल गए, और फिर कभी वापस नहीं आए

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    तानसेन अकबर के दरबार के नौ रत्नों में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी। – किंवदंती है कि अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता किया आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुक़ाबला करेगा, वह दरबारी संगीतकार होगा और हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा।  कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया, लेकिन गुरु हरिदास की आज्ञा से बैजू ने संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया।  तानसेन ने टोड़ी राग गाया, जिससे हिरणों का झुंड इकट्ठा हो गया, तानसेन ने एक हार एक हिरण के गले में डाल दिया। संगीत खत्म होते ही हिरण जंगल में भाग गये। जवाब में बैजू बावरा ने राग ‘मृग रंजनी टोड़ी गाया, हिरण फिर वापस आए और तानसेन का हार वापस आ गया। इसके बाद बैजू ने ‘मालकोस’ राग गाया, जिसके प्रभाव से पत्थर मोम की तरह पिघल गया।  बैजू ने इसमें तानपुरा फेंक दिया जो पत्थर के ठंडा होते ही उसमें गढ़ा रह गया।  बैजू ने उस तानपुरे को पत्थर में से वापस निकालने के लिये कहा। तानसेन ऐसा नहीं कर सके, उन्होंने हार मान ली।

महान गायक अमर प्रेमी की पूरी कहानी कुछ इस तरह से हुई –

बैजूबावरा ने ऐसा कौन सा राग अलापा था जिससे पत्थर भी पिघला था? बैजू बावरा ने ‘राग मालकोस’ गाकर पत्थरों को पिघला दिया था। यह राग उन्होंने अकबर के दरबार में गाया था।

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१६ वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म चंदेरी में सन् १५४२ में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं संगीत में काफ़ी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से ‘बैजू’ कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

उस समय एक एक महान गायक तानसेन सम्राट अकबर में दरबार में नवरत्न दरबारियों में से एक थे।। संगीत में में उनकी महारथी बेमिसाल थी। इन्हीं तानसेन जैसे वादक और गायक को बैजू के संगीत के समक्ष नतमस्तक होना पड़ा था।

कहा जाता है कि बैजू के गाने से पत्थर भी पिघल जाते थे। एक युवती के प्यार में ये ऐसे दीवाने हुए कि लोग इन्हें बावरा कहने लगे। वक बार अकबर के दरबार में आयोजित एक प्रतियोगिता में उन्होंने संगीत सम्राट कहे जाने वाले तानसेन को हरा दिया था।

बैजू ने ऐसे हराया तानसेन को-

तानसेन अकबर के दरबार के नौ रत्नों में गिने जाते थे। इसी काल में बैजू बावरा की संगीत साधना चरमोत्कर्ष पर थी।  किंवदंती है कि अकबर ने अपने दरबार में एक संगीत प्रतियोगिता किया आयोजन रखा। इस प्रतियोगिता की यह शर्त थी कि तानसेन से जो भी मुक़ाबला करेगा, वह दरबारी संगीतकार होगा और हारे हुए प्रतियोगी को मृत्युदंड दिया जाएगा।  कोई भी संगीतकार इस शर्त के कारण सामने नहीं आया, लेकिन गुरु हरिदास की आज्ञा से बैजू ने संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया।  तानसेन ने टोड़ी राग गाया, जिससे हिरणों का झुंड इकट्ठा हो गया, तानसेन ने एक हार एक हिरण के गले में डाल दिया। संगीत खत्म होते ही हिरण जंगल में भाग गये। जवाब में बैजू बावरा ने राग ‘मृग रंजनी टोड़ी गाया, हिरण फिर वापस आए और तानसेन का हार वापस आ गया। इसके बाद बैजू ने ‘मालकोस’ राग गाया, जिसके प्रभाव से पत्थर मोम की तरह पिघल गया। बैजू ने इसमें तानपुरा फेंक दिया जो पत्थर के ठंडा होते ही उसमें गढ़ा रह गया।बैजू ने उस तानपुरे को पत्थर में से वापस निकालने के लिये कहा। तानसेन ऐसा नहीं कर सके, उन्होंने हार मान ली।

कहते हैं कि बैजू को चंदेरी की कलावती नामक युवती से उनको प्रेम हो गया। जिसके कारण उनको बैजू बावरा कहने लगे थे। प्रेयसी के प्रेम की भावना उनके लिए जीवन के संगीत का प्रेरणास्रोत बन गई

संगीत और गायन के धुनी बैजू कलावती प्यार में भी पागल हो गए। प्रेम में अंततः विरह के कारण वो दुनिया से विरक्त हो गये ।

कश्मीर के राजा के दरबार में राज गायक बन कर अपने शिष्य के पास अंतिम समय व्यतीत कर रहे बैजू, एक दिन गाते-गाते घने जंगल में निकल गए, और फिर कभी वापस नहीं आए।

बाद में उनके प्रशंसकों ने चंदेरी में उनकी समाधि बनवा दी।

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