UK; ‘हिंदी से न्याय’ अभियान से दूरी बनाये रखने में ही अपनी राजनैतिक भलाई समझी गई-
HIGH LIGHT# राज्य का पक्ष रखने के लिए नामित होने वालों की फेहरिस्त में पार्टी के जेबी समर्थक ही दिखाई देते हैं यह सिलसिला चल रहा है, कब तक चलेगा मालूम नहीं……..? उत्तराखंड के कई जिलों में मुझे ऐसे लोग सरकारी वकील के तौर पर नामित करने पड़े जो विधि की सामान्य जानकारी भी नहीं रखते थे — राजधानी देहरादून में एक ADGC (क्रिमिनल) नामित करना था। सत्ताधारी पैनल की तरफ से जो नाम था, वो मुंशी तक की जानकारी नहीं रखता था- # वे वकील जो विधि की जानकारी के अलावा सब-कुछ जानते थे; न्यायविद के रोचक संस्मरण
HIGH LIGHT# हिंदी से न्याय’ अभियान में वर्ष 2009 में ‘इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में मेरा नाम शुमार किया गया
HIGH LIGHT# न्यायमूर्ति रंगनाथ पाण्डेय का पीएम को पत्र
रोचक सस्मरण- हिमालयायूके एक्सक्लूसिव
हिन्दी माध्यम से एल-एल०एम० उत्तीर्ण करने वाले पहले भारतीय छात्र एवम देश की ऊंची अदालतों (सुप्रीमकोर्ट व 25 हाईकोर्टस) में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में सम्पूर्ण वाद कार्यवाही निस्तारित किये जाने एवम निर्णय भी पारित किये जाने हेतु पिछले लगभग तीन दशकों से ‘हिन्दी से न्याय’ इस प्रकार का देशव्यापी अभियान चला रहे न्यायविद श्री चंद्रशेखर पंडित भुवनेश्वर दयाल उपाध्याय की पुस्तक ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ से साभार …………………….(पृष्ठ संख्या 66 – 68 तक)।
अजीब इत्तिफाक था, उत्तर प्रदेश में सेशन्स-कोर्ट में बतौर न्यायाधीश कार्य करते हुए जिन बातों की मुखालफत, मैं किया करता था, आज वही चुनौतियाँ फिर मेरे सामने थीं। न्यायाधीश के तौर पर जब जिला अदालतों में नामित सरकारी वकीलों की गुणवत्ता देखता था तो माथा पीटने को मन करता था। वे वकील विधि की जानकारी के अलावा सब-कुछ जानते थे, हालाँकि कुछ-एक थोड़ा-बहुत पढ़ते-लिखते थे परन्तु वह नाकाफी था।
एक बार उनमे से कुछ के बायो-डाटा मैंने शासन से मंगवाए, मैं हैरान था उन्हें पढ़कर। उसमे उनकी राजनैतिक – यात्रा का बखान था, यहाँ तक कि फलां आंदोलन के दौरान उन्होंने सड़क-जाम की, वाहनों में आगजनी की, पुलिस पर पथराव किया, जेल में रहे, पार्टी के इन-इन पदों पर रहे। विधि के ज्ञान व योग्यता की चर्चा सिर्फ इतनी होती थी कि वह विधि स्नातक हैं। इस अराजकता के बावजूद वे राज्य के पैरोकार थे, तब मैंने उत्तर-प्रदेश के महामहिम राज्यपाल एवम प्रमुख-सचिव (न्याय) को एक गोपनीय-पत्र लिखा एवम निवेदन किया कि कम से कम जिला-जजों की अदालतों में एक सुयोग्य अधिवक्ता को अवश्य नामित किया जाए, पर लॉबी बहुत मजबूत थी, मेरा वह पत्र लीक किया गया, जिसकी मीडिया में खूब चर्चा हुई और मैं सत्ताधारी पार्टी के नामित वकीलों के निशाने पर आ गया।
अब 2009-2011 था, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के ओ.एस.डी.(न्यायिक, विधायी एवम संसदीय कार्य) के नाते सुप्रीम-कोर्ट व तीन हाई-कोर्ट्स नैनीताल, लखनऊ एवम इलाहाबाद के अलावा जिला-अदालतों में सरकारी वकीलों को नामित करने की जिम्मेदारी मेरे पास थी, मेरे कई न्यायाधीश मित्रों के अलावा विधि के क्षेत्र में जानकारी रखने वाले लोगों की अपेक्षा थी कि सुयोग्य व् विधि के जानकार अधिवक्ता ही सरकारी वकील नामित होंगे। मैं भी उत्साह से लबरेज था, इससे पहले राज्य के एडीशनल एडवोकेट जनरल की जिम्मेदारी निभाते हुए मुझे हर जिले के अधिवक्ताओं की काबिलियत की जानकारी लगभग थी।
शुरू में मैंने कठोरता लागू की तो सत्ताधारी दल के कई प्रमुख लोग, सामाजिक संगठनों के महानुभावों के अलावा कई ऐसे लोग भी मुझसे नाराज हो गए जो मुख्यमंत्री और मेरे नाम पर वकीलों से पैसा ले आये थे जबकि मुख्यमंत्री और मैं उन वकीलों की शक्ल तक नहीं जानते थे। ये सूचनाएं मुख्यमंत्री तक पहुंची तो उन्होंने मुझसे परामर्श किया कि क्या करें? तब हम दोनों फिर उसी बिंदु पर आकर स्थिर हो गए जहाँ से हमने यात्रा प्रारम्भ की थी। मैंने सात लोगों का एक पैनल बनाया जिसमें सत्ताधारी पार्टी का विधायक सत्ताधारी पार्टी का स्थानीय अध्यक्ष, महामंत्री, सत्ता से जुड़े सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि शामिल थे। फिर वही हुआ जैसा सत्ताधारी लोग चाहते थे उत्तराखंड के कई जिलों में मुझे ऐसे लोग सरकारी वकील के तौर पर नामित करने पड़े जो विधि की सामान्य जानकारी भी नहीं रखते थे, लॉबी खुश थी की उसने मुझे परास्त कर दिया पर मैंने ‘हार नहीं मानी और न रार ठानी’। कई जिलों में मैंने मुख्यमंत्री की अप्रसन्नता के बाद भी कुछ सुयोग्य लोगों को सरकारी वकील नामित किया।
राजधानी देहरादून में आया । मुझे एक ADGC (क्रिमिनल) नामित करना था। सत्ताधारी पैनल की तरफ से जो नाम था, वो मुंशी तक की जानकारी नहीं रखता था। मुख्यमंत्री की अप्रसन्नता व् चीख-चिल्लाहट के बाद भी मैंने ऐसे सुयोग्य अधिवक्ता को उस पद पर नामित किया जिसने उत्तराखंड में अब तक हुए कुल पांच डेथ सेंटेंस (फांसी की सजा) में बहस की थी। मुख्यमंत्री तीन दिन तक मुझसे अनमने रहे परन्तु कुछ दिन बाद जब वही निवर्तमान मुख्यमंत्री हो गए और भ्रष्टाचार के एक मामले में देहरादून की एक अदालत में आरोपी बनाये गए तो उन्ही सुयोग्य अधिवक्ता की काबिलियत से उन्हें उस मामले में अंतरिम राहत मिली। मुझे लगा ये घटना सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए एक सबक बनेगी परन्तु उसके बाद की सरकारों में कुछ भी नहीं बदला। राज्य का पक्ष रखने के लिए नामित होने वालों की फेहरिस्त में उनके जेबी समर्थक ही दिखाई देते हैं यह सिलसिला चल रहा है, कब तक चलेगा मालूम नहीं……..?
ऐसा ही वाक्य राजधानी देहरादून में आया । मुझे एक ADGC (क्रिमिनल) नामित करना था। सत्ताधारी पैनल की तरफ से जो नाम था, वो मुंशी तक की जानकारी नहीं रखता था। मुख्यमंत्री की अप्रसन्नता व् चीख-चिल्लाहट के बाद भी मैंने ऐसे सुयोग्य अधिवक्ता को उस पद पर नामित किया जिसने उत्तराखंड में अब तक हुए कुल पांच डेथ सेंटेंस (फांसी की सजा) में बहस की थी। मुख्यमंत्री तीन दिन तक मुझसे अनमने रहे परन्तु कुछ दिन बाद जब वही निवर्तमान मुख्यमंत्री हो गए और भ्रष्टाचार के एक मामले में देहरादून की एक अदालत में आरोपी बनाये गए तो उन्ही सुयोग्य अधिवक्ता की काबिलियत से उन्हें उस मामले में अंतरिम राहत मिली। मुझे लगा ये घटना सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए एक सबक बनेगी परन्तु उसके बाद की सरकारों में कुछ भी नहीं बदला। राज्य का पक्ष रखने के लिए नामित होने वालों की फेहरिस्त में उनके जेबी समर्थक ही दिखाई देते हैं यह सिलसिला चल रहा है, कब तक चलेगा मालूम नहीं……..?
श्री उपाध्याय की ही दूसरी पुस्तक …………………………’और सपना टूट गया’से साभार ………………………………….(पृष्ठ संख्या 24 से 25 तक)
HIGH LIGHT# हिंदी से न्याय’ अभियान में वर्ष 2009 में ‘इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में मेरा नाम शुमार किया गया ; हिंदी से न्याय’ अभियान से दूरी बनाये रखने में ही उत्तराखण्ड के कुछ मुखियाओ ने अपनी राजनैतिक भलाई समझी, जबकि त्रिवेंद्र तो आजतक इसपर कायम है। मैं उत्तराखंड में किस असहिषुणता का शिकार हूँ, मुझे नहीं मालूम …..?
………………………….. सेना से अवकाश प्राप्त मेजर जनरल और फिर दो-दो बार अनायास, अकारण एवं असमय मुख्यमंत्री बनाये गए भुवन चंद्र खंडूड़ी ने ‘हिंदी से न्याय’ अभियान को 12 सितम्बर 2011 से जो क्षतिग्रस्त करना प्रारम्भ किया वह सिलसिला अभी तक जारी है, खंडूड़ी के OSD (न्यायिक, विधायी एवं संसदीय कार्य) रहते हुए ही वर्ष 2009 में ‘इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में मेरा नाम शुमार किया गया, उसी वर्ष UK (United Kingdom) की वेबसाइट ‘रिकॉर्ड होल्डर्स रिपब्लिक’ ने अपनी सूची में मुझे शामिल किया। खंडूड़ी और उनके चिर विरोधी परन्तु अब मित्र कहे जा सकने वाले डॉ.रमेश चंद्र पोखरियाल ‘निशंक’ दोनों ही मेरे अभियान से परिचित थे, और हैं। चूँकि खंडूड़ी अभिजात्य वर्ग में पले-बढ़े थे इसलिए हिन्दी या उसकी यशोवृद्धि से उनका कोई वास्ता नहीं था, वह मुझसे सदैव अंग्रेजी में ही बात करते थे, सामान्य व्यवहार अथवा पत्रावलियों के निस्तारण के समय भी, शायद यह परखने के लिए कि मेरा अंग्रेजी ज्ञान कमजोर है? और इसी को आधार बनाकर मुझे मुख्यमंत्री-कार्यालय से मुक्त कर दिया जाए, लेकिन जब मैं उनसे धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात करता एवं पत्रावलियों पर नोटिंग अंग्रेजी में ही लिखता तो विस्मय से मुझे देखते फिर कहते, ‘अरे तुम्हारी अंग्रेजी तो बहुत अच्छी है, फिर हिन्दी कि लड़ाई क्यों?’ मैं उनकी दयनीयता पर मुस्करा जाता।
हिंदी से न्याय’ अभियान में वर्ष 2009 में ‘इंडिया बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ में मेरा नाम शुमार किया गया मुख्यमंत्री निशंक से मुझे बेहद अपेक्षाएं थीं परन्तु उन्होंने अपने समूचे कार्यकाल में हिन्दी का काम उन्हें सौंपा जिनका हिन्दी से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। मुझे लगता है कि यदि निशंक भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों में अदालतों से तलब नहीं होते तो वह भी कोई न कोई आधार बनाकर मुझे अपनी टीम से मुक्त कर देते, अपनी टीम में रखना उनकी आवश्यकता और विवशता दोनों मुझे नज़र आती थी। अपनी टीम से मुक्त करने का उन्होंने कई बार प्रयत्न भी किया पर परिस्थितियां उस समय उनके खिलाफ थीं और वह ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाए। बाकी के तीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा, हरीश रावत व् त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अभियान से दूरी बनाये रखने में ही अपनी राजनैतिक भलाई समझी, त्रिवेंद्र तो आजतक इसपर कायम है। मैं उत्तराखंड में किस असहिषुणता का शिकार हूँ, मुझे नहीं मालूम …..?
स्मृति के कोलाज में लौटता हूँ तो मन विस्मित हो जाता है, जिन श्रद्धेय पंडित नारायण दत्त तिवारी जी के पुतले मैंने उत्तर प्रदेश में फूंके थे, उनका विरोध किया था, पंडित जी ने उत्तर-प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उर्दू को दूसरी राजभाषा बना दिया था, आदरणीय श्रीनारायण चतुर्वेदी के साथ मैं उर्दू विरोधी राजभाषा समिति में सक्रिय था, पंडित तिवारी जी इस बात को जानते थे इसके बावजूद भारी विरोध के बावजूद उन्होंने मुझे राज्य का सर्वोच्च विधि अधिकारी बनाया एवं अधिकार संपन्न किया। उनका ही आशीर्वाद था की मैंने नैनीताल हाई कोर्ट में हिंदी भाषा की प्रतिष्ठा हेतु कई कीर्तिमान रचे-गढ़े।
कई बार सोचता हूँ कि क्या ये मेरे सपने की हार है? पर मन कहता है कि ये मेरे नहीं बल्कि नाना देशमुख, रज्जू भैया व् शेषाद्रि की संयुक्त-योजना व सपने की हार है ……???
नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कडोली नामक छोटे से कस्बे में ब्राह्मण परिवार में हुवा था। नानाजी का लंबा और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता. उन्होंने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया। बचपन अभावों में बीता। उनके पास शुल्क देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अत: इस कार्य के लिये उन्होने सब्जी बेचकर पैसे जुटाये। वे मन्दिरों में रहे और पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में उन्नीस सौ तीस के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें मोरारजी-मन्त्रिमण्डल में शामिल किया गया परन्तु उन्होंने यह कहकर कि ६० वर्ष से अधिक आयु के लोग सरकार से बाहर रहकर समाज सेवा का कार्य करें, मन्त्री-पद ठुकरा दिया। वे जीवन पर्यन्त दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार हेतु कार्य करते रहे।
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