अजेय भीष्म पितामह और दानवीर कर्ण ; कौन से कर्मो का फल भोगना पडा

High Light# हम लोग अपने कर्मों के प्रति कितने लापरवाह हैं। भीष्म पितामह जैसा उज्जवल चरित्र भी एक दो अन्जाने में किए गए ग़लत कर्मों से इतना दागदार हो गया कि मृत्यु के समय तीक्ष्ण तीरों का बिस्तर मिला…  : इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण से पूछा कि “हे मधुसूदन,मेरे कौन से कर्म का फल है,जो मैं शरशय्या पर पड़ा हुआ हूँ?” # भीष्म पितामह को अंतिम समय में तीरों की शैय्या पर किस कर्म के फलस्वरूप लेटना पड़ा था? यह बात उनको किसने बताई?

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# महाभारत में दानवीर कर्ण ने पिछले जन्म में ऐसे तो क्या काम किए थे कि उसे इस जनम में ये सब भुगतना पड़ा?

भीष्म पितामह अपने पिता से वचनबद्ध होकर आजीवन ब्रह्मचारी रहे।उन्होंने कौरवों और पाँडवों के प्रति सारे कर्त्तव्यों का यथासंभव श्रेष्ठ तरीके से पालन किया।तब भी महाभारत के युद्ध में तीरों से घायल होकर जब वह पृथ्वी पर गिरे तो तीरों की शय्या बन गई।

भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था।उनकी हालत अत्यन्त कष्टदायक थी।उनके मन में सवाल आया कि “सारी जिन्दगी मैं अपनी तरफ से अच्छे कर्म करने की कोशिश करता रहा,फिर भी मेरी इतनी भयानक पीड़ादायक मृत्यु क्यों हो रही है?”

तब भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण से पूछा कि “हे मधुसूदन,मेरे कौन से कर्म का फल है,जो मैं शरशय्या पर पड़ा हुआ हूँ?”

तब कृष्ण ने कहा-“आपने अपने सौ पूर्वजन्मों में कभी किसी का अहित नहीं किया,लेकिन एक सौ एकवें जन्म में एक बार आपके घोड़े के अग्रभाग पर वृक्ष से एक करकैंटा (एक प्रकार का साँप)नीचे गिरा।” “आपने बाण से उसे उठाकर पीठ के पीछे फेंक दिया। वह बेरिया की झाड़ी पर जा गिरा और उसके काँटे उसकी पीठ में धँस गए।करकैंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतने ही काँटे उसकी पीठ में चुभ जाते थे और करकैंटा अठारह दिन तक जीवित रहा और अंतत: आपको शाप देकर मर गया।”

हे पितामह!आपके सौ जन्मों के पुण्य कर्मों के कारण आज तक आप पर करकैंटा का शाप लागू नहीं हो पाया, लेकिन द्रोपदी का चीर हरण होता रहा और आप मूकदर्शक बनकर देखते रहे।” “इसी कारण आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गए और करकैंटा का शाप आप पर लागू हो गया।प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भोगना ही पड़ता है।

हिमालयायूके द्वारा प्रस्‍तुत इस कथा का सार यह है कि और इस घोर कलियुग में अधिकांश लोग ऐसे हैं,जो बिना सोचे विचारे अन्धाधुंध अपने स्वार्थ और कभी कभी क्षणिक लाभ के लिए हद से ज्यादा निकृष्ट कर्म कर डालते हैं,जिनके फल के बारे में सोचते ही नहीं कि यह तो वह बूमरैंग है जो उछालने पर वापिस हमारे पास ही आएगा।

हम लोग अपने कर्मों के प्रति कितने लापरवाह हैं। भीष्म पितामह जैसा उज्जवल चरित्र भी एक दो अन्जाने में किए गए ग़लत कर्मों से इतना दागदार हो गया कि मृत्यु के समय तीक्ष्ण तीरों का बिस्तर मिला…..। …. हम यह क्यों नहीं सोचते कि अपराध करने पर दुनिया की पुलिस भी पकड़ कर ले जाती है तो क्या ईश्वर की अदालत में न्याय नहीं होता होगा क्या?क्यों कोई गरीब है,कोई अमीर है,कोई सुखी है,कोई दुखी है? ये कर्मों के ही फल हैं। भीष्म पितामह ने साँप को जानबूझ कर और अपने स्वार्थ के लिए नहीं मारा फिर भी उनको तीर मिले।अन्जाने में किए गए ग़लत कर्म का भी फल मिलता है तो सोचें कि जानबूझ कर किए गए कर्म का क्या हश्र होगा? यदि कबूतर के सामने बिल्ली आ जाए और कबूतर आँखें बन्द कर ले यह सोचकर कि आँखें बन्द करने से बिल्ली चली गई…, तो भी बिल्ली उसे मारकर खा जाती है।ऐसे ही भले ही हम कर्मफल के सिद्धान्त को मानें या न मानें हमारे अच्छे या बुरे कर्म का फल हमें मिलकर ही रहेगा चाहे आज,कल या वर्षों बाद!

इसी प्रकार महाभारत के प्रमुख पात्र कर्ण का वर्णन हम करते हैं-

महाभारत में दानवीर कर्ण ने पिछले जन्म में ऐसे तो क्या काम किए थे कि उसे इस जनम में ये सब भुगतना पड़ा?

महाभारत में दानवीर कर्ण ने पिछले जन्म में ऐसे तो क्या काम किए थे कि उसे इस जनम में ये सब भुगतना पड़ा? कर्ण के जीवन के बारे मे बताया है. कर्ण महाभारत मे एक बहुत ही मुख्य किरदार थे। इसमे कर्ण के बारे मे बताया गया है। दंबोधव नाम के एक असुर ने सूर्य देव की कठिन तपस्या कर उनसे यह वरदान हासिल कर लिया था कि उसे सौ कवच हासिल होंगे। इतना ही नहीं इन कवचों पर केवल वही व्यक्ति प्रहार कर सकता था, जिसने करीब हजार सालों तक तप किया हो। दंबोधव की इच्छा यहीं पूरी नहीं हुई। उसने सूर्य देव से यह भी वर मांगा कि जो भी उसके कवच को भेदने का प्रयास करे, उसकी उसी क्षण मृत्यु हो जाए। वे वरदान में सूर्य से अनंत जीवन मानते है। लेकिन सूर्य ये बोल कर मना कर देते है कि ऐसा नहीं हो सकता. जिसके बाद दंबोधव उनसे हजारों सेना रुपी कवच की मांग करते है जो उनकी रक्षा करे और ये भी बोलते है की एक कवच को मारने के लिए इन्सान को 1000 वर्ष तक तपस्या करनी होगी और उस कवच के मरते ही वो इन्सान भी मर जायेगा। धरती के सभी लोग इस असुर से परेशान थे तब विष्णु ने इसे मारने का निर्णय लिया और नारा-नारायण जुड़वाँ भाई के रूप में जन्म लिया। नारा उस कवच को मारता था वही नारायण शिव की तपस्या किया करता था। नारा नारायण ने 999 कवच को तो मार दिया लेकिन आखिरी कवच में दम्भोद्भावा सूर्य लोक में जा छुपा. कर्ण का जन्म इसी आखिरी कवच के द्वारा हुआ था। कर्ण ने अपने पिछले जन्म में बहुत पाप किये थे वो एक असुर था।लेकिन वो सूर्य पुत्र था जिस वजह से कर्ण के रूप में उसे बहुत सी शक्तियाँ प्राप्त हुई थी , वो बहुत ही अच्छा योद्धा था।

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