श्री कृष्ण और भगवान् शिव का आशीर्वाद हो, उसका भला कौन क्या बिगाड़ सकता है – महाभारत की कहानियों का मूल आधार रामायण में है

महाभारत के अर्जुन में ऐसी भी क्या ख़ास बात थी कि श्रीकृष्ण की उनसे इतनी गहरी मित्रता हो गई थी और उन्होंने कई बार उनकी सहायता की? क्या इसमें उनके पूर्व जन्म का कोई वृतांत भी शामिल है?

महाभारत की कहानियों का मूल आधार रामायण में है । जैसे कृष्ण राम में अंतर देखने वाला मनुष्य, भगवान राम का छुपकर बाली का वध, आदि वैसे ही इस प्रश्न का उत्तर भी दिया है

 महाभारत की कुछ प्रश्न के उत्तर रामायण में दिए गए हैं। रामायण में सुग्रीव जो सूर्यपुत्र थे उनके साथ ग़लत हुआ था क्योंकि उनके भाई बाली जो इन्द्र पुत्र थे ने उनको कुछ गलतफहमी के कारण राज्य से बाहर कर उसकी पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया था जो ग़लत था जैसे की मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने भी बुरा कर्म की संज्ञा दी थी। इसलिए सुग्रीव धर्म के मार्ग पर थे उनका साथ देकर मित्रता और क्षत्रिय धर्म के साथ इंसानियत धर्म (जिसका पालन कलयुगी व्यक्ति नहीं करता) का पालन करके सुग्रीव की सहायता की और बाली पुत्र को सज़ा दी।

ठीक उसी प्रकार कर्ण सूर्यपुत्र और अर्जुन इन्द्र पुत्र के साथ वही हुआ इत्तेफाक से यहां कर्ण ग़लत नहीं थे इसलिए भगवान कृष्ण उन्हें समझाने और अपनी तरफ़ शामिल करने के लिए साम दाम भेद सबका प्रयोग भी किया पर कर्ण दुर्योधन के प्रति निष्ठावान थे इसलिए यहां भगवान राम(कृष्ण) ने अर्जुन को सही मानकर उसकी मदद की । भगवान विष्णु को सूर्य और इन्द्र दोनों मानते हैं इसलिए दोनों के साथ पक्षपात नहीं किया और यह दोनों उनके हर अवतार में उनके सहयोगी रहे हैं

दुर्योधन के अनसुने तथ्य क्या हैं और वह कितना शक्तिशाली था?

धृतराष्ट्र और गांधारी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधन एक महारथी योद्धा था। इनमें एक हजार आदमियों का बल था। धनुर्धर में सामान्य परन्तु गदा युद्ध में द्वापर युग के सर्वश्रेष्ठ गदाधर थे इनके गदा युद्ध की तारीफ खुद भी बलराम ने की और उन्होंने ही दुर्योधन को सर्वश्रेष्ठ गदाधर की संज्ञा दी। दुर्योधन ने बिना किसी आशीर्वाद या सोमरस पिये बिना महाभारत युद्ध में भीम को पराजित कर रण छोड़ने पर विवश किया भीम की इनकी जाति दुश्मनी थी।

– जैसे दुर्योधन का असली नाम सुयोधन और दुश्शासन का असली नाम शुसासन था पर भीम को जहर देने वाली बात जानने पर पांडवों ने सुयोधन को दुर्योधन कहने लगे यहीं नहीं दुर्योधन ने भी भीम को निः मुछिया और बैल और मंदबुद्धि नाम दिया जिसे बाद में महाभारत युद्ध में शब्द युद्ध में ये नाम कहकर मनोबल तोड़ने का काम करतें थे।

2- दुर्योधन की पत्नी भानुमति एक कृष्ण भक्त थीं और उनकी पुत्री लछमणा भी पर दुर्योधन को इससे कोई दिक्कत नहीं थी।

3- भानुमति दुर्योधन के साथ मल्लयुद्ध भी करतीं थीं यह बात गांधारी ने स्वीकार की।

4- दुर्योधन ने भानुमति को वचन दिया की वह कभी भी दूसरा विवाह नहीं करेगा जब तक भानुमति के रहते।

5- दुर्योधन बचपन से बुरा नहीं था कि न ही पांडव का दुश्मन था अगर होता तो जब पांडव वन में माता कुंती और पांडु के साथ जंगल में रहते थे तब दुर्योधन ने कभी कोई हानि नहीं पहुंचाई पर महल मे आकर जब पांडु पुत्र ने उसकी वस्तु पर अधिकार किया तब से दुश्मनी बढ़ने लगी।

6- दुर्योधन ने अपनी बहन दुशशला और पुत्री लछमणा का प्रेम विवाह करवाया ।

7- दुर्योधन ने कर्ण को मगध जैसे शत्रु को घेरने के लिए करण को राजा बनाया और कर्ण ने राजा बनते ही मगध पर आक्रमण करके उसे हस्तिनापुर में मिलाया।

8- दुर्योधन ने अश्वत्थामा को दोपदी पुत्र की हत्या करने पर बहुत डांटा और कहा की अब वंश में तर्पण करने वाला कोई नहीं रहा।

9- दुर्योधन ने जब भीमसेन को अपने भाइयों को पिटता देखा तब से भीम को विष देने का मन बनाया कहते हैं दुर्योधन भीम से इतना जलता था की जब पांडव 12 वर्ष वनवास में थे तब दुर्योधन ने भीम की लौह मूर्ति बनवाकर उस पर गदा से अभ्यास करता था और अंतिम युद्ध में जब किसी एक पांडव को हराने पर हस्तिनापुर वापस लेने का वचन युधिष्ठिर ने दिया तो चाहता तो एक पांडू को हराकर राज्य ले सकता था पर उसने भीम को चुना इससे पता चलता है कि दुर्योधन भीम को ही सिर्फ मारना चाहता था।

10- दुर्योधन दोपदी स्वयंबर में भाग नहीं लिया था और अपनी जगह अपने भाई कर्ण ( दानवीर कर्ण नहीं क्योंकि वेदव्यास ने कर्ण को हमेशा राधानंदन या सुतकुमार कह सम्बोधित किया ताकि भ्रम न हो) को स्वयंबर में भाग लेने को कहा पर वह मछली की आंख भेद नहीं पाया।

11- दुर्योधन एक मायावी योद्धा था और उसके राक्षशो से अच्छे सम्बन्ध थे। जैसे अलायुध अलमबाला अलमबुष आदि।

12- दुर्योधन ना चाहते हुए भी युधिष्ठिर को प्रणाम कर आशीर्वाद लेता था।

13- दुर्योधन का विवाह जब सुभद्रा से नहीं हुआ तो बलराम जी ने दुर्योधन पुत्र लक्ष्मण को अपनी पुत्री का विवाह करने का विचार किया पर अर्जुन की तरह अभिमन्यु ने लक्ष्मण की होने वाली पत्नी का अपहरण घटोत्कच की सहायता से किया और तब से दूरयोधन और उसके पुत्र लक्ष्मण का पांडवो से शत्रुता प्रारम्भ हुई।

14- दुर्योधन ने कर्ण को हमेशा एक बड़े योद्धा के रूप में सम्भाल कर रखने के लिए भीष्म की बात मान ली की कर्ण युद्ध नहीं करेगा।

15- जब दुर्योधन पैदा हुआ तो उसकी मुट्ठी में खून भरा हुआ था तो सबने धृतराष्ट्र को उसे त्यागने को कहा पर धृतराष्ट्र ने ऐसा पाप नहीं किया ।

16- दुर्योधन। दुर्योधन ही अंतिम गांधारी नंदन था जो युद्धभूमि पर वीरगति को प्राप्त हुआ। तो उसके सारे भ्राता पूर्व में ही भीम के हाथों मारे गए और दुःशासन सत्रहवें दिन भीम द्वारा मारा गया।

17- दुर्योधन स्वभाव से बुरा नहीं था पर मामा शकुनी के सम्पर्क में आने पर वह बदल गया ।

18- दुर्योधन ने भीम को महाभारत युद्ध के बीच में कई बार पराजित कर रण छोड़ने पर विवश किया मतलब बिना गांधारी के आशीर्वाद के दुर्योधन भीम के बराबर का योद्धा था।

19- दुर्योधन ने हर जन्म में धृतराष्ट्र जैसा पिता पाने की इच्छा प्रकट की थी और अपने पिता के साथ अंधे होने के कारण हूए अन्याय से बहुत दुखी था और यही चिंता उसे भी थी की जरुर पांडु की तरह पांडु पुत्र भी उसका राज्य ले लेंगे।

20- महाभारत युद्ध के बाद कृष्ण ने दुर्योधन के सिर को भीमसेन को कुचलता देख भीम पर कोधित हुए और उसे मंदबुद्धि कहा । भीम ने दुर्योधन के श्राद्ध के लिए धृतराष्ट्र को धन नहीं दिया तब चुपके से युधिष्ठिर ने धन दिया और भीम के अपराध के लिए खुद क्षमा मांगी।

कर्ण ने अर्जुन के प्राण बचाए थे?

कर्ण अर्जुन को बचपन से ही अपना प्रबल प्रतिद्वंद्वी मानते थे। उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य अर्जुन को युद्ध में परास्त करने का था। वह हमेशा से अर्जुन के साथ युद्ध करने के अवसर ढूंढ़ते रहे – चाहे वह कुरु रंगभूमि हो, विराट युद्ध हो या कुरुक्षेत्र का युद्ध, उनका लक्ष्य केवल अर्जुन थे। महाभारत के रण में भी उन्होंने अर्जुन को छोड़कर अपने बाकी चार भाइयों का वध न करने का प्रण लिया था। उन्होंने बार बार दुर्योधन से यही कहा था कि वह अर्जुन का वध करेंगे। इसके लिए उन्होंने आसुरी व्रत तक किया था। किन्तु हर बार उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। जिसके ऊपर श्री कृष्ण और भगवान् शिव का आशीर्वाद हो, उसका भला कौन क्या बिगाड़ सकता है।

कौरव सेना की १३वें दिन के युद्ध की रणनीति युधिष्ठिर को चक्रव्यूह के बाहर रोकने की नहीं थी, अपितु उन्हें उसमें घेरकर बंदी बनाने की थी। उनकी योजना थी कि अर्जुन व कृष्ण जब मुख्य रणभूमि से दूर होंगे, तब इस योजना को कार्यान्वित किया जाएगा, क्योंकि कौरवों को लगा था कि चक्रव्यूह भेदना पांडव सेना में मात्र इन्हीं दो को आता था।

रणनीति के अनुसार १३वें दिन के युद्ध के आरम्भ में त्रिगर्त राज्य के सुशर्मा ने अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। सुशर्मा के साथ संशप्तक सेना थी। ये वो आत्मघाती दस्ता था जिसका गठन मात्र अर्जुन से लड़ने के लिए किया गया था। इन योद्धाओं ने शपथ ली थी कि या तो अर्जुन को मार देंगे या उससे अंतिम साँस तक लड़ते रहेंगे, और पहले ही स्वयं अपना अंतिम संस्कार कर लिया था। अपने सेवकों को भी धन आदि दे कर इन लोगों ने अपने सारे ऋण उतार लिए थे और मृत्यु के लिए तैयार थे। सुशर्मा की ललकार पर अर्जुन ने उससे युद्ध करना आरम्भ कर दिया, और सुशर्मा व संशप्तक अर्जुन व कृष्ण को दूर ले गए। उसके बाद द्रोण ने चक्रव्यूह की रचना की।

व्यूह के बाहर एक छोर की रक्षा का भार भूरिश्रवा, शकुनि व शल्य और उनकी सेना को, और दूसरे छोर की रक्षा का भार दुर्योधन के ३० भाइयों व अश्वत्थामा को सौंपा गया। और मुख्य द्वार पर सिंधुराज जयद्रथ को तैनात किया गया। उद्देश्य था युधिष्ठिर को बंदी बनाना, क्योंकि व्यूह को तोड़ने वाले दूर जा चुके थे। किंतु उनके उद्देश्य को ध्वस्त कर दिया सौभद्र अभिमन्यु ने।

अभिमन्यु चक्रव्यूह में घुसना जानता था, किंतु बाहर निकलना नहीं। अन्य चार पांडवों व सात्यकी इत्यादि ने मिलकर मंत्रणा की कि अभिमन्यु के पीछे वो भी व्यूह में प्रवेश कर जाएँगे और मिलकर उसे तोड़ देंगे। किंतु जयद्रथ ने अभिमन्यु के घुसने के पश्चात किसी अन्य को भीतर आने नहीं दिया। उसे शिव से वरदान प्राप्त था कि किसी एक दिन युद्ध में वो अर्जुन को छोड़ अन्य पांडवों पर भारी पड़ेगा। और उसने उस दिन अर्जुन की अनुपस्थिति का लाभ उठाते हुए पूरे दिन सम्पूर्ण पांडव सेना को व्यूह के बाहर ही रोक लिया। जब भी कौरव सेना का मनोबल गिरता, जयद्रथ उनको हिम्मत देता और युद्ध में डटा रहता, जिससे सेना में फिर से जोश आ जाता। व्यूह के अंदर पूरे दिन अभिमन्यु कौरव सेना के महारथियों का वध करता रहा, और बाहर जयद्रथ पांडव सेना को टक्कर देता रहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने के बाद भी पांडव सेना का कोई भी योद्धा सूर्यास्त से पहले व्यूह के अंदर नहीं जा पाया। और युद्ध का अंत बेहद थके हुए अभिमन्यु की मृत्यु से हुआ।

यदि उस दिन अभिमन्यु अकेला नहीं पड़ता और जयद्रथ सम्पूर्ण पांडव सेना को बाहर ना रोकता, तो युद्ध कदाचित और लम्बा चलता। क्योंकि अभिमन्यु का शायद उस दिन वध ना होता, और ना अर्जुन को जयद्रथ पर क्रोध आता। जब पांडव अपना वनवास काट रहे थे, तब एक बार जयद्रथ ने द्रौपदी का अपहरण कर लिया था। अर्जुन व भीम ने युद्ध करके उसकी सेना का नाश कर दिया था, और जयद्रथ को पकड़ लिया था। तब भीम जयद्रथ का वध करने वाला था और अर्जुन ने उसे रोककर जयद्रथ के प्राणों की रक्षा की थी। उस जीवनदान के बदले में जयद्रथ ने अर्जुन के ही पुत्र को अकेला कर के मरवा दिया था, और इससे अर्जुन की क्रोधाग्नि भड़क उठी थी। अर्जुन ने अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ को मारने का प्रण किया, और ऐसा ना कर पाने की स्थिति में स्वयं चिता में प्रवेश करने का भी वचन लिया। दुर्योधन को लगा कि अर्जुन को रास्ते से हटाने का यह स्वर्णिम अवसर है, और उसने व द्रोण ने जयद्रथ को अगले दिन तीन व्यूहों के बीच छिपा दिया- सकट व्यूह, पद्म व्यूह व सूचिमुख व्यूह। यह व्यूह रचना कई मील लम्बी व गहरी थी। किंतु अगले दिन अर्जुन ने तीनों व्यूहों को तोड़ते हुए जयद्रथ को मार दिया, और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए कौरवों की ७ अक्षौहिणी सेना का नाश कर दिया। इस दिन के युद्ध ने सारे समीकरण पलट दिए, और कौरव सेना बहुत कम भी रह गई और उसका मनोबल भी टूट गया। अर्जुन व कृष्ण के नाम से सब पहले ही थोड़ा सहमते थे, इसके बाद तो अर्जुन का ख़ौफ़ बन गया। कौरवों ने सोचा कि पूरे दिन के युद्ध के बाद थके हुए और दुश्मन के बीच कई मील अंदर घिरे हुए अर्जुन को घेरकर मार देंगे, और सूर्यास्त के बाद भी युद्ध जारी रखा। किंतु इस मंसूबे को घटोत्कच ने नाकाम कर दिया। कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना और गई और कर्ण की वासवी शक्ति भी।

१४वाँ दिन कौरव सेना के लिए युद्ध का सबसे त्रासदी वाला दिन था जिसमें युद्ध का नक़्शा ही बदल गया। और ऐसा ना होता यदि जयद्रथ अभिमन्यु की मृत्यु का कारण ना बनता और अर्जुन के क्रुद्ध रूप को ना जगाता।

अंतिम युद्ध में कर्ण वध के बाद दुर्योधन अपना आपा खो देता है और भागती हुई सेना की कमान महाराजा शल्य को सौंपते हैं युद्ध के अंतिम दिन तक उनका भी वध हो जाता है अब 18 दिन दुर्योधन गांधारी के आशीर्वाद के साथ रण भूमि की ओर प्रस्थान करता है बिना किसी भय के वह कृतवर्मा कृपाचार्य और अश्वत्थामा के साथ युद्ध क्षेत्र में जाते हैं युद्ध दोपहर तक चलता है पर अर्जुन दिव्यास्त्र का प्रयोग कर सेना को भगा देता है तब दुर्योधन और कृपाचार्य सेना को रोकने का प्रयास करते हैं पर नाकाम रहते हैं भागी हुई सेना के साथ दुर्योधन भी पास ही के तालाब के पास सरोवर में छुप जाता है फिर भीमसेन अर्जुन नकुल सहदेव युधिष्ठिर सब दुर्योधन के पास सरोवर पर जमा होते हैं युधिष्ठिर दया खाकर दुर्योधन को किसी एक पांडव से जीतने पर हस्तिनापुर वापस देने का वचन देता है और दूर से खड़े अश्वत्थामा कृपाचार्य कृतवर्मा भी यह सब देख रहें थे और अगर पांडव झुण्ड में दुर्योधन पर प्रहार करते तो वो भी दुर्योधन की सहायता करते पर उन्हें युधिष्ठिर के वचन पर भरोसा था उधर दुर्योधन युधिष्ठिर के प्रस्ताव को न मानकर कहते हैं कि मेरे जीतने पर ही तुम ही राजा रहोगे पर अगर मुझसे बच गए तो। युद्ध आरम्भ होता है बलराम जी भी युद्ध आकर देखते हैं युद्ध में भीम कमजोर साबित होता है और तब दुर्योधन बढ़ चढ़ कर भीम को घायल करता है। कृष्ण के आदेश पर भीम छल से दुर्योधन का वध करके उसका सिर कुचल रहा होता है इसपर कृष्ण भीम को फटकार लगा के कौरव शिविर की ओर कूच करते हैं साथ में पांडव भी थे। इतने में कृतवर्मा अश्वत्थामा कृपाचार्य सब दुर्योधन से मिलने आते हैं तब दुर्योधन कहता है कि कृतवर्मा जाओ अपने इष्टदेव कृष्ण की सेवा करो और अश्वत्थामा से पांचाल राज्य पर राज करने और कृपाचार्य को राजगुरु का कार्य कहने को कहते हैं ।

उधर जैसे ही युधिष्ठिर गांधारी के शिविर में जाते हैं वैसे गांधारी की दृष्टि पड़ने पर युधिष्ठिर के नाखून काले पड़ जाते है और अर्जुन भय से भागकर श्रीकृष्ण के पीछे छुप जाते हैं। तब कृष्ण सबको समझाते हैं।+

युद्ध में अन्य योद्धाओं के शस्त्र खत्म हो जाते थे, लेकिन अर्जुन के बाण कभी खत्म क्यों नहीं होते थे?

एक बार अग्निदेव श्री कृष्ण और अर्जुन के समक्ष खांडव वन को जलाने की याचना करने गए। उस समय इस कार्य को सम्पन्न करने हेतु अर्जुन ने अग्नि से दिव्य धनुष, अक्षय तरकश जिसके बाण कभी खत्म न हो एवं एक दिव्य रथ मांगा। उन्होंने ये वस्तुएं अपने सामर्थ्य को मध्यनज़र रखते हुए मांगा था। चूंकि वे बहुत बल से धनुष से बाणों को चलाते थे जिसे सामान्य धनुष सहन नहीं कर सकता था और जिसके कारण उनके सारे बाण जल्दी समाप्त हो जाते थे , इसलिए उन्होंने ये आयुध अग्नि से मांगे थे। उनकी इस मांग को स्वीकार करते हुए अग्नि ने वरुण देव का आवाह्न किया और उनसे अर्जुन को यह सारी वस्तुएं प्रदान करने के लिए कहा। अर्जुन ने इन आयुधों से लैस होकर सफलतापूर्वक खांडव वन का दहन किया था। इन आयुधों का प्रयोग उन्होंने अपने जीवन के अन्य युद्धों में भी किया था।

धृष्टद्युम्न ने दोण का वध कैसे किया? सिर काटने के बाद धृष्टद्युम्न ने ऐसा क्या किया जिससे कौरव पांडव और देवताओं ने भी धृष्टद्युम्न को अधर्मी कहा?

दृढ़ मन ही धृष्टधुम्न है। जब साधक का मन साधना करते करते दृढ़ हो जाये तो फिर वही धृष्टधुम्न हो जाता है। देखों, पांडवों की सेना में बड़े बड़े योद्धा थे, बड़े बड़े शूरवीर थे लेकिन फिर भी इनका सेनापति धृष्टधुम्न था। यह पांडवों का प्रथम और अंतिम सेनापति है।

इसका अर्थ है जब साधक योग में प्रवेश करे तो भले ही वो कितना ही शूरवीर हो, भले ही कितना ही अच्छा हो, परन्तु जब तक उसका मन दृढ़ नही होगा तब तक योग में प्रवेश में नही मिलेगा। योग में प्रवेश करते समय, जब व्यक्ति बीस मिनट भी शांत बैठता है तो फिर मन भटकता है। इधर उधर डोलता है। यह मन ही साधना में विध्न डालता है। जब तक यह मन एक जगह स्थिर और दृढ़ नही होगा तब तक योग में प्रवेश नही मिलेगा।

जब यही मन, प्रयास के द्वारा दृढ़ हो जाएगा तो व्यक्ति घण्टो योग में बिताने लगेगा। और जब घण्टो योग में प्रवेश होगा उसी समय समस्त शरीर में शुरु होगी एक महाभारत। ह्रदय के अंतःकरण में कोलाहल होगा। उसी कोलाहल में दैवीय गुण पांडव होंगे और राक्षस गुण कौरव होंगे।

इन्ही दैवीय गुणों में धृष्टधुम्न सबका सेनापति होगा। सेनापति की राह पर ही समस्त सेना होती है। सेनापति जो आदेश कर दे वो सेना को मानना पड़ेगा। आज यह मन जब दृढ़ हो गया तो अब समस्य दैवीय गुणों को अपने आदेश पर चला रहा है। साधना करते समय जब साधन अच्छा हो तो फिर व्यक्ति शुद्र और वैश्य श्रेणी से क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश करता है। जहाँ उसे ज्ञात होता है असल प्रारंभिक गुरु द्रौणाचार्य ही उसके विरुद्ध है।

द्वेत ही द्रौण है। यही सबका गुरु है। प्रथम गुरु यही है और अंतिम अद्वेत है। द्वेत ही द्रौणाचार्य है और अद्वेत ही कृष्ण है। जब एक गुरु से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर ली तो अब अंतिम गुरु श्री कृष्ण सारथी बनकर आगे की यात्रा करवाते है। और इसी बीच द्वेत रूपी द्रौणाचार्य को उसके मोह में पटककर उसका सिर काट दिया जाता है।

कौन काटता है? धृष्टद्युम्न काटता है। जब मन दृढ़ स्थिति में हो जाये तो फिर किसी के बाप को भी नही बख्शता। साधन पथ में मन दृढ़ है तो फिर चाहे कितनी ही कठिनाई आये, साधक सभी कठिनाइयो पर टूटकर पड़ता है। यहाँ द्रौणाचार्य का सिर काट दिया है। यहाँ सिर काटने का अर्थ है बहिर्मुख काट दिया है। जो सिर्फ बाहर देख रहा था वो अन इस जगत को नही देखेगा। दृढ़ मन ने उस सिर को काट दिया है। अब साधक अंतर्मुखी हो चला है। और जब साधक एक अंतर्मुखी हुआ तो अब जगत उसे दिखता ही नही। अब सिर्फ ईश्वर की चर्चा है। अब जब द्वेत रूपी द्रौणाचार्य खत्म हो गया तो विजय लगभग तय हो गयी है।

उधर अर्जुन को क्रोध आ रहा है। अनुराग ही अर्जुन है। साधक चाहता है कि वो मोक्ष भी प्राप्त करे और इस जगत के रिश्ते भी बनाये रखे। यही अर्जुन देखता है। वो अभी भी गुरु, रिश्ते नाते देख रहा है। परन्तु उसे श्री कृष्ण अर्थात अंतर्मन से वो परमात्मा अब निर्देश देकर समझा रहा है कि जो हुआ सही हुआ। यही धृष्टधुम्न अंत में मारा गया। रात्रि में सोते हुए मारा गया। साधक की भी यही स्थिति है। जब रात्रि में सारा जगत सो रहा है, उस समय उसे योग में प्रवेश करना था परन्तु वह निद्रा में चला गया।

यही गलती हो गयी, योग पर तो होश में रहना है, जो बेहोशि में गया वो मारा गया। इसलिए नित्य निरतंर जो रात्रि में भी योग में होश में रहता है, वही विजय होता है। वही बचता है। क्योंकि मैंने कई साधक ऐसे देखें है जो दिन में वासना पर नियंत्रण करते है और रात्रि में स्वप्नदोष में सब खत्म हो जाता है।।। क्यों? क्योंकि दिन में मन दृढ़ था परन्तु रात्रि में वो सो गया। रात्रि में अश्वत्थामा ने मार डाला। कौन अश्वत्थामा? आसक्ति ही अश्वत्थामा है। विषयो में रही आसक्ति जब दिन में नही भटका सकती तो साधक पर रात्रि में प्रहार करती है। जो सो गया, वो मर गया। जो जाग गया, वो जीत गया।

महाभारत के अनुसार राजा शांतनु का कौरवों और पांडवों से क्या संबंध है?

महाराजा शांतनु कौरवों और पांडवों के पूर्वज थे। इनकी पहली पत्नी देवी गंगा से उन्हें देवव्रत नामक पुत्र हुआ जो आगे चलकर भीष्म के रूप में मशहूर हुए। गंगा के जाने के बाद इन्होंने निषाद कन्या सत्यवती से दूसरा विवाह किया जिनसे चित्रांगदा और विचित्रविर्य दो पुत्र हुए। चित्रांगदा गंधर्वों के साथ हुए युद्ध में इसी नाम के एक गंधर्व द्वारा मारा गया। दूसरा भाई विचित्रविर्य एक नशेड़ी और रोगग्रस्त व्यक्ति था उसके विवाह के लिए भीष्म ने काशी नरेश के पुत्रियों के स्वयंवर में जाकर बलपूर्वक उनकी तीनों पुत्रियों अंबा,अंबिका और अंबालिका का हरण कर लिया किन्तु अंबा किसी और से प्रेम करती थी जिस कारण भीष्म ने अन्य दो का विवाह विचित्रविर्य से करवाया। विचित्रविर्य की अकाल मृत्यु के कारण दोनों निसंतान रह गई और भीष्म चूंकि ब्रम्हचर्य व्रत धारण कर चुके थे तो वंश को आगे बढ़ाने के लिए सत्यवती ने अपने पहले पुत्र वेदव्यास के माध्यम से नियोग द्वारा दोनों वधुवों को गर्भाधान करवाया जिनसे धृतराष्ट्र और पांडु का जन्म हुआ ।

महाभारत में कौरवों और पांडवों में से किसका हस्तिनापुर पर जन्मसिद्ध अधिकार होना चाहिए था, कौन उस पर राज करने योग्य था?

जब विचित्रवीर्य का निधन हुआ तो वो निःसंतान थे।तब सत्यवती ने वेद व्यास के जरिये नियोग के माध्यम से धृतराष्ट्र और पांडु दो पोते पाए। विदुर को छोड़ देते हैं। उस समय विधान था कि राज्य के नियम ऋषि लिखते थे, इनके अनुसार राजा राज्य चलाते थे। नियम था कि दृष्टिहीन,अपंग लोग राजा नही बन सकते थे क्योंकि राजा को राज्य के दौरे करने पड़ते हैं, युद्ध लड़ने पड़ते हैं तो राजा का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना ज़रूरी था।

मुंबई में एक कहावत चलती है” गल्ली परत दादा”मतलब हर गली में दादागिरी दिखाने वाला एक आदमी मिलता है। वैसे ही महाभारत काल मे हर पचास कोस पर छोटे-छोटे राज्य थे, एक नगर के बराबर भी राज्य थे। ग्रीक सभ्यता में भी ऐसा ही था इसको ” सिटी स्टेट”कहा गया। ये सब आपस मे लड़ते रहते थे। अगर भीष्म का संरक्षण न होता तो एक अंधा राजा अपना राज्य और जनता को कभी सुरक्षित नही रख पाता।

ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं-जिस राज्य में पांडवों ने अज्ञातवास किया था, उसका सेनापति कीचक उधर के राजा से ज्यादा शक्तिशाली था तो राजा को दबा कर रखता था। यही धृतराष्ट्र के साथ भी होता अगर भीष्म की सोच अलग होती। धृतराष्ट्र तो खुद के विवाह के लिए भी भीष्म पर निर्भर रहा।जन्मांध से सहानुभूति रखी जा सकती है पर शासक कौन हो इसका निर्णय भावनाओं में बहकर नही होना चाहिए।

पर पांडु वन चले गए तो उसको कार्यकारी राजा बनाना पड़ा, मतलब तकनीकी रूप से सिंहासन अब भी खाली था, ये नियम धृतराष्ट्र को पता था। अगली पीढ़ी में जिसका पुत्र बड़ा होता उसी का युवराज बनना तय था। युधिस्ठिर बड़े थे तो जन्म से तो उनका ही अधिकार हुआ। युधिष्ठिर की शिक्षा खत्म होने के बाद भी धृतराष्ट्र ने उनको युवराज बनाने के लिए कोई घोषणा नही की,वो कैसे भी करके यथास्थिति बनाये रखना चाहता था(जैसे अभी कांग्रेस के हाल हैं)। जब कृष्ण ने अक्रूर को हस्तिनापुर भेजा और उन्होंने राजसभा में धृतराष्ट्र को समझाया, तब युधिष्ठिर को युवराज बनाया गया( दुर्योधन को नही बनाया इसी से सिद्ध होता है कि जन्म से युधिष्ठिर का अधिकार था)। उसके बाद भी उनको वारणावत भेज दिया,फिर उनको बंटवारे के नाम पर खांडवप्रस्थ पकड़ा दिया। ये तो पांडवों की भलमनसाहत थी कि उन्होंने अंधे राजा को हाथ पकड़कर सिंहासन से उतार नही दिया। दुर्योधन ने ये प्रश्न तो उठाया ही होगा कि पांडव तो नियोग से पैदा हुए तो उनका अधिकार न माना जाए। पर इस तर्क से तो खुद धृतराष्ट्र का ही अधिकार खत्म हो जाता तो दुर्योधन भी दौड़ से बाहर हो जाता। फिर भी सज्जन पांडवों ने बंटवारा स्वीकार कर लिया था तो धृतराष्ट्र और दुर्योधन के लिए हस्तिनापुर मिल गया।उसमे सुख-शांति से रहते।

धृतराष्ट्र की वही समस्या है जो आजकल के माता-पिता में भी बहुत देखने को मिलती है, वह है अपनी संतानों पर नियंत्रण न होना। कई जगह वो भीष्म और वेद व्यास के सामने कहता है कि दुर्योधन मेरी बात नही मानता!! एक पिता विवश हो तो कम नुकसान है पर राजा विवश हो तो महाभारत होती है। धृतराष्ट्र से यही सीखना चाहिये कि बच्चों को “ना”सुनने की आदत डालें नही तो आगे जाकर उनका ही नुकसान होगा। धृतराष्ट्र का मतलब है जो राष्ट्र को धारण करे, उसने अपने नाम को सही सिद्ध नही किया।

महाभारत काल की सबसे कम सुना या पढ़ा गया किस्सा कोनसा है ?

यह महाभारत का एक ऐसा किस्सा है जो बहुत महत्वपूर्ण होते हुए भी ज्यादा चर्चा में नही आया और ये कहानी या किस्सा आज के युग से सीधे रूप से जुड़ा हुआ है,

मुझे नहीं पता कि इस उत्तर के बारे में पहले चर्चा हुई है या नहीं। यह राजा परीक्षित की मृत्यु और कलयुग की शुरुआत की कथा है। जब पांडवों को पता लगा कि श्री कृष्ण का कार्य धरती पर सम्पन्न हो गया और वह अपनी इहलीला समाप्त करने वाले हैं तो वे दुखी हो गए। इस दुख के कारण उन्होंने परीक्षित को हस्तिनापुर का राजपाट सौंप दिया और द्रौपदी के साथ हिमालय पर ध्यान करने चले गए। राजा परीक्षित बड़े प्रतापी राजा थे। वो हस्तिनापुर को बहुत अच्छे से देख रहे थे। पर परीक्षित और पांडव के ऊपर एक समस्या थी जो भगवान कृष्णा के कारण परिलक्षित नहीं हो रही थी। दरअसल, पांडवों और कौरवों के युद्ध के दौरान नवे दिन ही तीसरे युग का अंत हो गया और कलियुग ने प्रवेश कर लिया था। चूँकि भगवान कृष्ण के जीवित रहते कलि अपना प्रभाव नहीं दिखा पा रहा था, अस्तु प्रभु के जाते ही कलि लोगों के मस्तिष्क में राक्षसी प्रवित्तियों को घोलने लगा।

जल्दी ही राजा परीक्षित तक यह समाचार पँहुच गया कि दैत्य कलि उनके साम्राज्य में अपने दुष्प्रभावों को फैला रहा है। परीक्षित जल्द ही उज़ दैत्य की खोज में निकल गए जिससे हस्तिनापुर को उसके प्रभाव से बचाया जा सके। राजा ने देखा कि एक बूढ़ा कमजोर व्यक्ति एक गाय और एक बैल को बेरहमी से पीट रहा है। बैल एक पाँव पर ही खड़ा था यह देखकर राजा परीक्षित समझ गए कि निश्चित ही यह बूढ़ा ही राक्षस है और बैल को आज़ाद करवाना ही पड़ेगा।

दरअसल यह एक सांकेतिक रूप था जो दर्शाता था कि गाय धरती है और बैल धर्म। कलियुग में उसके चार स्तंभों अर्थात तप, सत्य, स्वच्छता (बाह्य व अंतः) एवं दया में से बस सत्य ही बचा है। सतयुग में धर्म के चारों पैर ठीक थे। त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में बस एक ही स्तंभ पर धर्म टिका था, वह भी धीरे धीरे क्षीण हो जा रहा था।

यह देखते ही परीक्षित ने तलवार निकाल ली। कलि जानता था कि परीक्षित भगवान कृष्ण के पौत्र हैं और वह उनसे नहीं जीत सकता। इसी कारण से उसने बल की जगह बुद्धि का प्रयोग करना उचित समझा। उसने राजन से कहा कि यह प्रकृति का नियम है, वह प्राकृति के नियम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। राजन बद्धिमान थे, उन्हें लगा कि कलि ठीक कह रहा है कि वे प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। पर उन्होंने कलि से एक समझौता किया कि वह केवल उन्हीं स्थानों पर रहेगा जहाँ आसुरी प्रवित्तियाँ निवास करती हैं।

यह चार स्थान थे, जुआघर, बूचड़खाने, वेश्यालय और मदिरालय। कलि ने उनसे प्रार्थना की कि वह उसे एक और स्थान रहने को दें। इसपर उन्होंने उसे हर सोने की वस्तु पर रहने की अनुमति दे दी। आज भी ये पांचों चीज़े आसुरी प्रवित्ति को आमंत्रण देती हैं। जैसे ही राजा ने कलि को यह आदेश दिया वह उनके सिर पर लगे सोने के मुकुट पर बैठ गया। इस प्रकार वह धीरे धीरे राजा की बुद्धि को दिग्भ्रमित करने लगा। एक दिन राजा परीक्षित आखेट पर निकले तो वे जंगल में भटक गए। प्यास और सेना से बिछड़े हुए राजा भटकते भटकते सामिक ऋषि के आश्रम में पहुँचें जहाँ ऋषि ध्यान में लीन थे। राजा ने उन्हें पुकारा पर घोर तप में लीन ऋषि ने कोई जवाब नहीं दिया। राजा के दिमाग में एक बात गूंजी, जो कलि उनके मुकुट से बोल रहा था, “आप यहाँ के राजा हैं और इसकी ये मजाल…” राजा ने अपना सिर झटका की मुझे एक ऋषि के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए।

पर कलि ने बार बार यही दोहराया। राजा के मस्तिष्क में यह अहम बैतः गया कि वह राजा है। उसने पास पड़ा मृत सर्प उठाया और ऋषि सामिक के गले में डाल दिया। चूँकि ऋषि ध्यान में थे, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा। परन्तु शाम को जब उनके पुत्र ऋषि सृंगन आश्रम लौटे तो उन्हें पिता का यह अपमान बहुत बुरा लगा। उन्होंने सर्प को गले से निकाल कर फेका और ध्यान से पता किया कि ऐसा किसने किया। जब उन्हें पता लगा कि यह राजा का काम है तो उन्होंने कह, “हमें ऐसे मूर्ख राजा की आवश्यकता नहीं। आज से सातवें दिन इसी सर्प के डसने से इस राजा की मृत्यु हो जाएगी, ऐसा मेरा श्राप है।” राजा परीक्षित को यह ज्ञात हो गया कि आज के सातवें दिन मेरी मृत्यु ही जाएगी तो उन्होंने अपना राजपाट अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया। और स्वयं सुक जी महाराज के मुखारविंद से श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण करने लगे। इससे हुआ यह कि उनके हृदय से जन्म मृत्यु का भय समाप्त हो गया। सातवें दिन श्राप के अनुसार, तक्षक नाग जो सर्पों का राजा होता है, ने माला के अंदर छिपकर परीक्षित के प्राण हर लिए।

जन्मेजय को तक्षक पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने ऋषि अगस्त्य की मदद से सर्प यज्ञ कराया। इस यज्ञ में सांप उड़ उड़ कर आते थे और यज्ञ में आहूत हो जाते थे। इसी यज्ञ के दौरान वैसम्पायन जी महाराज के द्वारा पहली बार महाभारत की कथा का वाचन हुआ जो जनमेजय ने सुना।

महाभारत में पांडव जीत जाते है, और कौरव हार जाते हैं? इस कथा से हमें किया सीख लेने की जरूरत है।

धर्म की हमेसा जीत होती है और धर्म से बढ़कर कुछ नही है, हमेसा धर्म की राह में कार्य करना चाहिए। इस कथा से भी यही शिक्षा मिलती है कि सत्य और धर्म हमेसा जीतता है। धर्म के विरुद्ध अगर अपना कोई सगा संबधी भी है तो उसके विरुद्ध भी युद्ध करना जायज है धर्म यही सिखाता है। सत्य का साथ दो और असत्य के विरुद्ध लड़ो, सामने कोई भी हो, जीत निश्चित ही सत्य और धर्म की होगी (चाहे समय कितना ही लग जाये पर जीत निश्चत है) इसके अलावा महाभारत में शिक्षा प्राप्त करने के लिए हर सब्द में शिक्षा है हर दोहे में शिक्षा है हर पेज पर हर अध्याय पर शिक्षा मौजूद है। हर पात्र कुछ न कुछ शिक्षा देता है। महाभारत के हर पात्र से हिमे सीखने के लिए बहुत कुछ मिलता है

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