सांसदों, विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामले हाई कोर्ट की मंजूरी के बिना वापस नहीं -SC & जजों के पद ज़्यादातर पद खाली – SC की बार-बार नाराज़गी

लोकसभा में उठाए गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने हाल ही में कहा था कि हाई कोर्ट के जजों के 453 पद खाली पड़े हैं। उच्च न्यायालयों में 1098 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत हैं। अदालतों में जजों के पद ज़्यादा ही खाली होते जा रहे हैं। यह सिर्फ़ ज़िला अदालतों की स्थिति नहीं है, बल्कि हाई कोर्ट की भी स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट के बार-बार नाराज़गी जताने के बाद भी इसमें देरी हो रही है। खाली पद लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं।

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सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक आदेश में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम द्वारा सिफारिशों को मंजूरी देने के वर्षों बाद भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होने का कारण सरकार का ‘अड़ियल रवैया’ है।

राजनीति को अपराध से मुक्त करने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने एक बड़ा फ़ैसला दिया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना, न्यायमूर्ति विनीत सरन और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की बेंच ने मंगलवार को कहा है कि सांसदों, विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज आपराधिक मामले हाई कोर्ट की मंजूरी के बिना वापस नहीं लिए जा सकेंगे। इसके साथ ही राजनीतिक दलों को अपने उम्मीदवारों के चयन के 48 घंटों के भीतर आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक करना ही होगा। अदालत एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें उन राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह को निलंबित करने की माँग की गई थी जो अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि का खुलासा नहीं करते हैं।

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की खंडपीठ ने डंपिंग रोधी कार्यवाही संबंधी एक मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश के ख़िलाफ़ दायर विशेष अनुमति याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियाँ कीं। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा कि उच्च न्यायालय मामले की जल्द सुनवाई करने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि यह अपनी आधी क्षमता से काम कर रहा है।

2006 में उच्च न्यायालयों में जहाँ क़रीब 35 लाख केस लंबित थे वे बढ़कर अब 57 लाख से ज़्यादा हो गए हैं। ज़िला अदालतों में 2006 में जहाँ 2.56 करोड़ केस लंबित थे वे अब 3.81 करोड़ लंबित हैं।

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी इसलिए अहम है कि अदालतें लंबित मामलों के भार तले दबते जा रही हैं फिर भी अदालतों में जजों के पद ज़्यादा ही खाली होते जा रहे हैं। यह सिर्फ़ ज़िला अदालतों की स्थिति नहीं है, बल्कि हाई कोर्ट की भी स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट के बार-बार नाराज़गी जताने के बाद भी इसमें देरी हो रही है। खाली पद लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। 2006 में देश भर के उच्च न्यायालयों में जहाँ स्वीकृत 726 पदों में से 154 खाली थे वहीं अब स्वीकृत क़रीब ग्यारह सौ पदों में से क़रीब आधे खाली हैं। 

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल फ़रवरी में अपने फ़ैसले में कहा था कि उम्मीदवारों को इन विवरणों को अपने चयन के 48 घंटों के भीतर या नामांकन पत्र दाखिल करने की पहली तारीख़ से कम से कम दो सप्ताह पहले अपलोड करना होगा। अदालत ने वह फ़ैसला पिछले साल नवंबर में बिहार विधानसभा चुनाव से जुड़े एक मामले में दिया था। 

ज़िला न्यायालयों की भी हालत कुछ ऐसी ही है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने एक लेख में लिखा था कि 2019 में स्वीकृत 22 हज़ार 999 पदों में से 5045 पद खाली हैं।

‘लाइव लॉ’ की रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने सोमवार को कहा कि यह देश की राजधानी सहित दूसरे उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की संख्या में अपर्याप्तता का प्रत्यक्ष परिणाम है। पीठ ने अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल माधवी दीवान को कहा कि सिफारिशों को कॉलेजियम तक पहुँचने में महीनों और साल लगते हैं और उसके बाद महीनों और वर्षों में कॉलेजियम के बाद कोई निर्णय नहीं लिया जाता है। इसलिए उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कम संख्या होगी तो महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी जल्दी निर्णय लेना लगभग असंभव हो जाएगा।

पहले के उस फ़ैसले में कहा गया था कि सभी राजनीतिक दलों को यह बताना होगा कि उन्होंने आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों को क्यों चुना और ऐसे उम्मीदवारों के चयन के कारणों के साथ मामलों के विवरण अपनी पार्टी की वेबसाइट पर खुलासा करें। चुनाव आयोग ने भी राजनीतिक दलों को उम्मीदवारों के बारे में यह जानकारी अख़बारों में प्रकाशित करने का निर्देश दिया था। इसका सही से पालन नहीं किए जाने का आरोप लगाते हुए ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी।

दिल्ली हाईकोर्ट की स्थिति को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह हाईकोर्ट से यह कहने की स्थिति में नहीं है कि मामले को समयबद्ध तरीके से निपटाया जाए। अप्रैल 2021 में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने एक मामले में नियुक्ति प्रक्रिया के प्रत्येक चरण के लिए समय-सीमा का संकेत देते हुए आदेश पारित किया था।हाल ही में क़ानून मंत्री ने भी लोकसभा को यह बताया था कि रिक्तियों को भरने के लिए आवश्यक समय-सीमा का संकेत देना संभव नहीं है क्योंकि यह ‘कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक सतत, एकीकृत और सहयोगी प्रक्रिया’ है।

सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला काफ़ी अहम इसलिए है क्योंकि राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतिकरण को ख़त्म किए जाने की वकालत की जाती रही है। लेकिन हर प्रयास के बाद भी ऐसा होता नहीं दिखता है। सांसदों और विधायकों के ख़िलाफ़ दर्ज ऐसे मामले काफ़ी ज़्यादा आते रहे हैं। चुनाव सुधार के लिए काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फ़ोर डेमोक्रेटिक रिफ़ार्म्स यानी एडीआर इसका आकलन करती रही है। हाल ही में केंद्रीय कैबिनेट विस्तार के बाद एडीआर ने दागी मंत्रियों पर ऐसी ही एक रिपोर्ट जारी की है।

 2019 में चुनाव के बाद संसद के निचले सदन के नए सदस्यों में से लगभग 43% ने आपराधिक आरोपों का सामना करने के बावजूद जीत हासिल की। यह उनके द्वारा दायर चुनावी हलफ़नामे में ही कहा गया है। रिपोर्ट के अनुसार, उनमें से एक चौथाई से अधिक बलात्कार, हत्या या हत्या के प्रयास से संबंधित हैं।

एडीआर की ही एक रिपोर्ट के अनुसार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई. क़ुरैशी ने कहा था कि 2004 के राष्ट्रीय चुनाव में लंबित आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों का प्रतिशत 24 प्रतिशत था, जो 2009 में बढ़कर 33 प्रतिशत, 2014 में 34 प्रतिशत था जो 2019 में और ज़्यादा बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया।

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