स्वयं को नींव में खपाने के लिए आतुर रहे – चौथे सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’- पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं
प्रो॰ राजेन्द्र सिंह (२९ जनवरी १९२२- १४ जुलाई २००३) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक थे, जिन्हें सर्वसाधारण जन से लेकर संघ परिवार तक सभी जगह रज्जू भैया के नाम से ही जाना जाता है। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में १९३९ से १९४३ तक विद्यार्थी रहे। तत्पश्चात् १९४३ से १९६७ तक भौतिकी विभाग में पहले प्रवक्ता नियुक्त हुए, फिर प्राध्यापक और अन्त में विभागाध्यक्ष हो गये। रज्जू भैया भारत के महान गणितज्ञ हरीशचन्द्र के बी०एससी० और एम०एससी० (भौतिक शास्त्र) में सहपाठी थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागपुर में सम्पन्न अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में दिनांक 10 मार्च, सन् 2000 ई. को मा. सुदर्शन जी को चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया के उत्तराधिकारी के रूप में सरसंघचालक का दायित्व सौंपा गया।
रज्जू भैया प्रयागराज विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर थे। बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक बने। उनका संघ से संबंध अक्टूबर 1942 में आरंभ हुआ। उन्होंने एक शिक्षक, स्वयंसेवक, प्रचारक से लेकर सरसंघचालक तक की महती जिम्मेदारियों को बड़ी सहजता और सरलता के साथ निभाया। 1994 में संघ के तीसरे सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस ने अपने जीवन काल में ही रज्जू भैया का सरसंघचालक पद पर अभिषेक किया। तब यह घटना भारत के सार्वजनिक जीवन में बड़ा धमाका बन गई थी
प्रो. राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ विशाल हृदय, सहजता और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। वह चाहते थे कि भारत एक सशक्त और श्रेष्ठ देश बने। वह स्वास्थ्य और शिक्षा की आधुनिक तकनीक को अंतिम छोर के व्यक्ति तक पहुंचाना चाहते थे। उन्होंने कहा था कि एकल विद्यालय के शिक्षकों को ऐसी ट्रेनिंग दी जाये, ताकि वह खुद अपना प्राथमिक उपचार कर सके। रज्जू भैया बचपन से ही मेधावी थे। आरएसएस में उनको सबसे पहले गटनायक का दायित्व मिला था। इसके बाद उनकी मुलाकात गुरु जी से हुई, वह उनसे काफी प्रभावित हुये। यहीं से वह नागपुर के लिये चले गये। इसके बाद से उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ और राष्ट्र को समर्पित कर दिया। उन्होंने कहा कि रज्जू भैया मितव्ययी थे, उनके लिये पैसों से अधिक कीमत मूल्यों की थी। उन्होंने कहा कि रज्जू भैया जब प्रोफेसर थे, तब उनकी फिजिक्स की क्लास में इतिहास और भूगोल के छात्र भी बैठ जाते थे, ऐसे आदर्श शिक्षक के रूप में भी उनकी पहचान थी। उन्होंने कहा कि रज्जू भैया का जीवन गरिमा से भरा हुआ था, उन्होंने मानवीय मूल्यों का संरक्षण भी किया है। वह दूरदर्शी सोच के व्यक्ति थे।
“मेरे पिताजी सन् १९२१-२२ के लगभग शाहजहाँपुर में इंजीनियर थे। उनके समीप ही इंजीनियरों की उस कालोनी में काकोरी काण्ड के एक प्रमुख सहयोगी श्री प्रेमकृष्ण खन्ना के पिता श्री रायबहादुर रामकृष्ण खन्ना भी रहते थे। श्री राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ प्रेमकृष्ण खन्ना के साथ बहुधा इस कालोनी के लोगों से मिलने आते थे। मेरे पिताजी मुझे बताया करते थे कि ‘बिस्मिल’ जी के प्रति सभी के मन में अपार श्रद्धा थी। उनका जीवन बडा शुद्ध और सरल, प्रतिदिन नियमित योग और व्यायाम के कारण शरीर बडा पुष्ट और बलशाली तथा मुखमण्डल ओज और तेज से व्याप्त था। उनके तेज और पुरुषार्थ की छाप उन पर जीवन भर बनी रही। मुझे भी एक सामाजिक कार्यकर्ता मानकर वे प्राय: ‘बिस्मिल’ जी के बारे में बहुत-सी बातें बताया करते थे।” – प्रो॰ राजेन्द्र सिंह सरसंघचालक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
रज्जू भैया का जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर शहर की इन्जीनियर्स कालोनी में २९ जनवरी सन् १९२२ को इं० (कुँवर) बलबीर सिंह की धर्मपत्नी ज्वाला देवी के गर्भ से हुआ था। उस समय उनके पिताजी बलबीर सिंह वहाँ सिचाई विभाग में अभियन्ता के रूप में तैनात थे। बलबीर सिंह जी मूलत: उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद के बनैल पहासू गाँव के निवासी थे जो बाद में उत्तर प्रदेश के सिचाई विभाग से मुख्य अभियन्ता के पद से सेवानिवृत हुए। वे भारतीय इंजीनियरिंग सेवा (आई०ई०एस०) में चयनित होने वाले प्रथम भारतीय थे। परिवार की परम्परानुसार सभी बच्चे अपनी माँ ज्वाला देवी को “जियाजी” कहकर सम्बोधित किया करते थे। अपने माता-पिता की कुल पाँच सन्तानों में रज्जू भैया तीसरे थे। उनसे बडी दो बहनें – सुशीला व चन्द्रवती थीं तथा दो छोटे भाई – विजेन्द्र सिंह व यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा में थे और केन्द्र व राज्य सरकार में उच्च पदों पर रहे।
रज्जू भैया की संघ यात्रा असामान्य है। वे बाल्यकाल में नहीं युवावस्था में सजग व पूर्ण विकसित मेधा शक्ति लेकर प्रयाग आये। सन् १९४२ में एम.एससी. प्रथम वर्ष में संघ की ओर आकर्षित हुए और केवल एक-डेढ़ वर्ष के सम्पर्क में एम.एससी. पास करते ही वे प्रयाग विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने के साथ-साथ प्रयाग के नगर कायर्वाह का दायित्व सँभालने की स्थिति में पहुँच गये। १९४६ में प्रयाग विभाग के कार्यवाह, १९४८ में जेल-यात्रा, १९४९ में दो तीन विभागों को मिलाकर संभाग कार्यवाह, १९५२ में प्रान्त कार्यवाह और १९५४ में भाऊराव देवरस के प्रान्त छोड़ने के बाद उनकी जगह पूरे प्रान्त का दायित्व सँभालने लगे। १९६१ में भाऊराव के वापस लौटने पर प्रान्त-प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर सह प्रान्त-प्रचारक के रूप में पुन:उनके सहयोगी बने। भाऊराव के कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ तो पुन: १९६२ से १९६५ तक उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक, १९६६ से १९७४ तक सह क्षेत्र-प्रचारक व क्षेत्र-प्रचारक का दायित्व सँभाला। १९७५ से १९७७ तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतन्त्र की वापसी का आन्दोलन खड़ा किया। १९७७ में सह-सरकार्यवाह बने तो १९७८ मार्च में माधवराव मुले का सर-कार्यवाह का दायित्व भी उन्हें ही दिया गया। १९७८ से १९८७ तक इस दायित्व का निर्वाह करके १९८७ में हो० वे० शेषाद्रि को यह दायित्व देकर सह-सरकार्यवाह के रूप में उनके सहयोगी बने। १९९४ में तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण जब अपना उत्तराधिकारी खोजना शुरू किया तो सबकी निगाहें रज्जू भैया पर ठहर गयीं और ११ मार्च १९९४ को बाला साहेब ने सरसंघचालक का शीर्षस्थ दायित्व स्वयमेव उन्हें सौंप दिया।
रज्जू भैया तो राष्ट्र सेवा का व्रत ले चुके थे। एक वैज्ञानिक से लेकर संसार के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के शीर्ष मार्गदर्शक तक की उनकी यात्रा एक अविश्रांत साधना और अटूट ध्येय निष्ठा की डगर थी। उस संगठन के सरकार्यवाह और फिर सरसंघचालक के रूप में देश उन्हें जानता है। पर विज्ञान के विद्यार्थी और उस प्रयाग विश्वविद्यालय के भौतिकी के प्राध्यापक के रूप में उनके जीवन की भी बहुत सारी स्मृतियां हैं। बात उन दिनों की है जब स्नातकोत्तर परीक्षा लेने प्रसिद्ध वैज्ञानिक और नोबेल पुरस्कार विजेता सर सी.वी. रमण इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आए थे। परीक्षा में उनका ध्यान दो विद्यार्थियों की ओर आकर्षित हुआ। इन दोनों विद्यार्थियों की भौतिक प्रयोगशाला में एक ही अलमारी थी। वे मित्र वहां साथ-साथ प्रयोग करते थे। श्री रमण ने इस असाधारण जोड़ी को देखा जो कक्षा में सदा प्रथम द्वितीय आते थे। उनमें से एक प्रोफेसर हरीशचंद नाम से प्रसिद्ध हुए जो बाद में प्रिंस्टन के इंस्टीट्यूट आफ एडवांस स्टडीज में अल्बर्ट आइंस्टीन के गणित के अध्यापक के पद पर सुशोभित हुए। और दूसरे थे रज्जू भैया। सर सी वी रमन इन दोनों विद्यार्थियों से काफी प्रभावित हुए। वे रज्जू भैया को अपने साथ प्रयोग करने बेंगलुरु ले कर जाना चाहते थे। उनके गुरु डॉक्टर कृष्णन ने संघ के स्वयंसेवकों को उलाहना दिया, “संघ ने विज्ञान के संसार से हमारा भौतिकी में सर्वश्रेष्ठ प्रयोग करने वाला विद्यार्थी छीन लिया यह विज्ञान की बहुत बड़ी क्षति है”। पर रज्जू भैया तो राष्ट्र सेवा का व्रत ले चुके थे।
संघ के इतिहास में यह एक असामान्य घटना थी। प्रचार माध्यमों और संघ के आलोचकों की आँखे इस दृश्य को देखकर फटी की फटी रह गयीं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर वे अब तक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मणों के एकाधिकार की छवि थोपते आये हैं, उसके शिखर पर उत्तर भारत का कोई गैर-महाराष्ट्रियन अब्राह्मण पहुँच सकता है – वह भी सर्वसम्मति से। रज्जू भैया का शरीर उस समय रोगग्रस्त और शिथिल था किन्तु उन्होंने प्राण-पण से सौंपे गये दायित्व को निभाने का जी-तोड प्रयास किया। परन्तु अहर्निश कार्य और समाज-चिन्तन से बुरी तरह टूट चुके अपने शरीर से भला और कब तक काम लिया जा सकता था। अतएव सन् १९९९ में ही उन्होंने उस दायित्व का भार किसी कम उम्र के व्यक्ति को सौंपने का मन बना लिया। और अन्त में अपने सहयोगियों के आग्रहपूर्ण अनुरोध का आदर करते हुए एक वर्ष की प्रतीक्षा के बाद, मार्च २००० में सुदर्शन जी को यह दायित्व सौपकर स्वैच्छिक पद-संन्यास का संघ के समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत किया।
रज्जू भैया की ६० वर्ष लम्बी संघ-यात्रा केवल इस दृष्टि से ही असामान्य नहीं है कि किस प्रकार वे एक के बाद दूसरा बड़ा दायित्व सफलतापूर्वक निभाते रहे अपितु इस दृष्टि से भी है कि १९४३ से १९६६ तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य के साथ-साथ एक पूर्णकालिक प्रचारक की भाँति यत्र-तत्र-सर्वत्र घूमते हुए समस्त दायित्वों का निर्वाह करते रहे। संघ-कार्य हेतु अपनी क्षमता को बढ़ाने के लिये वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परम्परागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहे। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने १९४७ में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग के नगर कार्यवाह की स्थिति में पहुँच चुके थे, द्वितीय वर्ष उन्होंने १९५४ में बरेली के संघ-शिक्षा-वर्ग में उस समय किया जब भाऊराव देवरस उन्हें समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। तृतीय वर्ष उन्होंने १९५७ में किया जब वे उत्तर प्रदेश जैसे बड़े प्रान्त का दायित्व सँभाल रहे थे। इस बात से स्पष्ट है कि उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण की औपचारिकता का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये किया अपने लिये योग्यता अर्जित करने के लिये नहीं।
प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे संघ-कार्य में प्रचारकवत जुटे रहे। औपचारिक तौर पर उन्हें प्रचारक १९५८ में घोषित किया गया पर सचाई यह है कि उन्होंने कार्यवाह पद को प्रचारक की भूमिका स्वयं प्रदान कर दी। भौतिक शास्त्र जैसे गूढ विषय पर असामान्य अधिकार रखने के साथ-साथ अत्यन्त सरल व रोचक अध्यापन शैली और अपने शिष्यों के प्रति स्नेह भावना के कारण रज्जू भैया प्रयाग विश्वविद्यालय के सर्वाधिक लोकप्रिय और सफल प्राध्यापक थे। वरिष्ठता और योग्यता के कारण उन्हें कई वर्षों तक विभाग के अध्यक्ष-पद का दायित्व भी प्रोफेसर के साथ-साथ सँभालना पड़ा। किन्तु यह सब करते हुए भी वे संघ-कार्य में अपने दायित्वों का निर्वाह पूरी तरह करते रहे। रीडर या प्रोफेसर बनने की कोई कामना उनके मन में कभी नहीं जगी। जिन दिनों प्रयाग विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के रीडर पद के लिये आवदेन माँगे गये उन्होंने आवेदन पत्र ही नहीं दिया। सहयोगियों ने पूछा कि रज्जू भैया! आपने ऐसा क्यों किया? तो उन्होंने बड़े सहज ढँग से उत्तर दिया- “अरे मेरा जीवन-कार्य तो संघ-कार्य है, विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी नहीं। अभी मैं सप्ताह में चार दिन कक्षायें लेता हूँ, तीन दिन संघ-कार्य के लिए दौरा करता हूँ। कभी-कभी बहुत कोशिश करने पर भी विश्वविद्यालय समय पर नहीं पहुँच पाता। अभी तो विभाग के सब अध्यापक मेरा सहयोग करते हैं किन्तु यदि मैं रीडर पद पर अभ्यार्थी बना तो वे मुझे अपना प्रतिस्पर्धी समझने लगेंगे। इसलिए क्यों इस पचड़े में फँसना।” रज्जू भैया का सम्पूर्ण जीवन इस बात का साक्षी है कि उन्हें पद की आकांक्षा अथवा उसका मोह कभी रहा ही नहीं।
विश्वविद्यालय में अध्यापक रह कर भी उन्होंने अपने लिये धनार्जन नहीं किया। वे अपने वेतन की एक-एक पाई को संघ-कार्य पर व्यय कर देते थे। सम्पन्न परिवार में जन्म लेने, पब्लिक स्कूलों में शिक्षा पाने, संगीत और क्रिकेट जैसे खेलों में रुचि होने के बाद भी वे अपने ऊपर कम से कम खर्च करते थे। मितव्ययता का वे अपूर्व उदाहरण थे। वर्ष के अन्त में अपने वेतन में से जो कुछ बचता उसे गुरु-दक्षिणा के रूप में समाज को अर्पित कर देते थे। एक बार राष्ट्रधर्म प्रकाशन आर्थिक संकट में फँस गया तो उन्होंने अपने पिताजी से आग्रह करके अपने हिस्से की धनराशि देकर राष्ट्रधर्म प्रकाशन को संकट से उबारा। यह थी उनकी सर्वत्यागी संन्यस्त वृत्ति की अभिव्यक्ति!
नि:स्वार्थ स्नेह और निष्काम कर्म साधना के कारण रज्जू भैया सबके प्रिय थे। संघ के भीतर भी और बाहर भी। पुरुषोत्तम दास टण्डन और लाल बहादुर शास्त्री जैसे राजनेताओं के साथ-साथ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जैसे सन्तों का विश्वास और स्नेह भी उन्होंने अर्जित किया था। बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ रज्जू भैया घोर यथार्थवादी भी थे। वे किसी से भी कोई भी बात निस्संकोच कह देते थे और उनकी बात को टालना कठिन हो जाता था। आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी – तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा? नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। चाहे अटलजी हों, या आडवाणीजी; अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी – हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करता था; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत थे। उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया है। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे। देखा जाये तो रज्जू भैया आज मर कर भी अमर हैं।
रज्जू भैया इस बात से बड़े दुखी थे कि क्रान्तिकारी ‘बिस्मिल’ के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता लोग नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रीय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने कहा था: “लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिये तालियाँ बटोर लेना अलग बात है, नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिये कुछ करना अलग बात है।” वे चिन्तक थे, मनीषी थे, समाज-सुधारक थे, कुशल संगठक थे और कुल मिलाकर एक बहुत ही सहज और सर्वसुलभ महापुरुष थे। ऐसा व्यक्ति बड़ी दीर्घ अवधि में कोई एकाध ही पैदा होता है
सन 1951 का एक प्रसंग है। उस वर्ष के अंत में आचार्य कृपलानी प्रयाग पधारे। वे प्रयाग विश्वविद्यालय के विधि विभाग के प्रोफेसर केके भट्टाचार्य के यहां ठहरे तो रज्जू भैया भी कृपलानी जी से मिलने गए। परिचय होने के बाद रज्जू भैया ने कृपलानी जी से पूछा, “आपको संघ के विषय में कौन सी बात अच्छी नहीं लगती?” तो कृपलानी जी ने संघ के स्वयंसेवकों की लगन, परिश्रमशीलता और मिलनसार स्वभाव की तो प्रशंसा की, किंतु साथ ही उन्होंने प्रश्न उठाया कि संघ भारत को हिंदू राष्ट्र क्यों कहता है, उसे भारतीय कहना चाहिए? रज्जू भैया ने उनसे पूछा, “आपकी दृष्टि में भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों से किन बातों में भिन्न है, जो भारत की विशेषता है?” उत्तर में कृपलानी जी ने कहा “जैसे यहां सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता भाव है या जीवन को केवल खाने और मौज उड़ाने की वस्तु न मानकर श्रेष्ठ कर्म करने की प्रवृत्ति हमारी, आध्यात्मिकता आदि।” रज्जू भैया ने उनके कथन से सहमति व्यक्त करते हुए पूछा, “परंतु यह सहिष्णुता किसकी देन है? मुसलमान और ईसाई की तो नहीं; वे अन्य देशों में रहते हैं, और वहां की स्थिति ऐसी नहीं है। वस्तुतः यह सहिष्णुता तो हिंदू धर्म के ही सभी संप्रदायों की विशेषता है। रहा आध्यात्मिक जीवन उसके लिए भी ईसाई मुसलमान का कोई योगदान नहीं। वह तो पुनर्जन्म के विचारों से आती है, जो हिंदू की ही विशेषता है।” फिर कृपलानी जी ने हँसते हुए कहा कि “मैं मानता हूं कि भारत की विशेषताएं यहां के हजारों वर्षों के परंपरागत जीवन की देन हैं पर उन्हें भारतीय कहना राजनीतिक दृष्टि से अधिक उपयुक्त होगा। इस पर रज्जू भैया ने कहा, “हम लोग राजनीतिक नहीं हैं, इसलिए हम हिंदू राष्ट्र कहते हैं, नहीं तो हमें डर है कि भारतीय कहते-कहते हम उन विशेषताओं को ही भूल जाएंगे और तब उन के अभाव में विश्व में हमारे जीवन जीने की कोई खास उपयोगिता नहीं रहेगी।
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