त्रिजटा जिसे सीतामाता ने वाराणसी में देवी के रूप में पूजित करवाया- इसके अलावा और भी दुर्लभ प्रसंग

शूर्पणखा (=शूर्प नखा) रामायण की एक दुष्ट पात्र है। वह रावण की बहन थी। सूपे जैसी नाखूनों की स्वामिनी होने के कारण उसका नाम शूर्पणखा पड़ा। परंतु सूप नखा नाम नाक की बनावट से संबंधित भी हो सकता है क्योंकि उसका नाक सूपड़ा( सूपड़ा गेहूं फटकने का एक बर्तन होता ) के समान हो गया था। इसका तमिल में नाम ‘सूर्पनगै’ है, इण्डोनेशियाई भाषा में ‘सर्पकनक’ है, ख्मेर भाषा में ‘शूर्पनखर’ है, मलय भाषा में ‘सुरपन्दकी’ है और थाई भाषा में ‘सम्मानखा’ है।

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वाल्मीकि रामायण के अनुसार, जब राम और लक्ष्मण ने उससे विवाह करने की उसकी याचना को अस्वीकार कर दिया तब वह क्रोधित होकर सीता पर आक्रमण करने के लिये झपटी। इस पर लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिये। अपमानित होकर विलाप करती हुई वह अपने भाई रावण के पास गयी और रावण ने इस अपमान का बदला लेने की प्रतिज्ञा की। रावण, सीता को चुरा ले गया। राम-रावण युद्ध हुआ। अन्ततः राम ने रावण का वध किया।

मायण में श्रीराम, लक्ष्मण, रावण, सीता, हनुमान के अलावा त्रिजटा की भूमिका भी बेहद अहम रही है। कहने को भले ही त्रिजटा एक राक्षसी थी लेकिन उसका हृदय बेहद उदार और दयालु था। रामायण में लंका साम्राज्य में रावण, मंदोदरी, शूर्पणखा, विभीषण, मेघनाथ, कुंभकर्ण के बाद त्रिजटा एक अहम किरदार है।  मान्यता है कि त्रिजटा लंका से सीता के साथ जब पुष्पक विमान से अयोध्या जा रही थी तो सीता ने उससे कहा कि अयोध्या में त्रिजटा को राक्षसी होने के कारण जाने की अनुमति नहीं मिलेगी।

इसके बाद सीता ने सुझाव दिया कि उसे वाराणसी चले जाना चाहिए, जहां उसको मोक्ष मिल जाएगा. फिर उसकी पूजा वहां एक देवी के रूप में की जाएगी।

रामायण के दूसरी संस्करणों में त्रिजटा के बारे में कहा गया है कि युद्ध के बाद राम और सीता ने त्रिजटा को मूल्यवान पुरस्कारों से सम्मानित किया था।

त्रिजटा मुख्य साध्वी, राक्षसी प्रमुख थी। मन्दोदरी ने सीताजी की देख-रेख के लिए उसे विशेष रूप से रखा था।

रामायण की बात हो और रावण का जिक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि रावण की कमजोरी उसकी नाभि में छिपी थी। इस बारे में सिर्फ उसका परिवार ही जानता था।

कहते हैं रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा और भाइयाें कुंभकरण तथा विभीषण के साथ ब्रह्मा जी का तप किया था। उससे खुश होकर ब्रह्माजी ने तीनों से वरदान मांगने को कहा। तब विभीषण ने ज्ञान, शूर्पणखा ने सुंदरता और कुंभकरण ने निंद्रा में लीन होने का वर मांगा था। लेकिन रावण ने अमृत और ज्ञान का वरदान मांगा था।

अमृत उसने अपनी नाभि में रख लिया था ताकि उसकी मृत्यु न हो सके। रावण के आख्यानों में उसके मर्म स्थानों का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार रावण की मृत्यु किसी प्रकार के आयोजन अथवा उसके शरीर के किसी विशेष अंग को भेदन करने से ही हो सकती है।

अध्यात्म रामायण के 6.11.53.54 में संस्कृत श्लोक में वर्णित है कि-

उत्पत्स्यन्ति पुनः शीघ्रोमत्याह भगवानजः।

नाभिदेशेअमृतं तस्य कुण्डलाकार संस्थितम्।।

तच्छोषयानलास्त्रेण तस्य मृत्यततो भवेत।

विभीषण वचः श्रुत्वा रामः श्रुत्वा रामः शीघ्रपराकमः।।

पावकास्त्रेण संयोज्य नाभिंविव्याध राक्षसः।

यानि जब राम-रावण युद्ध अंतिम समय पर पहुंचा तो श्रीराम ने रावण पर ‘बाणों की बारिश’ कर दी। किंतु उसके सिर और भुजाएं कटने पर भी वे फिर से प्रकट हो जाते थे। श्रीराम इस चिंता में पड़ गए कि आखिर उसे किस तरह से मारा जाए। तब विभीषण ने कहा कि हे राम, ब्रह्माजी ने इसे वरदान दिया है कि इसकी भुजाएं और मस्तिष्क बार- बार कट जाने के बाद भी पुनः उग आएंगे। रावण की नाभि में अमृत घट है इसे आप आग्नेय शस्त्र से सुखा दीजिए तभी इसकी मृत्यु संभव है। विभीषण की यह बात सुन राम ने ऐसा ही किया और रावण की नाभि काे लक्ष्य करके में तीर चलाया जिसके कारण उसकी मृ्त्यु हो गई।

भगवान श्री राम के भाई लक्ष्मण जी के लिए हनुमान जी पूरा पर्वत हिमालय से श्री लंका तक ले आये थे

वाल्मिकी रामायण से देखते है। कुछ प्रश्न है जैसे पर्वत यदि उठाया हो तो कौन सा पर्वत था? पर्वत उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना क्या संभव है? पर्वत उठाकर यदि ले गए हो तो उन जड़ी बूटियों का अस्तित्व उस पर्वत पर नही बचेगा क्योकि भौगोलिक परिवर्तन से समस्याएं उत्पन्न होंगी।

युद्धकाण्ड (सर्ग ४०) के कुछ श्लोक देखते है –

ततोऽब्रवीन्महातेजा हनुमन्तं स जाम्बवान्।

आगच्छ हरिशार्दूल वानरांस्त्रातुमर्हसि ॥२०॥

तत्पश्चात् परमतेजस्वी जाम्बवान ने हनुमान जी से कहा – हे वानरशार्दूल ! आओ और वानरों के प्राण बचाओ।

गत्वा परममध्वानमुपर्युपरि सागरम्।

हिमवन्तं नगश्रेष्ठं हनुमन् गन्तुमर्हसि ॥ २१॥

हे हनुमन् ! तुम समुद्र के ऊपर-ही-ऊपर आकाश में बहुत लम्बा मार्ग तय करके पर्वत श्रेष्ठ हिमालय पर जाओ।

ततः काञ्चनमत्युच्चमृषभं पर्वतोत्तमम्।

कैलासशिखरं चापि द्रक्ष्यस्यरिनिषूदन॥ २२ ॥

हे शत्रुसंहारक ! हिमालय से आगे तुम्हें स्वर्णमय और बहुत ऊँचा ऋषभ नामक पर्वत श्रेष्ठ दिखाई देगा, वहीं से तुम्हें कैलास पर्वत की चोटी भी दिखाई पड़ेगी।

तयोः शिखरयोर्मध्ये प्रदीप्तमतुलप्रभम्।

सर्वौषधियुतं वीर द्रक्ष्यस्योषधिपर्वतम् ॥ २३ ॥

हे वीर ! इन्हीं दोनों पर्वत-शिखरों के मध्यवर्ती प्रदेश में तुम अनुपम छटा वाले, अत्यंत चमकीले तथा सर्व प्रकार की जड़ी-बूटियों से युक्त औषध पर्वत को देखोगे।

तस्य वानरशार्दूल चतस्त्रो मूर्धनि सम्भवा:।

द्रक्ष्यस्योषधयो दीप्ता दीपयनतो दिशो दश।। २४ ।।

हे वानर केसरी ! उस पर्वत-शिखर पर तुम्हें चार अत्यन्त चमकीली बूटियाँ-जिनकी चमक से दशों दिशाएँ प्रकाशित रहती हैं-दिखाई देंगी।

मृतसञ्जीवनीं चैव विशल्यकरणीमणि।

सावर्ण्यकरणीं चैव सन्धानकरणीं तथा॥ २५॥

उन चारों के नाम हैं-१. मृतसंजीवनी, २. विशल्यकरणी, ३. सावर्ण्यकरणी और ४. सन्धान करणी।

१. मृतसञ्जीवनी – मरे को जिलानेवाली।

२. विशल्यकरणी – घावों को अच्छा करनेवाली।

३. सावर्ण्यकरणी – घावों का रंग बदल कर पूर्ववत् कर देनेवाली।

४. सन्धानकरणी – घाव भरने पर खाल को एक-सा करनेवाली और हड्डी आदि को जोड़नेवाली।

ता: सर्वा हनुमन् गृह्य क्षिप्रमागन्तुमर्हसि।

आश्वासय हरीन् प्राणैर्योज्य गन्धवहात्मज॥ २६॥

हे हनुमन् ! इन चारों ओषधियों को लेकर तुम बार से शीघ्र यहाँ लौट आओ। हे पवनपुत्र ! इन ओषधियों को लाकर तुम वानरों के प्राणों को बचाकर इन्हें आश्वासन प्रदान करो।

श्रुत्वा जाम्बवतो वाक्यं हनुमान् हरिपुङ्गव:।

आदित्यपथमाश्रित्य जगाम स गतक्लमः॥ २७।।

जाम्बवान के इन वचनों को सुन वानर श्रेष्ठ हनुमानजी ने बड़ी तेजी के साथ आकाश मार्ग से गमन किया।

स्मरञ्जाम्बवतो वाक्यं मारुति मारुतिर्वातरंहसा।

ददर्श सहसा चापि हिमवन्तं महाकपि:।। २८।।

पवन के समान तीव्रगामी वायुपुत्र हनुमान जाम्बवान् की बातों को ध्यान में रख थोड़ी ही देर में हिमालय के निकट जा पहुंचे।

कैलासमुग्रं हिमवच्छिलां च तथर्षभं काञ्चणशैलमग्रयम।

सन्दीपसर्वौषधिसम्प्रदीप्तं ददर्श सर्वौषधिपर्वतेन्द्रम्।।२९।।

वहां विचरण करते हुए हनुमान ने कैलास शिखर को समीप ही हिमवत्-शिला नामक स्थान को ऋषभपर्वत को, सुवर्णमय श्रृंगयुक्त पर्वत को अर्थात् सुमेरु को तथा ओषधियों के प्रकाश से प्रकाशित ओषधिपर्वत को देखा।

स तस्य शृङ्ग सनगं सनागं स काञ्चनं धातुसहस्रजुष्टम्।

विकीर्णकूटज्चलिताग्रसानुं प्रगृह्य वेगात् सहसोन्ममाथ॥३०॥

(जब हनुमान् उन ओषधियों को नहीं पहचान पाये) तब उन्होंने उस प्रदेश के समस्त चमकनेवाले पौधों तथा पौधों पर चढ़नेवाली बेलों को पकड़ा और जोर से झटका देकर स्वर्णिम पत्रपुष्पों एवं जड़ों सहित उखाड़ लिया।

हनुमान् में जहाँ अनेक गुण थे वहाँ इनमें एक दोष भी था-विस्मृति-दोष। ये बात को भूलते बहुत जल्दी थे। रामायण में इनके भुलक्कड़पन के कई प्रसङ्ग हैं। जब बाली मारा गया तब तारा को आश्वासन देते हुए हनुमान ने तारा से अंगद को राजगद्दी पर बैठाने की बात कह दो। जब राम ने हनुमान् को अपने आगमन की सूचना देने के लिए भरत के पास भेजा तब उन्होंने कहा था कि तुम भरत के हाव-भाव देखकर उसकी सूचना मुझे देना, परन्तु हनुमान् यह सब कुछ भूलकर भरत के पास नन्दिग्राम में ही ठहरा रहा। प्रस्तुत प्रसङ्ग में भी वह बूटियों की पहचान ही भूल गया, अत: उन्होंने जड़ सहित अनेक चमकनेवाली बूटियों को उखाड़ लिया।

स तं समुत्पाट्य खमुत्पपात जगाम वेगाद् गरुडोग्रवेगः।

तं वानराः प्रेक्ष्य विनेदुरुच्चैः स तानपि प्रेक्ष्य मुदा ननाद॥ ३१॥

इस प्रकार उस प्रदेश के समस्त औषधि खण्ड को उखाड़ कर हनुमान जी आकाश में जा पहुँचे और गरुड़ के समान तीव्र वेग से लंका की ओर चले। जब ये उड़ते हुए लंका के समीप पहुँचे तब इन्हें देखकर वानरों ने बड़े जोर से गर्जना की। हनुमान ने भी उन वानरों को देख हर्षित होकर सिंहनाद किया।

अब जब रावण द्वारा लक्ष्मण मूर्छित (जीवित) हो गए थे तब सुषेण ने कपिश्रेष्ठ हनुमान जी से कहा (युद्धकाण्ड सर्ग ५५)

सौम्य शीघ्रमितो गत्वा शैलमोषधिपर्वतम्।

पूर्वं ते कथितो योऽसो वीर जाम्बवता शुभ॥ ८॥

दक्षिणे शिखरे तस्य जातमोषधिमानय।

सञ्जीवनार्थं वीरस्य लक्ष्मणस्य महात्मनः॥ ९॥

हे सौम्य ! हे वीर ! तुम यहाँ से शीघ्र जाओ और जाम्बवान् ने जिस पर्वत का पता तुम्हें पहले बताया था उस ओषधि-पर्वत पर जाकर उस पर्वत के दक्षिण शिक्षर पर उगनेवाली बूटियों को महात्मा लक्ष्मण के जीवनार्थ यहाँ ले आओ।

इत्येवमुक्तो हनुमान् गत्वा चौषधि पर्वत। चिन्तामभ्यगमच्छ्रीमानजानंस्तां महौषधिम्॥१०॥

सुषेण के ऐसा कहने पर हनुमान जी उस औषधि- पर्वत पर गये, परन्तु वहाँ जाकर उन बूटियों को न पहचान सकने के कारण वे चिन्तित हो गये।

तस्य बुद्धिः समुत्पन्ना मारुति अमित सः।

इदमेव गमिष्यामि गृहीत्वा शिखरं गिरेः॥ ११ ॥

तब अमित पराक्रमीशाली पवन पुत्र हनुमान को सहसा यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस पर्वत शिखर (औषधि-समूह) को ही उखाड़कर ले चलें।

हनुमानजी पहाड़ को उठाकर नही लाये थे। न पहाड़ का उखाड़ना सम्भव है और न उसका लाना। जब हनुमानजी ओषधियों की पहचान भूल गये तब उन्होंने वहाँ से अनेक प्रकार की बहुत सारी जड़ी-बूटियाँ उखाड़ ली और उन्हें ले आये। यहाँ कवि ने बात को सीधे-सादे न कहकर लक्षणावृत्ति से कहा। घर में बच्चे शोर कर रहे हों तो कहते हैं- ‘अरे तुम ने तो घर को सिर पर उठा रखा है।’ वस्तुत: घर सिर पर तो नहीं होता। ऐसी ही बात यहाँ है। हनुमानजी पर्वत शिखर नहीं, औषधि-समूह उठाकर लाये थे।

कैकेयी ने दशरथ से राम के लिए विशेष रूप से 14 साल का वनवास क्यों मांगा? क्या संख्या का कोई महत्व था?

कैकेयी को जानते हैं, जो अपने पुत्र भरत से अधिक भगवान राम से प्यार करती थीं, उन्होंने मंथरा की जहरीली सलाह को सुनकर राम को वन भेजने के लिए कहा।

इस प्रकरण ने रामायण को आगे बढ़ाया लेकिन राम अवतार के उद्देश्य को पूरा किया, वह है – रावण को मारना।

यदि मन्थरा के लिए नहीं, तो भगवान राम को राजा दशरथ का सिंहासन विरासत में मिला होता और रघु वामसम में एक और महान राजा के रूप में बस गए होते।

लेकिन हम कैकेयी की अत्याचारी मांगों को न केवल भरत को राजा के रूप में ताज पहनाए जाने के लिए बल्कि राम को 14 साल तक जंगल में भेजने का औचित्य भी नहीं बता सकते।

अब किसी को आश्चर्य होगा कि कैकेयी ने 14 साल का वनवास क्यों मांगा और किसी अन्य वर्ष का नहीं?

त्रेतायुग के दौरान, यदि कोई राजकुमार 14 साल या उससे अधिक समय तक अपने क्षेत्र से बाहर जाता है, तो वह वापस आने के बाद राज्य का दावा नहीं कर सकता।

कैकेयी बहुत अच्छी तरह से जानती है कि धर्म के प्रतीक होने के नाते राम 14 साल तक अयोध्या से दूर रहने के लिए ताज पहनने के लिए नहीं कहेंगे।

इस तरह से, कैकेयी ने जानबूझकर राम को कम से कम 14 साल के लिए भेजना चाहा।

हालाँकि, यह वह जगह है जहाँ देवता ने उस वरदान के बारे में पूछना चाहा।

सरस्वती देवी का आह्वान करते हुए, देवताओं ने उनसे “चतुर्दशा वरशानी” के 14 वर्ष के बजाय 9 वर्षों के निर्वासन का अर्थ “नव पंचाका वार्षनी” कहा।

यह स्लोगन अयोध्या कांडा, सरगा 11, स्लोका नंबर 26 में पाया जा सकता है। स्लोक नीचे के रूप में पढ़ा जाता है।

नव पञ्च च वर्षाणि दण्डकारण्यमश्रितः

इसलिए अनिवार्य रूप से, कैकेयी ने राम को 9 साल और फिर 5 साल के लिए वन में भेजने के लिए कहा।

9 साल के बाद, राम ने निर्वासन से एक छोटा ब्रेक लिया और फिर एक और 5 साल के लिए वापस चले गए।

इसलिए, रावण को मारने के बाद वह फिर से साम्राज्य को स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह केवल 6 साल के लिए दूर था।

यह प्रकरण हमें बताता है कि यदि आप धर्म के पक्ष में हैं, तो भगवान सुनिश्चित करेंगे कि आप अंत में जीतेंगे।

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