उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के १७ वर्ष- वहीं खडे हैं जहां से चले थे

उत्तराखण्ड निर्माण के १७ वर्ष #कितनी ही और नीतियां नहीं बन पायी  #नौकरशाही दुम हिलाकर इस खजाने को ठिकाने लगाने में मशगूल रही # उत्तर प्रदेश के जमाने में इस राज्य को दो मण्डलायुक्त चलाते थे वहीं इस राज्य को अब एक मुख्यमंत्री सहित दो-दो मुख्य सचिव चला रहे हैं #आज यहां एनएच घोटाले के मगरमच्‍छ बैठे है जो एक झटके में 600 करोड खा कर डकार भी नही लेते-# सेवानिवृति के बाद बडे अधिकारियों के रोजगार के अवसर सुरक्षित हैं। इस राज्य की इससे बडी बदकिस्मती क्या हो सकती है # www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal)  CHAHNDRA SHEKHAR JOSHI- SPEIAL REPORT; 

File Photo;  श्री त्रिवेन्‍द्र रावत जी नौकरशाहों के भ्रष्‍टाचार के घोर विरोधी तथा प्रमुख आंदोलनकारी के रूप में चर्चित रहे हैं-  
नौ नवम्बर २०१७ को उत्तराखण्ड ने १७ वर्ष पूर्ण कर लिये। उत्तराखण्ड बचपन से ही कुपोषण का शिकार हो गया। जिस राज्य ने इन १७ सालों में सिर्फ मुख्यमंत्री तथा मुख्य सचिव बदलते हुए देखे हों उस राज्य में तरक्की की कल्पना करना भी बेइमानी जैसी लगती है।   शुरू से ही   राज्य के मुख्यमंत्री खजाना लुटाने में मस्त रहे तो नौकरशाही दुम हिलाकर इस खजाने को ठिकाने लगाने में मशगूल रही। राजनीतिक तौर पर भले ही कंगाली आज भी जारी है लेकिन राजनेताओं व ब्यूरोक्रेट के गठजोड ने इस राज्य को लूटने का पूरा इंतजाम कर रखा है। जहां उत्तर प्रदेश के जमाने में इस राज्य को दो मण्डलायुक्त चलाते थे वहीं इस राज्य को अब एक मुख्यमंत्री सहित दो-दो मुख्य सचिव चला रहे हैं। 
आन्दोलनकारियों के सपने आखिर हैं क्या
उत्तराखण्ड निर्माण के १७ वर्ष हो गये और उत्तराखण्डी अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। अनेकों दशकों तक चले उत्तराखण्ड आन्दोलन, अनेकों शहीदों का बलिदान, हजारों आन्दोलनकारियों द्वारा झेली गयीं यातनायें, अनेकों गीतकारों के क्रान्तिकारी गीत जिस उत्तराखण्ड के लिये थे, मानों वे सब सपनों की दुनिया में कहीं खो गये हैं। उत्तराखण्ड आन्दोलन जिसे पूरी दुनिया में याद किया जाता है, आजाद भारत की पुलिस द्वारा किये गये क्रूरतम अत्याचारों की पराकाष्ठा तथा खून से लिखे गये मसूरी, खटीमा तथा मुजफ्फरनगर जैसे वीभत्स काण्ड कौन भुला सकता है।
उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों का सपना था कि अपना एक छोटा सा पहाडी प्रदेश होगा जिसकी देखरेख वे स्वयं करेंगे। पहाड की जवानी और पहाड का पानी अपने प्रदेश के विकास के काम आयेगा। अपना प्रदेश होगा तो रोजगार भी अपने नौजवानों को मिलेगा। पहाड की माताओं को भारी बोझ उठाने के कुछ हद तक मुक्ति मिलेगी।  आज यहां एनएच घोटाले के मगरमच्‍छ बैठे है जो एक झटके में 600 करोड खा कर डकार भी नही लेते-

लेकिन हुआ क्या, सपन का उत्तराखण्ड कहीं खो गया। पहाड का पानी और जवानी फिर भी पराई ही रही। उद्योग आये नहीं और जो आये वे सब पहाडों के बजाय मैदानों में लग गये। बेरोजगारी वहीं की वहीं रह गयी। न विकास हुआ और न ही कोई योजना बनी। जो योजना बनी उसे नौकरशाह अपनी जेबों में भर ले गये।
प्रदेश की सरकारों ने आन्दोनकारियों को ही आपस में बांट दिया। कोई सात दिन कोई कम- आन्दोनकारी बनने के चक्‍कर में लग गया  – पता नहीं सरकार में बैठे लोग इतने हृदय हीन कैसे हो गये। आन्दोलनकारियों के लिये कोई ठोस योजना बनी ही नहीं। इतना जरूर नेता बोलते रहे तथा घोषणा पत्रों में लिखते रहे कि हम आन्दोलनकारियों तथा शहीदों के सपनों को साकार करेगे। लेकिन किसी ने भी आज तक यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि आन्दोलनकारियों के सपने आखिर हैं क्या। कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर है सरकार में बैठे लोगों की।
सरकारों ने अदूरदर्शी कदम उठाते हुए तीन महत्वाकांक्षी योजनायें विद्युत उत्पादन की प्रारम्भ कीं, किन्तु करोडों रूपये खर्च करने के बाद उनको बीच में बन्द कर दिया जिससे पहाडों के युवाओं पर और तुषारापात हो गया। सरकार की गलत नीतियों के चलते पहाड पर बरसातों ने कहर ढाया और प्राकृतिक आपदाओं में पूरी कमर ही तोड दी। आपदा राहत में भी राजनीति और भाई भतीजावाद हावी है।
गैरसैण को राजधानी बनाने का मुद्दा ही समाप्त कर दिया गया, कारण सिर्फ यह कि मोटा वेतन लेने वाले नौकरशाह पहाडों पर जाना ही नहीं चाहते। चिकित्सक पहाडों पर चढना नहीं चाहते और जो जाना चाहते हैं उनके पीछे राजनीति हावी हो गयी। पहाडों पर रेल तो दूर लोग बसों को भी तरस जाते हैं। अनेकों स्थानों पर ’बाहर‘ वालों ने इतने बडे बडे होटल बना दिये हैं कि स्थानीय युवा तो सपने भी वहां प्रवेश नहीं कर सकते। पहाड की कमाई पहाड के काम यहां भी नहीं आती। अनापशनाप कानून बनाकर पहाड की माताओं का बोझ कम करने के स्थान पर और बढा दिया गया है। १७ वर्षौं में मुख्यमंत्री बनते गये। कुल मिलाकर राज्य निर्माण के १७ वर्ष बाद भी हम वहीं खडे हैं जहां से चले थे।
कर्मचारियों के वेतन के लिए तो हर दस साल में आयोग समीक्षा करता है लेकिन प्रदेश के नेताओं तथा दायित्वधारियों को प्रमुख सचिवों के बराबर वेतन की मंजूरी जरूर मिल गयी है जो लगभग हर साल बढ रही है। इतना ही नहीं यह प्रदेश ब्यूरोक्रेटों के सेवा काल के बाद रोजगार का आशियाना भी बन गया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शायद उत्तराखण्ड देश का एकमात्र ऐसा राज्य होगा जहां बेरोजगारों को तो रोजगार के अवसर अभी तक नहीं ढूंढे जा सके है लेकिन सेवानिवृति के बाद बडे अधिकारियों के रोजगार के अवसर सुरक्षित हैं। इस राज्य की इससे बडी बदकिस्मती क्या हो सकती है कि दस वर्षो के बाद भी इसकी अपनी कोई स्थायी राजधानी नहीं है। सरकारें दीक्षित आयोग की आड में जनता भी भावनाओं और पहाडी राज्य की अवधारणा से खुलेआम खिलवाड कर रही है जबकि वहीं दूसरी ओर देहरादून में स्थायी राजधानी के पूरे इंतजामात सरकारों ने कर दिया है।
राजनीतिक स्वार्थ की चर्बी राजनेताओं में इस हद तक चढ चुकी है कि परिसीमन जैसा गंभीर मुद्दा नेताओं ने स्वीकार कर अंगीकृत तक कर लिया है। नये परिसीमन का आलम यह है कि वर्ष २०३२ के बाद उत्तराखण्ड के पहाडी हिस्सों में कुल १९ सीटें ही बच पायेंगी। जबकि ५१ सीटों के साथ मैदान मालामाल होंगे। साफ है कि आने वाले दो दशक बाद हम एक बार फिर उत्तर प्रदेश के दूसरे संस्करण का हिस्सा होंगे। वहीं दूसरी ओर देश में उत्तराखण्ड जैसी परिस्थिति वाले उत्तर पूर्वी राज्यों में आवादी के हिसाब से नहीं बल्कि भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विधानसभा क्षेत्रों का परिसीमन किया गया है। उत्तराखण्ड के साथ यह बडी विडम्बना ही कही जा सकती है कि यहां अब भी उत्तरप्रदेश की मानसिकता वाले राजनीतिज्ञ व ब्यूरोक्रेट राजनीति व नीतिनिर्धारण में पूरी तरह से सक्रिय है जिसके चलते राज्य गठन की मूल अवधारणा पूरी नहीं हो पा रही है बल्कि नये परिसीमन तो कुछ पहाड विरोधी नेताओं को ऐसे हथियार के रूप में मिला है जो उत्तराखण्ड के स्वरूप को ही बिगाड देगा। आगे चल कर यह राज्य उत्तराखण्ड की जगह दो खण्डों में विभक्त न हो जाये इससे इंन्कार नहीं किया जा सकता। विकास का सारा आधारभूत ढांचा जिस तरह से राज्य के तराई के क्षेत्र में ही विकसित किया जा रहा है यह इस बात का रोल माडल है कि तराई मिनी उत्तर प्रदेश के रूप में तब्दील होता जा रहा है। पलायन पहाड की सबसे बडी समस्या रही है लेकिन राज्य बनने के बाद यह मर्ज कम होने के बजाय और बढ गया है। पहाडों के जो लोग पहले लखनऊ, दिल्ली व मुम्बई जैसे स्थानों पर रोजगार की तलाश करते-करते बर्तन मांजते थे। नीति निर्धारकों ने उनके लिए रोजगार के नये दरवाजे खोलने के बजाय बर्तन मलने की देहरादून, हरिद्वार तथा हलद्वानी जैसे स्थानों पर व्यवस्था कर दी है। खेती बाडी पहले ही बिक चुकी थी सो रहे सहे गाड गधेरे इन सरकारों ने बेच डाले हैं। दस सालों में पंचायती राज एक्ट, कृषि नीति, शिक्षा नीति और न जाने कितनी ही और नीतियां नहीं बन पायी हैं।

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