किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला ; तब आरएसएस फिर किसे पेश करेगा?

ज़्यादातर लोग मान रहे हैं कि संभवतः किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलेगा। अगर यही नतीजा रहा तो क्या निर्वतमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही बीजेपी संसदीय दल के नेता बनकर उभरेंगे? क्या संघ-बीजेपी के नीति-निर्धारक उन्हीं की अगुवाई में एक नये गठबंधन की सरकार बनाने की कोशिश करेंगे? ऐसे सवाल ख़ूब उछल रहे हैं। ऐसे लोग गडकरी या राजनाथ की अगुवाई वाली सरकार की संभावना में राहत का एहसास कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और उदार मूल्यों पर तब आज जैसे ताबड़तोड़ हमले नहीं होंगे। इस तरह के आकलन मुझे फिलहाल ख्याली पुलाव से कुछ ज़्यादा नहीं लगते। ऐसे विश्लेषण आरएसएस की राजनीति के अहम पहलू और मोदी नामक शख़्सियत के उभार की राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रिया को नजरंदाज करते हैं। चुनाव तो चुनाव है, अगर जनता ने मोदी-शाह की बीजेपी को सिरे से खारिज कर दिया और किसी बड़े गठबंधन के जरिये सत्ता में बने रहने की संभावना को भी ख़त्म कर दिया तो निश्चय ही संघ-बीजेपी भी अपना राजनीतिक-सांगठनिक नेतृत्व बदलने को तैयार होंगे। 23 मई समकालीन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन बन गया है,

क्या आरएसएस फिर उन्हें ही पेश करेगा? क्या उसकी पसंद तब नितिन गडकरी, देवेंद्र फडणवीस, प्रकाश जावडेकर या राजनाथ सिंह नहीं हो सकते?

 लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election 2019) की सरगर्मियों के बीच केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) ने शुक्रवार को कहा था कि सरकार बीजेपी की नहीं एनडीए की बनेगी. नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) के इस बयान पर अब बॉलीवुड एक्टर और प्रोड्यूसर कमाल खान  (Kamaal R Khan)  ने रिएक्शन दिया है, जो खूब वायरल हो रहा है. कमाल खान (Kamaal R Khan) वैसे भी अपने बेबाक अंदाज के लिए जाने जाते हैं और इस बार भी उन्होंने कुछ ऐसा ही ट्वीट किया है. कमाल खान (Kamaal R Khan) ने  नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) के बयान को लेकर बीजेपी पर निशाना साधा है. कमाल खान (Kamaal R Khan) ने लिखा: “नितिन गडकरी (Nitin Gadkari) जी ने कहा बीजेपी नहीं एनडीए सरकार बनाएगी. इसका मतलब उन्होंने यह कंफर्म कर दिया है कि बीजेपी इस बार बहुत सारी सीटें जीतने नहीं जा रही है. इसलिए बीजेपी आशा कर रही है कि उसे दूसरी पार्टियों का समर्थन हासिल हो और यह बात सब जानते हैं कि राजनीति में कोई किसी का दोस्त नहीं होता.” कमाल खान इस ट्वीट के माध्यम से बीजेपी पर निशाना साधा है. उनके इस ट्वीट पर लोगों ने अपनी प्रतिक्रियाएं देनी भी शूरू कर दी है.

नरेंद्र मोदी के मौजूदा ‘राजनीतिक-उत्थान’ के पीछे सिर्फ संघ नहीं है, बड़े कॉरपोरेट घरानों की भी अहम भूमिका है। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में वह दंगों के अलावा अपनी कॉरपोरेट-पक्षी नीति के लिए भी जाने गये। अंबानी से लेकर अडाणी, सभी मोदी के मुरीद रहे और आज भी हैं। सच पूछिए तो उनके राजनीतिक व्यक्तित्व का निर्माण संघी कट्टरता और कॉरपोरेट कांइयांपन के मिले-जुले रसायन से हुआ है। मोदी ने जिस तरह पांच साल केंद्र में सरकार चलाई, एकाधिकार को बढ़ावा दिया, उससे कॉरपोरेट का अपेक्षाकृत एक छोटा हिस्सा भी उनसे क्षुब्ध है। पर ताक़तवर कॉरपोरेट लॉबी अब भी उनके साथ है।

मोदी राज में केंद्र और बीजेपी शासित अनेक राज्य सरकारों ने सिर्फ़ कॉरपोरेट हितों का संरक्षण ही नहीं किया, अनेक मामलों में ख़ास-ख़ास कॉरपोरेट घरानों के निर्देशों के तहत भी काम किया। इससे शासन ही नहीं, पूरी व्यवस्था के हितों और लोकतांत्रिक मूल्यों को आघात पहुँचा। इस तरह की प्रक्रिया को समझने के लिए रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन की मशहूर किताब ‘सेविंग कैपिटलिज्म फ़्रॉम कैपिटलिस्ट्स’ की ये पंक्तियाँ मुझे प्रासंगिक नजर आती हैं, ‘मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था को एक बड़ा ख़तरा है – सत्ता या सरकार के व्यवस्थागत हितों की बजाय कुछ निजी संस्थानों के निजी हितों को तवज्जो देने की प्रवृत्ति से।’ और यहीं से शुरू होता है क्रोनी कैपिटलिज्म का सिलसिला।

 आरएसएस की ताक़त के बारे में बेवजह भ्रम पाला जाता है। जब-जब बीजेपी सत्ता में होती है, उसकी ताक़त सर्वव्यापी हो जाती है लेकिन बीजेपी के सत्ता से बाहर होते ही वह दिल्ली के झंडेवालान या नागपुर के अपने मुख्यालय में भावी सरकार में बीजेपी को स्थापित करने के लिए समाज में ‘सांप्रदायिक हिन्दुत्व’ के प्रचार-प्रसार की रणनीति बनाने तक सिमट जाती है।

आरएसएस की नज़र में पूर्व के राजे-महाराजे और आज के बड़े व्यापारी-उद्योगपति हमेशा परम पूज्य और श्रद्धेय रहे हैं। मोदी-शाह की जोड़ी ने आरएसएस के ब्राह्मणी-सवर्ण आधार के साथ भारत के बड़े कॉरपोरेट को भी जोड़ा है। यह एक नयी परिघटना है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की दौड़ में 2013-14 में लाल कृष्ण आडवाणी अपने शिष्य नरेंद्र मोदी के सामने नहीं टिक सके! मोदी-शाह की जोड़ी के पास वह ताक़त आज भी मौजूद है। इसलिए आरएसएस-बीजेपी में फिलहाल उनके नेतृत्व को कोई ख़ास चुनौती मुझे नहीं नज़र आती।

आज की तारीख़ में एनडीए-2 नाम से जो गठबंधन है, उसकी प्रकृति गठबंधन की नहीं है। बीजेपी के पास बहुमत है और अन्य दल बीजेपी के रहमो-करम पर सत्ता की औपचारिक संरचना का हिस्सा भर बनाये गये हैं। सत्ता-संचालन में उनकी कोई भूमिका नहीं है। अगर 23 मई को बीजेपी बहुमत नहीं पाती लेकिन सबसे बड़े दल के रूप में उभरती है तो निश्चय ही वह एक कारगर गठबंधन बनाने की कोशिश करेगी। तब उसकी नज़र तेलंगाना के तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस और ओडिशा के बीजू जनता दल (बीजेडी) जैसे दलों की तरफ़ होगी। ज़ाहिर है, ये दल एनडीए-2 के राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी या अठावले के रिपब्लिकन पार्टी की तरह लुंजपुंज नहीं होंगे। अगर एनडीए-3 बना तो उसे क्षेत्रीय दलों को ज़्यादा हिस्सेदारी देनी होगी। नीतीश कुमार का जनता दल (यू) भी अपना वाज़िब हिस्सा चाहेगा, जिसका संकेत कुमार अभी से देने लगे हैं। दिलचस्प बात यह है कि एनडीए-2 मे होने के बावजूद केंद्र की मौजूदा संरचना में जद (यू) का प्रतिनिधित्व नहीं है। नीतीश ने स्वयं ही अपने किसी नेता को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किये जाने के प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया।

अब सवाल उठता है कि बीजेपी की अगुवाई वाले ऐसे किसी गठबंधन के नेता क्या मोदी ही बनेंगे? क्या वह बीजेपी के अंदर और बाहर अपने संभावित गठबंधन सहयोगियों के बीच स्वीकार्य होंगे? क्या आरएसएस फिर उन्हें ही पेश करेगा? क्या उसकी पसंद तब नितिन गडकरी, देवेंद्र फडणवीस, प्रकाश जावडेकर या राजनाथ सिंह नहीं हो सकते? इस मामले में सियासी और मीडिया हलकों मे तरह-तरह के आकलन हो रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षकों और व्याख्याकारों का बड़ा हिस्सा मान रहा है कि वास्तविक अर्थों में गठबंधन चलाने के लिए आरएसएस-बीजेपी को अपना नेता बदलना होगा यानी मोदी की जगह किसी अन्य बीजेपी नेता को लाना होगा। इस तरह का आकलन और विश्लेषण बहुत सारे बीजेपी विरोधियों और लिबरल्स को कुछ सुकून भी देता है।

अपने देश में लोग राजनीति और अर्थतंत्र से जुड़ी पुरानी बातों और ख़बरों को बड़ी जल्दी भूल जाते हैं। इसलिए, मैं 2013 की एक घटना से अपनी बात की शुरुआत करना चाहता हूँ। भारतीय जनता पार्टी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी थी। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसकी मदद कर रहा था। यूपीए-2 की कांग्रेस की अगुवाई वाली डॉ. मनमोहन सिंह सरकार पर तमाम तरह के आरोप लग रहे थे। मीडिया में अक्सर ही घोटालों, घपलों और बड़े-बड़े भ्रष्टाचार की ख़बरें आ रही थीं। जहाँ कुछ बड़ा मामला नहीं था, उसे भी बहुत बड़ा बनाकर पेश किया जा रहा था। मनमोहन सरकार द्वारा नियुक्त कई बड़े उच्चाधिकारी, ख़ासतौर पर संवैधानिक पदों पर आसीन कुछ अधिकारी भी सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार पर मीडिया को ख़बरें दे रहे थे। यह स्वाभाविक सिलसिला नहीं था। यह सब यूँ ही नहीं हो रहा था! इसके पीछे देश-विदेश की कुछ बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की भी अहम भूमिका थी। इसका ठोस संकेत एक घटना से मिला। उस वक़्त देश के एक प्रमुख अंग्रेजी आर्थिक अख़बार और दुनिया की एक मशहूर कंपनी के साझा सर्वेक्षण में बताया गया कि भारत में कार्यरत 100 बड़ी कंपनियों के सीईओ में से 74 सीईओ इस बार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेद्र दामोदरदास मोदी को देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं। सिर्फ़ 7 फ़ीसदी सीईओ राहुल गाँधी को चाहते हैं। 

कुछ ही समय बाद देश के प्रायः सभी प्रमुख न्यूज़ चैनलों-अख़बारों के अपने-अपने ओपिनियन पोल और चुनाव सर्वेक्षण आने लगे। प्रायः सबने दावा किया कि उनके सर्वेक्षण जनता के बीच बहुत जेनुइन तरीक़े से हुए हैं। सबका एक सा नतीजा था – मोदी ‘नंबर वन’ हैं। देश के लोग मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे उपय़ुक्त व्यक्ति मानते हैं। दूसरे नंबर पर काफ़ी पीछे राहुल गाँधी या मनमोहन सिंह हैं। कुछेक चैनलों ने बाद के दिनों में अरविन्द केजरीवाल का नाम भी पेश करना शुरू किया। कॉरपोरेट-पसंद में मोदी जी के गुरू आडवाणी का नाम ग़ायब था।अब 2019 के चुनाव का परिदृश्य देखिए। ज़्यादातर सर्वेक्षणों या आकलनों में इस समय प्रधानमंत्री पद के लिए दो ही नाम सामने आ रहे हैं – नरेद्र मोदी और राहुल गाँधी। मोदी का नाम राहुल से काफ़ी आगे बताया जा रहा है। अभी तक सीईओ वग़ैरह की पसंदगी के सर्वे नहीं आए हैं। कुछेक न्यूज़ चैनलों में क्षेत्रीय नेताओं – मायावती और ममता के भी नाम आ रहे हैं पर लोकप्रियता के ग्राफ़ में मोदी सबसे आगे बताए जा रहे हैं।

उर्मिलेश  साभार

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