भू-मण्डल का यह स्थान भगवान शिव को बेहद प्रिय

sarayu tatआया सावन झूम के ………….भू-मण्डल का यह स्थान भगवान शिव को बेहद प्रिय  …लेकिन क्षेत्र की बदहाली से जनता त्रस्त्र
बम बम…बागेश्वर…..राजेन्द्रपन्त’रमाकान्त‘  काा हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल के लिए विशेष धार्मिक आलेख- 

#इस स्‍थान को हिमालय का काशी कहा जाता है# सावन माह के अवसर पर मनाये जाने वाले मेलों में बागेश्वर मेले का अपना अलग महत्व  #स्कंद पुराण के मानसखण्ड में ऋषि दुर्वासा बागीश महिमा का वर्णन  #इस स्थान के दर्शन सैकडों जन्मों के पापों का नाश  #सरयू व गोमती के संगम पर स्थित बाबा बागनाथ जी के दर्शन कैलाश व काशी से भी ज्यादा फलदायी   #इस तीर्थ में शिवपूजा करने वाले व्यक्तियों को तीन सौ वर्ष तक विश्वेश्वर की पूजा करने का फल   #बागेश्वर के समान तीर्थ व सरयू के समान नदी तीनों लोकों में कही भी नहीं #ऋषि दुर्वासा कथा का वर्णन स्कंद पुराण के मानस खण्ड के ७८वें अध्याय में #बागीश्वर की महिमा का विस्तृत वर्णन # www.himalayauk.org (UK Leading Digital Newsportal) 

सावन माह के अवसर पर मनाये जाने वाले मेलों में बागेश्वर मेले का अपना अलग महत्व है इस क्षेत्र को हिमालय का काशी भी कहते है।बागेश्वर पर्यटन व तीर्थाटन की दृष्टि से बागेश्वर धाम का महत्व निराला है पुराणों में इस क्षेत्र का अतुलनीय वर्णन आता है। लेकिन बदहाल बागेश्वर की ब्यथा की ओर किसी का भी ध्यान नही है बागेश्वर के आंचल में मनाये जाने वाले मेलेा की महिमा का यदि हम वर्णन करें तो बागीश्वर महात्म्य के वर्णन के बिना मेलो का वर्णन अस्तित्वहीन मालूम पडता है। बागीश्वर महिमा का वर्णन जितना विराट है बदहाली उतनी ही विकट इस पावन तीर्थ की कथा पुराणों में विस्तार से आती है।
स्कंद पुराण के मानसखण्ड में ऋषि दुर्वासा बागीश महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं। बागीश्वर कथा का श्रवण मनुष्य जीवन के लिए महान् फलदायी है। इस स्थान के दर्शन सैकडों जन्मों के पापों का नाश करती है। सरयू व गोमती के संगम पर स्थित बाबा बागनाथ जी के दर्शन कैलाश व काशी से भी ज्यादा फलदायी है क्योंकि भू-मण्डल का यह स्थान भगवान शिव को बेहद प्रिय है।
सरयू गंगा व गोमती यमुना का ही स्वरूप है। बागीश के नील पर्वत का क्षेत्र विंध्य और संगम क्षेत्र तीर्थराज प्रयाग के सामन पूज्यनीय है। बागीश्वर को समूचे विश्व के ईश्वर विश्वेश्वर तथा इस नगरी को उत्तर क्षेत्र का वाराणसी कहते हैं। इस तीर्थ में शिवपूजा करने वाले व्यक्तियों को तीन सौ वर्ष तक विश्वेश्वर की पूजा करने का फल प्राप्त होता है। बागेश्वर के समान तीर्थ व सरयू के समान नदी तीनों लोकों में कही भी नहीं है। बागेश्वर में शिवजी की भक्ति शिव लोक का सबसे सुगम मार्ग बताया गया है। इतना ही नहीं इस भू-क्षेत्र में शिव नाम की माला जपने वाला शिव लोक का परम अधिकारी बनता है। इस संबंध में एक कथा का वर्णन करते हुए ऋषि दुर्वासा कहते हैं। सुबल नाम का एक बडा धनी धर्मात्मा वैश्य था उसने अपने धन का उपयोग गरीबों व दीन दुखियों की सेवा में किया। सावन माह में हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की विशेष प्रस्‍तुति- 
हरि व हर की भक्ति से उसकी पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण हुई वृद्वावस्था में उसके दो पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः निधि व पुण्डरीक रखा गया समय की बढती धारा में दोनों युवा पराक्रमी हुए। कर्मयोग के आचरण से निधि धर्मात्मा ख्याति को प्राप्त हुआ और पुण्डरीक धीरे-धीरे पाप की ओर प्रवृत्त होने लगा दुःखी पिता वन में जाकर तपस्या करने लगे पुण्डरीक की पाप यात्रा बढती चली गई इस तरह एक दिन पाप का घडा फूटा उसके देह का अंत हुआ अपने पापपूर्ण आचरण व कर्मों के कारण वह घोर नरकों में यातनाएं झेलने लगा। धर्मपूर्ण आचरण के साथ महान् व उज्जवल कर्मों के पालन से निधि ने शिवलोक को प्राप्त किया। फिर भी थोडे पापों से लिप्त होने के कारण शिवजी ने अपने सेवकों से उसे यमलोक का दर्शन कराते हुए वहां की यातनाओं को दिखाकर वापस लाने को कहा। इस घटनाक्रम में संयोगवश दोनों भाइयों का समागम हो गया। अपने भाई की घोर याताना को देखकर उसका मन द्रवित हो उठा। उसने शिवदूतों से यह जानने की चेष्ठा की कि मुझे किस पुण्य से शिवलोक व मेरे भाई को किन पापों के कारण महाभयानक दंश झेलना पड रहा है। तब शिवदूतों ने निधि को उसके पूर्वजन्मों के पुण्यों को स्मरण करते हुए बताया कि बागीश्वर क्षेत्र में किये गये शिर्वाचन व शिव पूजा से उसे यह दुलर्भ शिव लोक प्राप्त हुआ वह चन्द्रशेष राजा के द्वारा सम्पातिद शिव महोत्सव को देखकर बागनाथ जी की भक्ति में लीन हुआ था। राजा चन्द्रशेश ने अपने परिजनें व सेना सहित बागीश्वर में विशाल शिव पूजन किया उस पूजन विधि को देखकर सरयू स्नान व शिव की आराधना से तुमने सात जन्मों तक सुख भोगकर शिव लोक की प्राप्ति की है। उस बीच किये गये पापों के कारण तुम्हें यह नरक देखना पडा है। अब तुम शीघ्र परम पद प्राप्त करो। अगर तुम्हें अपने भाई की नरक वास की चिंता है तो तुम उसे बागीश्वर का महात्म्य सुना दो।
शिव दूतों के मार्ग दर्शन से निधि ने अपने भाई को देवाधिदेव महादेव की प्रिय स्थली बागेश्वर का महात्म्य इतिहास का वर्णन मधुरता के साथ सुनाया रमणीय एवं मोक्षदायिनी कथा को सुनकर सब नरकवासी पापमुक्त हो गये। इस तरह निधि के पुण्य एवं प्रसाद से अन्य सभी पापियों को भी शिवधाम प्राप्त हो गया।
इस क्षेत्र की पावन नदियों में स्नान की बडी महत्ता है। मकर सक्रांति के अवसर पर सरयू एवं गोमती तट पर स्नान के पश्चात शिव पूजा व अर्चना करने से एवं शिव कथाओं के श्रवण मनन व उन्हें पढने स जन्म-जन्मातर के पापों का नाश होता है तथा पितरों का उद्वार होता है। स्कंद पुराण के मानस खण्ड के ७८वें अध्याय में बागीश्वर की महिमा का विस्तृत वर्णन मिलता है।

एक अन्य किंवदंती के अनुसार कैलाश यात्रा जाते समय पाण्डवों ने प्राकृतिक यहां की प्राकृतिक सुषमा से अविभूत होकर अपना पडाव डाल कर बाघनाथ मंदिर की स्थापना की। मंदिर में आज भी विराजमान विशाल शिलाओं को लाने का श्रेय महाबलि भीम को दिया जाता है। अगर हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनायें तो ज्ञात होता है कि कत्यूरी व चन्द राजाओं के शासनकाल में इस मंदिर का निर्माण हुआ।      सावन माह में हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की विशेष प्रस्‍तुति-  
मध्यकालीन मूर्ति कला का अनुभव कौशल आज भी इस मंदिर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। इस मंदिर निर्माण की कला बैजनाथ मंदिर की मूर्ति शैली से मिलती-जुलती है। सरयू, गोमती व अदृश्य सरस्वती के त्रिवेणी संगम पर स्थित भगवान भोलेनाथ की प्रिय स्थली बागेश्वर मंदिर को कत्यूरियों के शासन में नया व भव्य रूप प्रदान किया गया। पूजा-अर्चना के लिए फल-फूल, धूप, तेल व अन्य सुगंधित पदार्थों की व्यवस्था हेतु सरनेश्वर गांव को चुना गया। देवी देवताओं की पूजा अर्चना हेतु वंशधरों ने अपनी अपनी भूमि दान स्वरूप सहर्ष प्रदान की। इसके उपरांत चंद वंश का उदय हुआ। कत्यूरी शासक के दामाद ही चंद वंश के संस्थापक थे। कत्यूरी शासक द्वारा दामाद को अथाह भूमि दहेज के रूप में दी गयी, जिसमें रजबुंगा निर्मित किया गया। दोणकोट व अन्य छोटे ठकुराइयों को अपने अधीन कर चंद शासकों ने दीर्घ समय तक काली कुमाऊं में अपना शासन चलाया। विक्रमचंद शाके १३३५ के ताम पत्र में इसका महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। चंद शासकों द्वारा पीढी दर पीढी शासन चलाने के उपरान्त रूपचंद के बाद राजा लक्ष्मी चंद ने गद्दी संभाली, राजा लक्ष्मीचंद को बागनाथ के प्रति अगाधा श्रद्वा थी।
राजा लक्ष्मीचंद द्वारा राज्य के दौर के दौरान बागनाथ मंदिर का निरीक्षण किया गया। जीर्ण-क्षीर्ण अवस्था में देख लक्ष्मीचंद ने बागनाथ को भव्य धार्मिक रूप देने का निर्णय लिया, स्वयं अपनी देखरेख में बागनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण लक्ष्मीचंद ने शुरू कर दिया। संपूर्ण बागनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में एक वर्ष का समय लगा। एक वर्ष में राजा लक्ष्मीचंद ने गोमती नदी के पार एक ऊंचे टीले नुमा स्थान में अपना अस्थाई डेरा डाला। तत्कालीन राजधानी अल्मोडा के लिए आवागमन यहीं से होता था। निर्माण पूर्ण होने के पश्चात् बागनाथ में भव्य पूजा-अर्चना, मूर्ति प्रतिष्ठा व भण्डारे के उपरान्त लक्ष्मीचंद समय-समय पर बागेश्वर आकर बागनाथ मंदिर में पूजा अर्चना करते व व्यवस्था देखते थे। रावल जाति के लोग तत्कालीन समय से ही बागनाथ में पुजारी के रूप में थे। वर्तमान में भी रावल जाति के ही पुजारी पूजा अर्चना का कार्य करते हैं। उस समय में कुमाऊं के चंद शासक व गढवाल के पवार शासकों में युद्व होते थे। लक्ष्मीचंद द्वारा सात बार गढवाल पर आक्रमण किया गया, परन्तु हर बार वे विफल रहे। परन्तु १६०२ में कुलगुरू की आज्ञा से बागनाथ व अल्मोडा में लक्ष्मी नारायण मंदिरों की स्थापना करने के बाद राजा लक्ष्मीचंद द्वारा आठवीं बार गढवाल पर आक्रमण किया गया व अविस्मरणीय विजय हासिल की। इसके बाद चंद वंश का बागनाथ के प्रति अगाथ श्रद्वा व विश्वास बढ गया।
धार्मिक प्रवृत्ति के चंद शासकों ने कई मंदिरों का निर्माण किया, चंद वंश के जगतचंद द्वारा बागेश्वर, जागेश्वर व अन्य प्रमुख मंदिरों की आय, संपत्ति व व्यय का लेखा-जोखा रखने के लिए दन्या के जोशी नियुक्त किये गये। बागनाथ मंदिर को सन् १६७१ ई. में राजा बाज बहादुर, सन् १६७३ में दीप चंद के अलावा मोहन चन्द द्वारा १७८६, १७८७ व १७८८ ई. में भूमि दान दी गयी। बेणी माधव व त्रियुगी नारायण मंदिरों को भी चंद राजाओं ने गूंठ प्रदान की। चंद वंश के रूपचंद से लेकर मोहन चंद तक समस्त चंदवंशीय शासकों ने बागनाथ मंदिर को श्र(ा का अटूट केंद्र बनाये रखा व हर दृष्टि से इसकी अंत तक सेवा भक्ति की।
राजा लक्ष्मीचंद द्वारा १६०२ ई. में निर्मित महाशक्ति धाम बागनाथ मंदिर अपनी समूची कथा को स्कंद पुराण के मानव खण्ड में विस्तार के साथ समेटे हुए हैं। पुराण में बागेश्वर में शवदाह से मोक्ष प्राप्ति की धारणा के संबंध में एक पौराणिक कथा का उल्लेख मिलता है। जिसके अनुसार समुद्र मंथन के समय जब समुद्र मंथन से अमृत कुंभ निकला तब उसे दानवों के हाथ से बचाने के उद्देश्य से देवराज इंद्र के पुत्र जयंत कुंभ लेकर भागने लगे, उन्हें भागते देखकर दानवों ने उनका पीछा किया। राक्षसों के डर से जयंत हिमालय की ओर भागा, उस समय नील और भील नामक पर्वत श्रृंखलाओं के बीच मार्केण्डेय मुनि ध्यानमग्न होकर तपस्या कर रहे थे कि घनघोर काली घटाओं को देखकर मार्केण्डेय अचेतन होकर खडे हो गये। राक्षसों को निरंतर आगे बढते देख जयंत को भारी दुविधा में देख सूर्य भगवान ने उस स्थान पर प्रकाश पुंज फेंक कर जयंत को नागपुरी लौटा दिया, जो आज भी सूरजकुण्ड के नाम से जाना जाता है। देवराज पुत्र जयंत ने जैसे ही अमृत कुण्ड लेकर नागपुरी को प्रस्थान किया वैसे ही दैत्य का दल भी वहां आ पहुंचा। जयंत के खो जाने पर दानव गिरी कंदराओं घाटियों को छानते हुए आगे बढने लगे। अंत में राक्षसों के गुरू शुक्राचार्य ने दिव्य दृष्टि से दानवों को बताते हुए कहा कि जयंती नागपुरी पहुंच चुका है अब तुम यहीं बस जाओ। राक्षसों द्वारा अपने गुरू से यह पूछे जाने पर देवता तो अमृत पीकर अमर हो गये तब हमारा तारण कैसे होगा, उनके गुरू शुक्राचार्य ने बताया कि कालांतर में वशिष्ठ मुनि कलयुग के तारण तोरण के लिए सरयू को यहां लायेंगे। मकर संक्रांति के दिन इस पावन जल के स्नान से तुम्हारे पाप धुल जायेंगे। वहीं शव दाह को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इसके कारण बागेश्वर में स्नान व शव दाह का काफी महत्व बढ जाता है। दानवों के गुरू शुक्राचार्य की आज्ञा का पालन करने से क्षेत्र का नाम विशेष रूप से दानवपुर पडा, जिसका सूरजकुण्ड के समान संगम से एक किमी. नीचे अग्नि कुण्ड का भी उल्लेख मिलता है। बागनाथ के बारे में अनेक लोकगाथायें प्रचलित हैं। प्रसिद्व लोकगाथा राजूला मालूशाही में भी बागनाथ का उल्लेख मिलता है। भूटान नरेश की बाला राजूला शौक्याण बैराठ नरेश, राजकुंवर, मालूशाही की तलाश में बागेश्वर पहुंची और उत्तरायणी मेले में न दिखायी देने पर बागनाथ से करूण रूदन के साथ मिन्नतें मांगती है। राजूला की विरह व्यथा व विलाप सुनकर दया सागर बागनाथ की बायीं आंख से आंसू आ जाते हैं। बागनाथ को रोते देखकर राजूला उनके आंख में अंगुली डाल देती है। पीडा से तिलमिलाकर बागनाथ उसे श्राप देते हैं, जा तुम कभी नहीं मिल सकते। कहा जाता है कि राजूला मालूशाही के अमर प्रेम का दुखद अंत बागनाथ के श्राप के कारण होता है। इस तरह एक नही अनेकों कथाए बाबा बागनाथ जी की महिमा को समेटे है लेकिन क्षेत्र की बदहाली से जनता त्रस्त्र है सावन माह में हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की विशेष प्रस्‍तुति- 

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