अमावस्या की अंधियारी रात को रोशन करने के अलावा यह अध्यात्म की साधना करने वालों के लिए भी महत्वपूर्ण है। अमावस्या की अंधियारी रात को रोशन करने के अलावा यह अध्यात्म की साधना करने वालों के लिए भी महत्वपूर्ण है। इसे ऐतिहासिक कारणों से भी मनाया जाता है। 

  भगवान राम ने रावण का वध करके लंका विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे थे। इसी दिन भगवान विष्णु ने दैत्यराज बलि की कैद से लक्ष्मी सहित अन्य देवताओं को छुड़वाया था। उनका सारा धन-धान्य, राजपाठ, वैभव लक्ष्मी जी की कृपा से पुनः परिपूर्ण हुआ था। दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन किया जाता है। मां लक्ष्मी भोग की अधिष्ठात्री देवी हैं। इनकी सिद्धि से ही जीवन में भौतिक सुख-सुविधाएं प्राप्त होती है। जहां लक्ष्मी का वास होता है, वहां सुख-समृद्धि का वास होता है। पूरे सच्चे मन के साथ दिवाली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा करना चाहिए आइए जानते हैं कि दिवाली के दिन मां लक्ष्मी की पूजा किस तरह से की जानी चाहिए।

मान्यता के अनुसार वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है। माना जाता है कि अमा‍वस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।

सनातन परंपरा में अमावस्या तिथि पर साधना-आराधना का बड़ा महत्व होता है। इस तिथि पर कोई न कोई पर्व विशेष रूप से मनाया जाता है। इसके स्वामी पितर माने गए हैं। मान्यता के अनुसार अमावस्या तिथि पर पितृगण सूर्यास्त तक घर के द्वार पर वायु के रूप में रहते हैं। किसी भी जातक के लिए पितरों का आशीर्वाद बहुत जरूरी माना जाता है। ऐसे में पितरों को संतुष्ट और प्रसन्न करने के लिए इस तिथि पर विशेष रूप से श्राद्ध और दान किया जाता है।

शास्त्रों के अनुसार हर माह आने वाली अमावस्या तिथि भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। वहीं कृष्ण पक्ष में आनेवाली इस तिथि यानि अमावस्या को अत्यंत रहस्यमयी माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन नकारात्मक उर्जा मे वृद्धि के साथ ही प्रेतात्माएं भी अधिक सक्रिय रहती हैं

ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।

ग्रंथों में अमावस्या पर यात्रा करने से भी मना किया गया है। इस संबंध में मान्यता है कि अमावस्या पर चंद्र की शक्ति बिल्कुल कम हो जाती है। ज्योतिष में चंद्र को मन का कारक बताया गया है। अमावस्या पर चंद्र न दिखने की वजह से हमारा मन संतुलित नहीं रह पाता है। इसी वजह से काफी लोग अमावस्या पर असहज महसूस करते हैं। अमावस्या पर हमारा मन संतुलित नहीं रह पाता है, इस कारण कोई भी बड़ा फैसला इस दिन लेने से बचना चाहिए। अन्यथा फैसला गलत साबित हो सकता है और हमें परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अमावस्या की रात किसी सुनसान स्थान या शमशान की ओर न जाएं। अमावस्या पर नकारात्मक शक्तियां अधिक सक्रीय रहती हैं जो कि हमें नुकसान पहुंचा सकती हैं। अमावस्या पर सुबह देर तक सोने से बचें। इस दिन सुबह जल्दी जरूर उठें और स्नान के बाद सूर्य को जल चढ़ाएं।  गरुड़ पुराण के अनुसार अमावस्या पर बनाए गए संबंध से उत्पन्न होने वाली संतान सुखी नहीं रहती है। घर में क्लेश न करें, वरना पितर देवता की कृपा नहीं मिल पाती है। अमावस्या पर पितरों के लिए धुप-ध्यान करें। जो लोग गरीबों का अपमान करते हैं, उनके लिए शनि और राहु-केतु अशुभ होते हैं।

पंचांग में अमावस्या की तिथि का विशेष महत्व माना जाता है। चंद्रमा की 16वीं कला को अमावस्या कहा जाता है। चंद्रमा की यह कला इस तिथि पर जल में प्रविष्ट हो जाती है। वहीं इस तिथि पर चंद्रमा का औषधियों में वास रहता है। अमावस्या माह की तीसवीं तिथि है, जिसे कृष्णपक्ष की समाप्ति के लिए जाना जाता है। इस तिथि पर चंद्रमा और सूर्य का अंतर शून्य हो जाता है।

सामान्य भाषा में कहे तो हिन्दू कैलेंडर से अनुसार वह तिथि जब चन्द्रमा गायब या यूं कहें अंधेरे में खो जाता है, उसे अमावस्या के नाम से जाना जाता है। अमावस्या को कई लोग अमावस भी कहते हैं। अमावस्या वाली रात को चांद लुप्त हो जाता है, जिसकी वजह से चारों ओर घना अंधेरा छाया रहता है। यह 15 दिन यानि पखवाड़ा कृष्ण पक्ष कहलाता है। वहीं जिन दिनों में हर दिन चंद्र का आकार बढ़ता दिखता है उसे शुक्ल पक्ष कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार अमावस्या के दिन पूजा-पाठ करने का खास महत्व होता है।

शुक्ल पक्ष में चांद बढ़ते-बढ़ते अपने पूर्ण रूप में आ जाता है, इस पूर्ण रूप को ही यानि पूर्णिमा को शुक्ल पक्ष का अंतिम दिन माना जाता है, क्योंकि इसके बाद चांद ढलना शुरु हो जाता है और फिर अमावस्या को पूरी तरह से लुप्त हो जाता है, चंद्रमा के इस ढलते दिनों को ही कृष्ण पक्ष कहा जाता है।

सूर्य की परिक्रमा करते हुए पृथ्वी कुछ ख़ास पड़ावों से गुजरती है, जिससे साल में दो संक्रांतियां और सम्पात आते हैं। संक्रांति वो समय होता है, जब पृथ्वी के आकाश में सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर की ओर, या फिर उत्तर से दक्षिण की ओर हो जाती है। जबकि सम्पात तब होता है, जब दिन और रात बराबर होते हैं।

संक्रांतियों और सम्पातों के बीच में पड़ने वाली साल की चार तिमाहियों में से यह चौथी तिमाही है। सौर-चंद्र कैलेंडर के हिसाब से यह साल का तीसरा पड़ाव है। सम्पात के बाद दीपावली पहली अमावस्या होती है।

दो संक्रांतियों के बीच, दक्षिणी संक्रांति या फिर दक्षिणायन को साल के आधे हिस्से के रूप में देखा जाता है, जो साधना के लिए उपयुक्त माना जाता है और उत्तरी भाग या उत्तरायण, जो दिसंबर से जून तक होता है – को फल प्राप्ति के समय के रूप में देखा जाता है, जब साधक अपनी साधना के फलीभूत होने की प्रतीक्षा करता है। ये नियम उत्तरी गोलार्ध में मानव शरीर के बर्ताव को देखकर निर्धारित किये गए थे। स्त्री चाहती है कि उसके आस-पास की हर चीज रोशन हो, वरना वह निराशा में चली जाती है। पुरुष अंधकार में बैठ सकते हैं, पुरुष प्रकृति अंधकार में बैठकर मनन कर सकती है। साधना के इन दो भागों को बाद में, खेती पर आधारित समुदायों में सांस्कृतिक तौर पर – काम और फसल कटाई के – दो भागों के रूप में देखा गया। कटाई का मौसम अगली तिमाही में संक्रांति नामक एक और त्यौहार से शुरू होता है। इसलिए यह रोशनी का त्यौहार है, क्योंकि यह साल का सबसे अंधेरा हिस्सा होता है। यह सत्य है, कि साल के इस हिस्से में उत्तरी गोलार्ध को सूर्य की रोशनी सबसे कम मिलती है। लेकिन यह सिर्फ रोशनी और अंधेरे के अर्थों में ही साल का सबसे अंधेरा चरण नहीं होता। इसके अलावा, यह साधना करने वाले लोगों के लिए भी सत्य है। साधना करते हुए पचास, साठ फीसदी रास्ता तय करने के बाद यह वास्तव में अंधेरी रात की तरह आता है। पहले तीस, चालीस फीसदी बहुत बढ़िया होते हैं, अगले बीस, तीस फीसदी ठीक-ठीक होते हैं। जब आप साठ फीसदी का आंकड़ा छूते हैं, तभी शंका उभरती है, ‘हे भगवान, क्या मैंने अपनी पूरी जिंदगी बर्बाद कर ली?’

पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है। हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या।

हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या। अमावस्या : वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।

अमावस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छा

ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।

धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को ‘अमा’ कहा गया है। चन्द्रमंडल की ‘अमा’ नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे ‘कुहू अमावस्या’ भी कहा जाता है।

अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं। सोमवती अमावस्या, भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या आदि मुख्य अमावस्या होती है।

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