ऐपण लोक कला ; सकारात्मक शक्तियों का आवाहन ; चन्द्रशेखर जोशी के पत्र पर मान0 पीएम ने संज्ञान लेकर उत्तराखंड Govt को पत्र भेजा था, बगुलामुखी मंदिर देहरादून को एप्रन Aipan से सजा रहे चन्द्रशेखर जोशी

ऐपण  कला की शुरुआत तंत्र-मंत्र एवं आध्यात्मिक कार्यों के लिए की गई थी। # हर छोटे-बड़े शुभ अवसर पर ऐपण कला का निर्माण किया जाता है। #ऐपण कला उत्तराखंड की पुरानी और पौराणिक कला है। ऐपण कला के माध्यम से देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है ,या यूं कह सकते हैं, कि ऐपण में रेखांकित किये गए चित्र, सकारात्मक शक्तियों के आवाहन के लिए बनाए जाते हैं। भारतवर्ष के प्रमुख त्यौहार दीपावली में “AIPAN (ऐपण)” का विशेष महत्व है। दीपावली महापर्व पर “AIPAN (ऐपण)” घरों की देहलियों पर, मंदिरों में, सीढ़ियों में लक्ष्मी जी के पैर विशेष रूप से बनाये जाते है। # ऐपण बनाने के लिए मुख्यतः गेरू (प्राकृतिक लाल मिट्टी अथवा लाल खड़िया), विस्वार (चावलों को भिगोकर और पीसकर बना घोल), हल्दी, जौ तथा पिठ्या (रोली) का उपयोग किया जाता है। # ऐपण डिज़ाइन में बनाई जाने वाली सभी आकृतियां सुख और समृद्धि का प्रतीक हैं। इसलिए शुभ अवसरों पर इन्हें बनाकर लोग देवी आगमन की इच्छा करते हैं।    # बगुलामुखी मंदिर देहरादून को एप्रन Aipan से सजा रहे चन्द्रशेखर जोशी

# By Chandra Shekhar Joshi Chief Editor www.himalayauk.org (Leading Newsportal & Daily Newspaper) Publish at Dehradun & HARIDWAR Mob. 9412932030 & President; Bagulamukhi Temple

ऐपण  भारतीय हिमालय में कुमाऊं से उत्पन्न एक स्थापित-अनुष्ठानवादी लोक कला है । यह कला मुख्यतः विशेष अवसरों, घरेलू समारोहों और अनुष्ठानों के दौरान की जाती है। अभ्यासकर्ताओं का मानना ​​है कि यह एक दैवीय शक्ति का आह्वान करता है जो अच्छा भाग्य लाती है और बुराई को रोकती है।

उत्तराखंड सरकार ने 2015 में निर्णय लिया कि सरकारी कार्यालयों और भवनों में प्रदर्शन के लिए ऐपन को चित्रित करने वाली कला का अधिग्रहण किया जाएगा । हरीश रावत की अध्यक्षता में राज्य पर्यटन विभाग ने यह निर्णय लिया ।

समृद्धशाली सांस्कृतिक विरासत, अनमोल परंपराओं व आलौकिक कर्मों में, लोककला ऐपण का महत्वपूर्ण योगदान सदा से रहा है। किसी भी त्यौहार, मांगलिक अवसर पर भूमि व दीवार पर चावल, गेरू, हल्दी, जौ, मिट्टी, गाय के गोबर, रोली अष्टगन्ध से बना कर रेखांकित की गई आकृति जो देवों के आह्वान को दर्शाती है,  उत्तराखंड के कुमाऊं में किसी भी मांगलिक कार्य के अवसर पर अपने अपने घरों को सजाने की परंपराहै। इसमें वह प्राकृतिक रंगो जैसे गेरू एवं पिसे हुए चावल के घोल (बिस्वार) से विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। लोक कला की इस स्थानीय शैली को ऐपण कहा जाता है।

भारत के नए संसद भवन में कुमाऊं की ऐपण कला को स्थान दिया गया है। अब देशभर के सांसद उत्तराखंड की प्रसिद्ध लोककला को देखेंगे और इसके बारे में जानने के लिए उत्सुक होंगे। ऐपण कला के संरक्षण और संवर्धन के लिए कार्य कर रहीं मुक्तेश्वर की हेमलता कबडवाल ने भारत के विभिन्न प्रदेशों के कलाकारों के साथ मिलकर संसद भवन के लिए वॉल पेंटिंग बनाई है।

ऐपण का अर्थ लीपने से होता है और लीप शब्द का अर्थ अंगुलियों से रंग लगाना है। पारम्परिक उत्तराखंड की अमूल्य धरोहर लोककला ऐपण को मुख्यद्वार की देहली तथा विभिन्न अवसरों पर पूजा विधि के अनुसार अथवा अनुष्ठान के मुताबिक देवी – देवता के आसान, पीठ, भद्र आदि अंकित करते हैं।
जिनमें शिव पीठ, लक्ष्मी पीठ, आसन, लक्ष्मी नारायण, चिड़िया चौकी, नव दुर्गा चौकी, आसन चौकी, चामुंडा हस्त चौकी, सरस्वती चौकी, जनेऊ चौकी, शिव या शिवचरण पीठ, सूर्य दर्शन चौकी, स्यो ऐपण, आचार्य चौकी, विवाह चौकी, धूलिअर्घ्य चौकी, ज्योति पट्टा हैं।

लक्ष्मी के पैरो के बिना ऐपण अधूरे माने जाते है। अनामिका और मध्यमा उँगलिओं को बिस्वार (चावल के आटे) में डुबोकर जमीन पर लिपे लाल गेरू (मिट्टी) पर शुभ और मांगलिक कार्यों मे महिलाओं द्वारा उकेरा जाता है।

  सांस्कृतिक परम्पराओं में विभिन्न प्रकार की लोक कलाओं का उल्लेख है। उन्ही में से एक प्रमुख कला ऐपण भी है। ऐपण कला का अर्थ होता है, लीपना या अंगुलियों से आकृति बनाना । ऐपण एक प्रकार की अल्पना या आलेखन या रंगोली होती है, जिसे उत्तराखंड कुमाऊँ क्षेत्र के निवासी अपने शुभकार्यो मे इसका चित्रांकन करते हैं। उत्तराखंड की स्थानीय चित्रकला की शैली को ऐपण के रूप में जाना जाता है। मुख्यत: ऐपण उत्तराखंड में शुभ अवसरों पर तथा त्योहारों व संस्कारो पर अपने घरों के मुख्य द्वार, और मंदिर को सजाने की परंपरा पौराणिक रही है। इन जगहों को सजाने के लिए, भीगे चावल पीस कर, जिन्हें विस्वार कहते हैं, और गेरू, लाल मिट्टी का प्रयोग किया जाता रहा है। वर्तमान में गेरू और विस्वार कि जगह, लाल और सफेद आयल पेंट ने ले ली है, मगर ऐपण कला वही है, और इसका महत्व कभी कम नही हुआ है। 

ऐपण कई तरह के कलात्मक डिजायनों में बनाया जाता है। अंगुलियों और हथेलियों का प्रयोग करके अतीत की घटनाओं, शैलियों, अपने भाव विचारों और सौंदर्य मूल्यों पर विचार कर इन्हें संरक्षित किया जाता है। जिसे देख मन मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, और सकारात्मक शक्तियों के आवाहन का आभास होता है, वह उत्तराखंड की पारम्परिक और पौराणिक लोक कला ऐपण है।

ऐपण कला की उत्पत्ति उत्तराखंड के अल्मोड़ा से हुई है, जिसकी स्थापना चंद राजवंश के शासनकाल के दौरान हुई थी । यह कुमाऊं क्षेत्र में चंद वंश के शासनकाल के दौरान फला-फूला । डिजाइन और रूपांकन समुदाय की मान्यताओं और प्रकृति के विभिन्न पहलुओं से प्रेरित हैं। चिकित्सकों का मानना ​​​​है कि यह एक दैवीय शक्ति का आह्वान करता है जो सौभाग्य लाता है ऐपण कला उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल की विशिष्ट पहचान है। ऐपण कला उत्तराखंड की पुरानी और पौराणिक कला है। ऐपण कला के माध्यम से देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है ,या यूं कह सकते हैं, कि ऐपण में रेखांकित किये गए चित्र, सकारात्मक शक्तियों के आवाहन के लिए बनाए जाते हैं।

उत्तराखंड के कुमाउनी संस्कृति में, अलग अलग मगलकार्यो, और देवपूजन हेतु, अलग-अलग  प्रकार के ऐपण बनाये जाते हैं। जिससे यह सिद्ध होता है, कि ऐपण एक साधारण कला, या रंगोली न होकर एक आध्यात्मिक कार्यो में योगदान देने वाली महत्वपूर्ण कला है। जिसके प्रमुख रूप निम्न हैं –

वसोधरा ऐपण   यह ऐपण मुख्यतः घर की सीढ़ियों, देहली, मंदिर की दीवारों तथा तुलसी के पौधे के गमले या मंदिर, ओखली और हवन कुंडों पर उकेरे जाते हैं। देहली पर वसोधरा ऐपण आदर,और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।

भद्र ऐपण- भद्र ऐपण मुख्यतः दरवाजो की देलि पर तथा मंदिरों की बेदी पर अंकित किये जाते हैं। मंदिरों की बेदी पर बारह बूद भद्र ऐपण काफी लोकप्रिय है।इन ऐपणों के अतिरिक्त , पूजा अनुष्ठान और त्योहारों के अनुसार निम्न प्रकार के ऐपणों का प्रयोग किया जाता है,
शिव पीठ ऐपण, लक्ष्मी पीठ ऐपण, नाता ऐपण, लक्ष्मी आसन ऐपण, लक्ष्मी नारायण ऐपण, चिङिया चौकी, नवदुर्गा चौकी, आसन चौकी , चामुंडा हस्त चौकी, सरस्वती चौकी, जनेऊ चौकी, शिवचरण पीठ ऐपण, सूर्य दर्शन चौकी, स्यो ऐपण, आचार्य चौकी , विवाह चौकी, धूलिअर्घ चौकी, ज्योतिपट्टा, लक्ष्मी पग

 इन ऐपणों को पूजा पाठ, जनेऊ संस्कार, नामकरण संस्कार, एवं विवाह संस्कारो में प्रयोग किया जाता है। बिना लक्ष्मी पगचिन्हों के, ऐपण अधूरे माने जाते हैं। ऐपण कला कपड़ो पर भी की जाती है। यह मुख्यतः उत्तराखंड कुमाऊँ की पहचान पिछोड़ा पर की जाती है। पहले हाथ से की जाती थी, अब printetd pichhoda मिलने लगे हैं, तो ऐपण का यह रूप कम हो गया है।

उत्तराखंड की सांस्कृतिक परम्पराओं में विभिन्न प्रकार की लोक कलाओं का उल्लेख है। उन्ही में से एक प्रमुख कला ऐपण भी है। ऐपण कला का अर्थ होता है, लीपना या अंगुलियों से आकृति बनाना । ऐपण एक प्रकार की अल्पना या आलेखन या रंगोली होती है, जिसे उत्तराखंड कुमाऊँ क्षेत्र के निवासी अपने शुभकार्यो मे इसका चित्रांकन करते हैं। उत्तराखंड की स्थानीय चित्रकला की शैली को ऐपण के रूप में जाना जाता है। मुख्यत: ऐपण उत्तराखंड में शुभ अवसरों पर तथा त्योहारों व संस्कारो पर अपने घरों के मुख्य द्वार, और मंदिर को सजाने की परंपरा पौराणिक रही है। इन जगहों को सजाने के लिए, भीगे चावल पीस कर, जिन्हें विस्वार कहते हैं, और गेरू, लाल मिट्टी का प्रयोग किया जाता रहा है। वर्तमान में गेरू और विस्वार कि जगह, लाल और सफेद आयल पेंट ने ले ली है, मगर ऐपण कला वही है, और इसका महत्व कभी कम नही हुआ है। 

ऐपण कई तरह के कलात्मक डिजायनों में बनाया जाता है। अंगुलियों और हथेलियों का प्रयोग करके अतीत की घटनाओं, शैलियों, अपने भाव विचारों और सौंदर्य मूल्यों पर विचार कर इन्हें संरक्षित किया जाता है। जिसे देख मन मस्तिष्क में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, और सकारात्मक शक्तियों के आवाहन का आभास होता है, वह उत्तराखंड की पारम्परिक और पौराणिक लोक कला ऐपण है।

ऐपण कला पारम्परिक कला है, इसे सीखने के लिए किसी स्कूल या संस्थान में जाने की जरूरत नही पड़ती। बल्कि इसे एक पीढ़ी अपनी आने वाली पीढ़ी को एक धरोहर के रूप में सिखाती है। एक माँ अपने बच्चों को मदद कराने के बहाने, धीरे धीरे ये कला सिखाती है, जब वो इस कला में पारंगत हो जाते हैं, तो पूरा कार्यभार उनके ऊपर छोड़ देती है। इस प्रकार पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला चलती आ रही हैं।

उत्तराखंड के कुमाउनी संस्कृति में, अलग अलग मगलकार्यो, और देवपूजन हेतु, अलग-अलग  प्रकार के ऐपण बनाये जाते हैं। जिससे यह सिद्ध होता है, कि ऐपण एक साधारण कला, या रंगोली न होकर एक आध्यात्मिक कार्यो में योगदान देने वाली महत्वपूर्ण कला है। जिसके प्रमुख रूप निम्न हैं –

वसोधरा ऐपण –  यह ऐपण मुख्यतः घर की सीढ़ियों, देहली, मंदिर की दीवारों तथा तुलसी के पौधे के गमले या मंदिर, ओखली और हवन कुंडों पर उकेरे जाते हैं। देहली पर वसोधरा ऐपण आदर,और खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।

भद्र ऐपण- भद्र ऐपण मुख्यतः दरवाजो की देलि पर तथा मंदिरों की बेदी पर अंकित किये जाते हैं। मंदिरों की बेदी पर बारह बूद भद्र ऐपण काफी लोकप्रिय है।इन ऐपणों के अतिरिक्त , पूजा अनुष्ठान और त्योहारों के अनुसार निम्न प्रकार के ऐपणों का प्रयोग किया जाता है,

 शिव पीठ ऐपण, लक्ष्मी पीठ ऐपण, नाता ऐपण, लक्ष्मी आसन ऐपण, लक्ष्मी नारायण ऐपण, चिङिया चौकी, नवदुर्गा चौकी, आसन चौकी , चामुंडा हस्त चौकी, सरस्वती चौकी, जनेऊ चौकी, शिवचरण पीठ ऐपण, सूर्य दर्शन चौकी, स्यो ऐपण, आचार्य चौकी , विवाह चौकी, धूलिअर्घ चौकी, ज्योतिपट्टा, लक्ष्मी पग

 इन ऐपणों को पूजा पाठ, जनेऊ संस्कार, नामकरण संस्कार, एवं विवाह संस्कारो में प्रयोग किया जाता है। बिना लक्ष्मी पगचिन्हों के, ऐपण अधूरे माने जाते हैं। ऐपण कला कपड़ो पर भी की जाती है। यह मुख्यतः उत्तराखंड कुमाऊँ की पहचान पिछोड़ा पर की जाती है। पहले हाथ से की जाती थी, अब printetd pichhoda मिलने लगे हैं, तो ऐपण का यह रूप कम हो गया है।

ऐपण संस्कृत के लेपना शब्द से लिया गया है , जिसका अर्थ है प्लास्टर । एपन कला भारत के विभिन्न क्षेत्रों में समान है, इसे अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है।


एपोना ( बंगाल और असम में )
अरिपन ( बिहार और उत्तर प्रदेश में )
मंदाना ( राजस्थान और मध्य प्रदेश में )
रंगोली ( गुजरात और महाराष्ट्र में )
कोलम ( दक्षिण भारत में )
मुग्गू ( आंध्र प्रदेश में )
अल्पना ( ओडिशा में चिता, झोटी और मुरुजा में )
भुग्गुल ( आंध्र प्रदेश में )

ऐपण हमारी परम्परा में मंगल कार्यों से जुड़ा हुआ अभिन्न अंग है। जब तक हम अपने त्यौहार ,मंगल कार्य अपनी रीति रिवाज व परम्परा के अनुसार मनाएंगे ,तो हम अपनी लोककला ऐपण से भी जुड़े रहेंगे। वर्तमान में हर वस्तु रेडीमेड की चाह में ऐपण का भी व्यवसायीकरण हो रहा है। ऐपण अब धीरे धीरे स्टिकर के रूप में मिलने लगे हैं। या लोग उन्हें आयल पेंट से बनाने लगे हैं।

इन नए अल्पनाओं में समय की बचत, आकर्षक रंग हैं। लेकिन वो आध्यत्मिक शक्ति नही है, जो भूतत्व चावल के विस्वार और लाल मिट्टी में होती है। आधुनिक व्यवसायी अल्पनाओं में ,वो कार्यसफल करने की शक्ति नहीं है। वो उत्त्साह, वो मनोयोग, वो धीरज नही है, जो पारम्परिक ऐपणों में होता है। अतएव हमे यदि अपनी पारम्परिक कला का आधुनिकीकरण उसके मूल तत्व को संरक्षित करके करें तो यह सर्वथा उचित होगा|

h उद्देश्य एपन कला को पुनर्जीवित करना है। यह परियोजना कुमाऊं में ग्रामीण परिवारों की महिलाओं के लिए आय अर्जित करती है। यह परियोजना ऐसे घरों की महिलाओं को रोजगार देती है जो ऐपण का उत्पादन करती हैं और अपने ग्राहकों को थोक ऑर्डर देती हैं। मिनाक्षी खाती ने युवाओं में ऐपन कला को बढ़ावा देने के लिए सेल्फी विद ऐपन की शुरुआत की है।

विभिन्न सांस्कृतिक और धार्मिक उत्पादों जैसे ऐपन कला के घरेलू उत्पादकों की रक्षा के लिए, भारत सरकार ने 1860 में सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत उत्तराखंड हथकरघा और हस्तशिल्प विकास परिषद (यूएचएचडीसी) की स्थापना की । इसका उद्देश्य घरेलू कला उत्पादों को बढ़ावा देकर रोजगार के लगातार अवसर पैदा करना है।

उत्तराखंड की अनूठी लोक विधा ऐपण (अल्पना)। ऐसी अद्भुत कला जो सदियों से ईश्वरीय शक्ति की अनुभूति कराती आ रही। ऐपण कला में डूब कलात्मक सोच को विकसित भी करती है। हरेक तीज त्योहार, धार्मिक कार्यक्रम हों या जन्म, नामकरण एवं विवाह की रस्म ऐपण के बाद ही शुरू होती है। हालांकि आधुनिकता की बयार में ऐपण कला की जगह अब कंप्यूटराइज्ड छपे छपाए पोस्टर व स्टिकर ने ले ली है। इसके बावजूद गांवों में बुजुर्ग महिलाएं जहां विरासत में मिली विशिष्टï लोकविधा को जिंदा रखे हैं। वहीं युवा पीढ़ी अब ऐपण कला को नए अंदाज में बढ़ावा देने में जुटे हैं बल्कि भावी पीढ़ी को प्रेरित भी कर रही। 

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