कोरोना का कवरेज कोड़ा मारने जैसा; दहशत फैलाते हिंदी चैनल्स

दुनिया दहशत में है। कोरोना काल बन गया है। मौत से अधिक मौत का डर है। भय के भूत की तरह। हर बड़े मुद्दे पर गैर जिम्मेदारी दिखाता हिंदी टीवी मीडिया। एक-दो चैनल छोड़ दें तो ज्यादातर कोरोना का कवरेज कोड़ा मारने जैसा कर रहे हैं। सूचनाएं इस अंदाज में परोसी जा रही हैं कि दर्शक का ब्लड प्रेशर बढ़ जाए। कमजोर दिल वालों को आघात का खतरा। अगर ऐसा ही कवरेज करना है तो एक सूचना पट्टी भी साथ में प्रदर्शित कर दें कि कमजोर दिल वाले कोरोना की खबरें नहीं देखें। समाचार देते समय बैकग्राउंड संगीत नहीं सुनाया जाता। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह स्थापित पैमाना है, लेकिन कोरोना की खबरें दिखाते समय सस्पेंस,सनसनी,साजिश भरा या भय संगीत क्यों सुनाया जाना चाहिए?

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार।।

कोरोना की इस भयावह कवरेज में हिंदी चैनल्स की तुलना में अंग्रेजी चैनल्स ने अधिक जिम्मेदारी, संयम, विश्लेषण, गहराई तक जाकर विवेचन और दर्शकों को जागरूक करने का काम किया है। हिंदी चैनल्स पल पल आती जानकारियों को डर का तड़का लगाकर पेश कर रहे हैं तो अंग्रेजी चैनल्स उसी खबर को धैर्यपूर्वक और बचाव के तरीकों के साथ दे रहे हैं। संसार भर से आ रही सूचनाओं की बारीक पड़ताल करने की जरूरत तक नहीं समझी गई। इससे बेहतर तो अनेक भाषाई चैनल्स ने इन समाचारों को अपने दर्शकों के समक्ष रखा। तेलुगू,तमिल,बांग्ला,कन्नड़ और मराठी भाषी चैनल्स ने कोरोना पर बेहतर और लोगों को जागरूक करने वाली सामग्री प्रस्तुत की है।

कुछ चैनलों ने तो इस कठिन दौर को अंधविश्वास फैलाने का जरिया बना लिया है। एक चैनल ने दिखाया कि कोरोना से बचने के लिए गायत्री मंत्र का जाप करें तो दूसरे चैनल ने कहा कि मस्जिदों में मुस्लिमों को सच्चे दिल से नमाज पढ़नी चाहिए। तीसरे चैनल ने एक स्थान पर हो रहे यज्ञ और अनुष्ठान को कोरोना से बचाव का सर्वश्रेष्ठ उपाय साबित कर दिया। एक रीजनल चैनल ने गंडा-ताबीज का प्रमोशन शुरू कर दिया। यह क्या है? हिंदी पट्टी के दर्शकों को इतना अनपढ़ और बेवकूफ समझने की क्या वजह है? किसी जिम्मेदार चैनल संचालक और संपादक के पास कोई उत्तर है कि वे अपने प्रसारण संस्थान से इस तरह की खबरों का उत्पादन क्यों कर रहे हैं?

करीब पैंतालीस साल पहले रूसी उपग्रह स्काईलेब के अंतरिक्ष से टूटकर गिरने की खबरों पर उन दिनों अखबारों ने हौवा खड़ा कर दिया था। कुछ बरस पहले स्वाइन फ्लू का आतंक जैसे कहर बनकर छोटे परदे पर बरपा था। सवाल यह है कि कहीं अनजाने में हम डर और आतंक को भी पत्रकारिता का अनिवार्य टूल तो नहीं बनाते जा रहे हैं? इसे ध्यान में रखना होगा मिस्टर मीडिया!

सााभार-

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