अदभुत- अलौकिक :- देहरादून मे रेलवे की नौकरी, देहरादून मे महावतार बाबा का आगमन, फिर रानीखेत तबादला, द्रोंणागिरी पर्वत मे साधना, और दुनिया के सबसे बड़े ‘योगीराज’ – हिमालय के योगी

HIGH LIGHT # अदभुत- अलौकिक :- देहरादून मे रेलवे की नौकरी, देहरादून मे महावतार बाबा का आगमन, फिर रानीखेत तबादला, द्रोंणागिरी पर्वत मे साधना, और दुनिया के सबसे बड़े ‘योगीराज’ कैसे बन गए? # गुरु महाराज बोले: – मैं ब्रह्मा हूं   परमहंस योगानंद के गुरु के गुरु लाहिड़ी महाराज: # उनकी मर्जी के बिना उनका फोटो नहीं खींचा जा सका था। # चमत्कार का अहसास होते ही अंग्रेज इनके पैरो में गिरकर माफी मांगने लगा # महावतार बाबा ने 1861 में रानीखेत में लाहिड़ी महाशय को दीक्षा प्रदान की. योगावतार लाहिड़ी महाशय(1828-1895)उन्नीसवीं सदी के बाबा जी के शिष्य थे. जिनके अद्भुत जीवन का वृतांत परमहंस योगानंद की पुस्तक “एक योगी की आत्मकथा में मिलता है. # तब लाहिड़ी महाशय 33 वर्ष के गृहस्थ थे और दानापुर के सैनिक इंजीनियरिंग विभाग के एकाउंटेंट पद पर कार्यरत थे. एक दिन सुबह उनके मैनेजर ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम्हारा ट्रांसफर रानीखेत हो गया है. आदेश के अनुपालन में पांच सौ मील की यह यात्रा उन्होंने तीस दिन में पूरी की और रानीखेत पहुंचे जो अल्मोड़ा जिले में हिमालय की सर्वोच्च चोटी नंदादेवी (25,661फुट )की तलहटी पर स्थित था.

1861 में क्रिया योग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्यों की कोलाहल भरी बस्तियों की ओर बह चली.

By Chandra Shekhar Joshi Chief Editor www.himalayauk.org (Leading Web & Print Media) Publish at Dehradun & Haridwar. Mail; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030

नौकरी के दौरान उनकी पोस्टिंग देहरादून में हुई, जहां रेल की पटरियां बिछाने का काम किया जा रहा था। एक दिन रेल की पटरी बिछवा रहे थे, अचानक एक आवाज आई, ‘श्यामा इधर आओ’। अगले दिन फिर यही आवाज आई तो वह आवाज के पीछे-पीछे चल पड़े। काफी दूर पहाड़ों के बीच लाहिरी की मुलाकात एक बाबा से हुई, जिसे वह ‘महावतार बाबा’ के नाम से बुलाते थे।

बाबा ने लाहिरी को पूर्व जन्म के बारे में बताया, ‘पिछले जन्म में आपकी साधना अधूरी रह गई थी, जिसे अब पूरा करने का समय आ गया है।’ बाबा ने लाहिरी के पूर्व जन्म के आसन, चटाई और समान दिखाए।

इसके बाद दीक्षा देकर अपने साथ द्रोणगिरि पर्वत के खोह में लेकर गए। कई सालों तक साधना पूरी करने के बाद गुरु आज्ञा से लाहिरी वापस काशी आए और अंतिम समय तक नौकरी के बाद शिव भक्ति के साथ-साथ साधु लोगों को ‘क्रिया योग’ की दीक्षा देते रहे।

तब लाहिड़ी महाशय 33 वर्ष के गृहस्थ थे और दानापुर के सैनिक इंजीनियरिंग विभाग के एकाउंटेंट पद पर कार्यरत थे. एक दिन सुबह उनके मैनेजर ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम्हारा ट्रांसफर रानीखेत हो गया है. आदेश के अनुपालन में पांच सौ मील की यह यात्रा उन्होंने तीस दिन में पूरी की और रानीखेत पहुंचे जो अल्मोड़ा जिले में हिमालय की सर्वोच्च चोटी नंदादेवी (25,661फुट )की तलहटी पर स्थित था.

जीवन परिवर्तन : 23 नबंबर 1868 को इनका तबादला हेड क्लर्क के पद पर रानीखेत (अल्मोड़ा) के लिए हो गया। प्राकृतिक छटा से भरपूर पर्वतीय क्षेत्र उनके लिए वरदान साबित हुआ। एक दिन श्यामाचरण निर्जन पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे तभी अचानक किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा। श्यामाचरण ने देखा कि एक संन्यासी पहाड़ी पर खड़े थे। वे नीचे की ओर आए और कहा- डरो नहीं, मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में गुप्त रूप से तुम्हें रानीखेत तबादले का विचार डाला था। उसी रात श्यामाचरण को द्रोणागिरि की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में बुलाकर दीक्षा दी। दीक्षा देने वाला कोई और नहीं, कई जन्मों से श्यामाचरण के गुरु महावतार बाबाजी थे।

गुरु महाराज बोले: – मैं ब्रह्मा हूं   परमहंस योगानंद के गुरु के गुरु लाहिड़ी महाराज: # उनकी मर्जी के बिना उनका फोटो नहीं खींचा जा सका था।

रेलवे में क्लर्क की नौकरी करने वाले लाहिरी कैसे ‘योगीराज’ बन गए और ‘क्रिया योग’ से अपने ब्रि‍टि‍श अफसर को पैरों में गिरकर माफी मांगने पर मजबूर कर दिया था।

लाहिड़ी महाराज का जो फोटो उपलब्ध है, वह उनकी एकमात्र तस्वीर है। इसके पहले और बाद में उनकी कोई फोटो नहीं है परमहंस योगानंद के जन्म के कुछ समय बाद ही लाहिड़ी महाराज दुनिया से विदा हो गए थे। लाहिड़ी महाराज ने उनके पिता भगवती चरण घोष को अपना एक फोटो दिया था, जो योगानंद के पूजा घर में रखा था। वह अपने माता-पिता को उसकी पूजा करते देखते थे।

परमहंस योगानंद को इस फोटो की कहानी उनके पिता के गुरुभाई कालीकुमार राय ने सुनाई थी। उन्होंने बताया था की बड़े गुरुजी का पूरा नाम श्याम चरण लाहिड़ी था। उन्होंने योगानंद को बताया कि वह और लाहिड़ी महाराज के कुछ शिष्य उनके न चाहते हुए भी एक ग्रुप फोटो खींची। पर उस समय लोग हैरान रह गए जब फोटो बनकर आई। उसमें बाकी सभी लोग तो साफ-साफ नजर आ रहे थे, पर जिस जगह पर लाहिड़ी महाराज खड़े थे, वह जगह बिल्कुल खाली नजर आ रही थी। जैसे ही लोगों को इस बात की जानकारी लगी तरह-तरह की चर्चा होने लगी।

उसी समय एक प्रसिद्ध फोटोग्राफर गंगाधर बाबू हुआ करते थे। जब ये बात उनको मालूम चली तो उन्होंने भी बड़े अभिमान से कहा- लाहिड़ी महाशय कुछ भी कर लें। वह उन्हें अपने कैमरे में कैद कर सकते हैं। अगले दिन वह फोटो खींचने उनके घर पहुंच गए। लाहिड़ी महाराज पद्मासन में लकड़ी की बैंच पर ध्यान कर रहे थे। गंगाधर बाबू भी पूरी तैयारी से आए थे। उन्होंने फोटो खींचने से पहले लाहिड़ी महाराज के पीछे एक पर्दा लगा दिया। हर तरह की सावधानी और नियमों का पालन करते हुए उन्होंने लाहिड़ी महाराज के 12 फोटो खींचे।

लेकिन थोड़ी देर बाद जब फोटो की प्लेट को गंगाधर बाबू ने देखा तो उनके होश उड़ गए। प्लेट पर लकड़ी की बैंच और पर्दे का फोटो तो साफ नजर आ रहा था। लेकिन लाहिड़ी महाराज कहीं नजर नहीं आ रहे थे। इस घटना के बाद गंगाधर बाबू रोते हुए लाहिड़ी महाराज के पास पहुंचे। ध्यान में बैठे लाहिड़ी महाराज ने उनसे कहा- ‘मैं ब्रह्मा हूं। क्या तुम्हारा कैमरा सर्वव्यापी अगोचर का फोटो खींच सकता है’?

इसपर गंगाधर बाबू ने कहा- ‘नहीं। परंतु आपके देह रूपी मंदिर की एक फोटो लेने की इच्छा है। मेरी दृष्टि बहुत संकुचित रही है, मैं यह नहीं समझ पाया कि आप में पूरी तरह से ब्रह्मा का वास है।’ इतना सुनने के बाद लाहिड़ी महाराज ने गंगाधर बाबू से कहा- ‘तुम कल सुबह आओ, मैं तुम्हारे कैमरे के सामने बैठकर फोटो खिंचवा लूंगा।’ दूसरे दिन गंगाधर बाबू फोटो लेने पहुंच गए। लाहिड़ी महाराज ने उन्हें अपना फोटो लेने दिया। इस फोटो के बाद लाहिड़ी महाराज ने कभी अपनी कोई फोटो नहीं खिंचवाई।

श्याम चरण लाहिड़ीजी का जन्म 30 सितम्बर 1828 घुरनी ग्राम, बंगाल में हुआ था। 26 सितम्बर 1895 में उनका निधन हो गया था।

रेलवे में क्लर्क की नौकरी करने वाले लाहिरी कैसे ‘योगीराज’ बन गए और ‘क्रिया योग’ से अपने ब्रि‍टि‍श अफसर को पैरों में गिरकर माफी मांगने पर मजबूर कर दिया था। इनका कारनामा देख पैरों में गिरा था अंग्रेज, क्लर्क से बने वर्ल्ड के सबसे बड़े ‘योगीराज’ , ब्रि‍टि‍श अफसर को पैरों में गिरकर माफी मांगने पर मजबूर कर दिया था। चमत्कार का अहसास होते ही —

– वाराणसी के दानापुर में रेलवे क्लर्क की नौकरी के दौरान लाहिरी का एक ब्रि‍टि‍श अफसर बहुत परेशान था। अपने तप से उन्होंने उसकी परेशानी का अंदाजा लगा लिया। – अफसर के पास पहुंचकर लाहिरी ने कहा, “आप परेशान मत होइए। इंग्लैंड में आपकी पत्नी एकदम ठीक है। मैं अभी-अभी वहीं से देख कर आ रहा हूं।” – इस पर अधिकारी ने इन्हें पागल समझ कर नौकरी से बर्खास्त कर दिया, लेकिन ये अपनी नौकरी पर रोज आकर अधिकारी के गेट के बाहर खड़े रहते थे। – कुछ दिनों बाद इंग्लैंड से अधिकारी की पत्नी आई। गेट पर इन्हें खड़ा देख कर वो चौंक गई। उसने पति से कहा, “यह आदमी तो मेरे घर आया था और मेरा हालचाल पूछा था।” यह सुनते ही ब्रिटिश अधिकारी सोच में पड़ गया। उसने सोचा कि इसने तो कभी छुट्टी नहीं ली, यह इंग्लैंड गया कब। चमत्कार का अहसास होते ही अंग्रेज इनके पैरो में गिरकर माफी मांगने लगा।

नौकरी के दौरान उनकी पोस्टिंग देहरादून में हुई

नौकरी के दौरान उनकी पोस्टिंग देहरादून में हुई, जहां रेल की पटरियां बिछाने का काम किया जा रहा था। – एक दिन लाहि‍री रेल की पटरी बिछवा रहे थे, अचानक एक आवाज आई, ‘श्यामा इधर आओ’। अगले दिन फिर यही आवाज आई तो वह आवाज के पीछे-पीछे चल पड़े। काफी दूर पहाड़ों के बीच लाहिरी की मुलाकात एक बाबा से हुई, जिसे वह ‘महावतार बाबा’ के नाम से बुलाते थे। – बाबा ने लाहिरी को पूर्व जन्म के बारे में बताया, ‘पिछले जन्म में आपकी साधना अधूरी रह गई थी, जिसे अब पूरा करने का समय आ गया है।’ बाबा ने लाहिरी के पूर्व जन्म के आसन, चटाई और समान दिखाए। – इसके बाद दीक्षा देकर अपने साथ द्रोणगिरि पर्वत के खोह में लेकर गए। कई सालों तक साधना पूरी करने के बाद गुरु आज्ञा से लाहिरी वापस काशी आए और अंतिम समय तक नौकरी के बाद शिव भक्ति के साथ-साथ साधु लोगों को ‘क्रिया योग’ की दीक्षा देते रहे।

मुर्दे में डाल दी जान — चमत्कार का अहसास

एक बार श्यामा जी के एक शिष्य का मित्र मरणासन्न हो गया। शिष्य मित्र की जान बचाने की गुहार लेकर इनके पास आया। तब श्यामा जी ध्यानमग्न थे। – वो बार-बार अपने मित्र की दुहाई देकर आंखें खोलने के लिए बोलता रहा, लेकिन उनकी आंखें नहीं खुलीं। कुछ देर बाद जब लाहिरी जी जागे, तब तक शिष्य के मित्र का प्राण पखेरू उड़ चुके थे। – इस पर शिष्य ने ताना देते हुए कहा, “कुछ देर पहले आंखें खोल देते, तो मेरा मित्र बच जाता।” इस श्यामा जी ने कहा, “अपने मित्र के मुंह में जलते दीपक का एक चम्मच तेल डाल दो। उठकर बैठ जाएगा।

श्यामाचरण लाहिड़ी ने 1864 में काशी के गरूड़ेश्वर में मकान खरीद लिया फिर यही स्थान क्रिया योगियों की तीर्थस्थली बन गई। योगानंद को पश्‍चिम में योग के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ही चुना। कहते हैं कि शिर्डी सांईं बाबा के गुरु भी लाहिड़ी बाबा थे। लाहिड़ी बाबा से संबंधित पुस्तक ‘पुराण पुरुष योगीराज श्यामाचरण लाहिड़ी’ में इसका उल्लेख मिलता है। इस पुस्तक को लाहिड़ीजी के सुपौत्र सत्यचरण लाहिड़ी ने अपने दादाजी की हस्तलिखित डायरियों के आधार पर डॉ. अशोक कुमार चट्टोपाध्याय से बांग्ला भाषा में लिखवाया था। बांग्ला से मूल अनुवाद छविनाथ मिश्र ने किया था।

ऐसा कहा जाता है कि महावतार बाबा ने आदिशंकराचार्य को क्रिया योग की शिक्षा दी थी और बाद में उन्होंने संत कबीर को भी दीक्षा दी थी। इसके बाद प्रसिद्ध संत लाहिड़ी महाशय को उनका शिष्य बताया जाता है। इसका जिक्र लाहिड़ी महाशय के शिष्य स्वामी युत्तेश्वर गिरि के शिष्य परमहंस योगानंद ने अपनी किताब ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी’ (योगी की आत्मकथा, 1946) में किया है। लाहड़ी महाशय के चमत्कार के कई किस्से हैं, परंतु उन्हें यहां प्रकट नहीं कर सकते हैं। फिर किसी लेख में। आओ जानते हैं लाहड़ी महाशय के बारे में खास बातें।

महावतार बाबा के शिष्य : लाहड़ी महाशय को महावतार बाबा का शिष्य माना जाता है। परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युत्तेश्वर गिरि लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे।

जन्म : श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म 30 सितंबर 1828 को पश्चिम बंगाल के कृष्णनगर के घुरणी गांव में हुआ था। योग में पारंगत पिता गौरमोहन लाहिड़ी जमींदार थे। मां मुक्तेश्वरी शिवभक्त थीं। शिक्षा और नौकरी : काशी में उनकी शिक्षा हुई। विवाह के बाद नौकरी की। 23 साल की उम्र में इन्होंने सेना की इंजीनियरिंग शाखा के पब्लिक वर्क्स विभाग में गाजीपुर में क्लर्क की नौकरी कर ली।

जीवन परिवर्तन : 23 नबंबर 1868 को इनका तबादला हेड क्लर्क के पद पर रानीखेत (अल्मोड़ा) के लिए हो गया। प्राकृतिक छटा से भरपूर पर्वतीय क्षेत्र उनके लिए वरदान साबित हुआ। एक दिन श्यामाचरण निर्जन पहाड़ी रास्ते से गुजर रहे थे तभी अचानक किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा। श्यामाचरण ने देखा कि एक संन्यासी पहाड़ी पर खड़े थे। वे नीचे की ओर आए और कहा- डरो नहीं, मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में गुप्त रूप से तुम्हें रानीखेत तबादले का विचार डाला था। उसी रात श्यामाचरण को द्रोणागिरि की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में बुलाकर दीक्षा दी। दीक्षा देने वाला कोई और नहीं, कई जन्मों से श्यामाचरण के गुरु महावतार बाबाजी थे।

परमहंस योगानंद की पुस्तक “एक योगी की आत्म कथा” से लोगों को महावतार बाबा का परिचय ज्ञात हुआ. योगानंद ने बताया कि महावतार बाबा युगो युगो से लोक कल्याण और जन मानस के आध्यात्मिक उत्थान हेतु जाग्रत हैं. लाहिड़ी महाशय ने उन्हें बाबाजी का नाम दिया और वह स्वयं बाबाजी के द्वारा क्रिया योग में दीक्षित हुए. लाहिड़ी महाशय के द्वारा ही सामान्य जनों के आत्म ज्ञान एवं उनके उत्थान को सही क्रिया योग के अभ्यास द्वारा संभव एवं प्रवाह मान किया जा सकता है. — प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

FOR DETAILS;

‘श्यामा चरण इधर आओ ‘.

द्रोणा गिरि के पर्वतों में गूंजती यह ध्वनि सुनाई देती है. इस घने जंगल, विचरण कर रहे पशु पक्षियों के कलरव, जिधर दृष्टि डालो उधर हरियाली वाली उपत्यका में,उन्हें किसने जाना? नाम ले कर पुकारा. श्यामा चरण ने देखा कि पहाड़ की एक उन्नत चोटी पर आकर्षक एक व्यक्ति खड़ा था जो अब उनकी ही ओर चला आ रहा है. उसका सुडौल पुष्ट शरीर, लम्बी बांहें, माथे पर अद्भुत तेज और शांत दृष्टि में चुम्बकीय आकर्षण है. होठों पर मधुर मुस्कान है. इस अपार्थिव सौंदर्य मय प्रदेश में, ध्यानासीन घूर्जटी के तपोवन में, वन नीलिमा के मध्य पगडण्डी से ऊपर की ओर जाते पथ पर खड़े दिव्य पुरुष तक वह पहुँच गये. उन्हें ऐसा लगा कि एक लम्बे समय तक वह अपने घर से बिछुड़ गये थे. अनेक दिनों के बाद अब वह पिता की स्नेहसिक्त आँखों की छाया में आ कर खड़े हो गये हैं.प्रकृति के साथ इस पुरुष की तेज भरी प्रतीति का आकर्षण उन्हें यहाँ तक खींच लाया है.वह सन्यासी अब बाहें फैलाये उन्हें समीप आने का आमंत्रण दे रहा है. श्यामा चरण झुके और उन्होंने दंडवत प्रणाम किया.

उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में स्थित दूनागिरि की सघन पर्वत शृंखला में कुकुछीना स्थल की गुफाओं तक पहुंची श्यामा चरण लाहिरी की यात्रा का यह ऐसा चरम बिंदु था जहां उनके गुरु बाबाजी ने उन्हें बुलाया. श्यामाचरण का पूरा नाम श्यामाचरण लाहिरी था और उनके गुरु रहे बाबाजी. बाबाजी जो महावतार बाबा के रूप में प्रसिद्ध हुए. महावतार बाबा ने ही द्रोणागिरी की गुफा में श्यामा चरण लाहिरी को “क्रिया योग” की दीक्षा दी.

जीवन लघु हो या दीर्घ, है सौंदर्यमय, है आकर्षक ; बौद्धिक हो या शरीरी, निर्मित किया है अनंत सत्ता ने–हमारे लिए. यह अनंत सत्ता क्या है ? कहाँ है इसका आवास? सदियों से ये प्रश्न उठते रहे हैं. अनुत्तरित रह गये तब ‘ नेति नेति ‘ कह छोड़ दिया हमने. हमारी बौद्धिकता की परिधि यहीं तक है शायद. बौद्धिकता जहां बौनी हो जाये वहाँ जीवंत होते हैं शरीरी आयाम. हिमाच्छादित चोटियों,घने वनों प्रकृति की नयनाभिराम छवियों,आसमान में उग आए इंद्रधनुष, पहाड़ों की गोद में स्थित कंदराओं, गुफाओं की नीरव विश्रान्ति के मध्य उच्चतर संतोष के प्रतिमान हमें यह अनुभव कराते हैं कि सौंदर्यमय यह सप्तरंग हमारे भीतर ही है. सभी रंग बहु -आयामी हैं, बहु अर्थी हैं किन्तु चेतना सबकी समान है.यही सप्त रंगी चेतना कभी अकेले, कभी समवेत हमारे दरवाजे पर आ कर दस्तक देती है. संभवतः तभी क्रिया के योग का एक ऐसा प्रकाश मान योग पथ बनता है जिससे समूचे ज्ञान और संसार के उत्थान के मूल स्त्रोत का पता चलता है.

ऐसा ही स्थल महावतार की साधना स्थली द्रोणागिरी पर्वत श्रृंखला में दूनागिरि के समीप कुकुछीना की सुरम्य पहाड़ियों में स्थित है.बाबा जी जिनका वर्तमान जगत से सर्वप्रथम परिचय कराया योगावतार लाहिड़ी महाशय ने, फिर ज्ञानवतार श्री युक्तेश्वर जी ने और फिर परमहंस योगानंद ने जो क्रिया योग के मुक्ति प्रदायक विज्ञान को भारत से पश्चिमी जगत में ले गये.

इस सोच से कि एक ऐसा समय आएगा जब जिज्ञासु जिनका मन बाबाजी के विषय में जानने के लिए उत्सुक होगा उनके स्वरुप से परिचित होंगे. परमहंस योगानंद ने उनकी पहचान को ले कर ऐसे बहुत से संकेत दिए जो धीरे धीरे सामने आए . ऐसा सबसे महत्वपूर्ण संकेत उन्होंने अपनी आत्मकथा में दिया जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया कि बाबाजी तो उस महावतार के बहुत से नामों में से एक नाम है.यह भी स्पष्ट किया कि उन्हें दूसरे बहुत से नामों से भी बुलाया जाता है जो शैव मत से सम्बन्धित हैं. महावतार बाबा के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि, “उन्होंने अपने लिए एक सामान्य नाम चुना, बाबा जिससे पूज्य पिता का बोध होता है. लाहिड़ी महाशय के शिष्यों द्वारा उन्हें दिए गये दूसरे नाम हैं महामुनि बाबाजी महाराज, महायोगी, त्रयम्बक बाबा और शिव बाबा. स्पष्ट है कि लाहिड़ी महाशय और उनके शिष्य, बाबाजी को एक अवतार और शिव का रूप मानते थे. शिव के इस रूप की किसी सामान्य अवतार के रूप में व्याख्या नहीं हुई. उन्हें तो अति उच्च और शिव की अनश्वर अभिव्यक्ति के रूप में जाना गया. गुप्त रूप से और हिमालय के योगियों के लिए वह शिवगोरक्ष बाबाजी के नाम से जाने जाते हैं. आम लोग उन्हें गोरक्ष नाथ या गोरखनाथ कहते हैं.

लाहिड़ी महाशय के शिष्यों द्वारा उन्हें दिए गये दूसरे नाम हैं महामुनि बाबाजी महाराज, महायोगी, त्रयम्बक बाबा और शिव बाबा. स्पष्ट है कि लाहिड़ी महाशय और उनके शिष्य, बाबाजी को एक अवतार और शिव का रूप मानते थे. शिव के इस रूप की किसी सामान्य अवतार के रूप में व्याख्या नहीं हुई. उन्हें तो अति उच्च और शिव की अनश्वर अभिव्यक्ति के रूप में जाना गया. गुप्त रूप से और हिमालय के योगियों के लिए वह शिवगोरक्ष बाबाजी के नाम से जाने जाते हैं. आम लोग उन्हें गोरक्ष नाथ या गोरखनाथ कहते हैं.

परमहंस योगानंद के जीवन की कई घटनाओं से यही संकेत मिलते हैं कि महावतार बाबा ही गोरक्षनाथ हैं. परमहंस योगानंद के छोटे भाई, गोरा द्वारा लिखी किताब, “मेजदा” में उनके शैशव काल की कई घटनाओं का उल्लेख है. योगानंद के बचपन का नाम मुकुंद था और उन्हें ‘मेजदा’ भी कहते थे. योगानंद का जन्म गोरखपुर में हुआ. गोरखपुर गोरक्षनाथ के भक्तों के लिए पवन तीर्थ है जहां उनका मंदिर भी स्थापित है. योगानंद के माता पिता गोरक्ष नाथ के भक्त थे और हर रविवार या पवित्र दिनों में पूजन के लिए बालक मुकुंद को भी मंदिर ले जाते थे.एक रविवार घर में धार्मिक उत्सव होने के कारण गोरखनाथ के मंदिर जा पाना संभव न हुआ. घर में सुबह से ही काफी मेहमान आए हुए थे जब वह जाने लगे तो मां को लगा कि बड़ी देर से उन्होंने मुकुंद को कहीं देखा नहीं. अब उनकी ढूंढ खोज आरम्भ हुई. आखिर कार जब घर में वह कहीं न मिले तब मां ने पिता जी से कहा कि हर रविवार हम मंदिर जाते हैं. हो सकता है मुकुंद वहीं चला गया हो.अब उन्हें ढूंढ़ते मंदिर पहुंचे तो पाया कि बालक मुकुंद वहीं साधु की तरह ध्यान में लीन हैं.मंदिर भी घर से करीब एक किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पर था जो उस जैसे छोटे बच्चे के लिए काफी बड़ी दूरी थी.अब तो सुबह हो गई थी. जब मुकुंद ने आँखे खोली तो अपने चारों ओर जमा लोगों को देख चकित से दिखे. मंद मुस्कान के साथ उन्होंने पिताजी को देखा और उन्हें परेशान देख सिर झुका प्रणाम किया. पिता जी ने उनसे कहा, अब घर चलो. बहुत देर हो गई है. हम सब तो तुम्हें घर में न पा बहुत चिंतित हो गये थे. गोरखनाथ के प्रति मुकुंद की भक्ति अल्प आयु में ही उन्हें गोरक्ष नाथ का आशीर्वाद दे गई जिससे कालान्तर में उन्होंने पश्चिम में क्रिया योग के प्रचार प्रसार की ऊर्जा प्राप्त की. वह गोरखनाथ ही थे जो उनकी आत्म कथा में महावतार बाबा के नाम से जाने गये.

महावतार बाबा ने 1861 में रानीखेत में लाहिड़ी महाशय को दीक्षा प्रदान की. योगावतार लाहिड़ी महाशय(1828-1895)उन्नीसवीं सदी के बाबा जी के शिष्य थे. जिनके अद्भुत जीवन का वृतांत परमहंस योगानंद की पुस्तक “एक योगी की आत्मकथा में मिलता है.

श्यामा चरण लाहिरी का जन्म 30 सितम्बर 1828 में बंगाल के नादिया जिले के घुरनी गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ. बचपन में ही वह मातृ सुख से वंचित हो गए. बालक श्यामा चरण बचपन से ही कुछ विचित्र क्रिया-कलाप करते और ऐसे ही एकांतिक खेलों में रमे रहते. अपने सिर से नीचे के पूरे भाग को मिट्टी के भीतर कर लेते और इस अवस्था में बैठे रहते.18 वर्ष की आयु में ही उनका विवाह काशिमोनी के साथ हुआ और उनकी दो पुत्रियां व एक पुत्र हुआ.23 वर्ष की आयु में वह ब्रिटिश सरकार के सैन्य अभियांत्रिकी विभाग में लेखपाल के पद पर नियुक्त हुए.33 वें वर्ष में श्यामा चरण का स्थानांतरण उत्तर प्रदेश की सुरम्य नगरी रानीखेत की छावनी में हुआ. समीप ही द्रोणागिरी की अद्भुत पहाड़ियां थीं. दूनागिरी में ही कुकुछीना नामक स्थान के समीप एक प्राकृतिक गुफा में उनका संपर्क महावतार बाबा से हुआ जिन्होंने श्यामा चरण को क्रिया योग की दीक्षा प्रदान की. योगानंद के अनुसार श्यामाचरण लाहिरी महाशय का यह तेतिसवां वर्ष उनके जीवन की एक विलक्षण घटना थी जिससे समूचे जगत को क्रिया योग की प्राचीन विद्या को जानने समझने और लोकहितकारी होने का आभास हुआ. पौराणिक कथा है कि जिस प्रकार गंगा ने स्वर्ग से पृथ्वी पर उतर कर अपने त्रिषातुर भक्त भगीरथ को अपने दिव्य जल स्पर्श से संतुष्ट किया, उसी प्रकार 1861 में क्रिया योग रूपी दिव्य सरिता हिमालय की गुह्य गुफाओं से मनुष्यों की कोलाहल भरी बस्तियों की ओर बह चली.

महावतार बाबा से लाहिड़ी महाशय की भेंट की कहानी रानीखेत में दूनागिरि की पर्वतीय श्रृंखलाओं में स्थित कुकुछीना नामक स्थान में एक गुफा के समीप होती है. तब लाहिड़ी महाशय 33 वर्ष के गृहस्थ थे और दानापुर के सैनिक इंजीनियरिंग विभाग के एकाउंटेंट पद पर कार्यरत थे. एक दिन सुबह उनके मैनेजर ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम्हारा ट्रांसफर रानीखेत हो गया है. आदेश के अनुपालन में पांच सौ मील की यह यात्रा उन्होंने तीस दिन में पूरी की और रानीखेत पहुंचे जो अल्मोड़ा जिले में हिमालय की सर्वोच्च चोटी नंदादेवी (25,661फुट )की तलहटी पर स्थित था.

रानीखेत की नव निर्मित चौकी में ज्यादा काम न था सो लाहिड़ी महाशय यहाँ की सुरम्य पहाड़ियों में खूब भ्रमण करते. स्थानीय जनों से उन्हें पता चला कि इस समूचे क्षेत्र में एक से एक महान साधु -संतों का निवास है. उनके मन में ऐसी दिव्य विभूतियों से मिलने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई. एक दिन अपराह्न में जब वह रानीखेत से दूर द्वाराहाट की द्रोणागिरी पहाड़ियों में भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें ऐसा लगा कि कोई दूर से उन्हें उनका नाम ले कर पुकार रहा है. वह दूनागिरि की ऊँची पहाड़ियों पर चढ़ने लगे. यह चिंता भी थी कि ज्यादा ऊँचा चढ़ जाने पर अंधेरा हो जाने तक लौटेंगे कैसे.

आखिर पहाड़ी में ऊपर एक समतल स्थान तक वह पहुंचे जहां चारों ओर छोटी छोटी गुफाएं थीं. ओर उसी पहाड़ी के प्रस्तर खंड पर एक युवक मुस्कुराते हुए हाथ फैलाये खड़ा था जैसे कि स्वागत कर रहा हो. यह आश्चर्य ही था कि उसकी आकृति उनसे ही मिलती जुलती थी सिवाय उसके लम्बे ताँबई रंग के बालों के. स्नेह से भरे उस संत ने उन्हें पुकारा और कहा, ‘लाहिड़ी, तुम आ गये! आओ अब यहीं गुफा में विश्राम करो. मैंने ही तुम्हें पुकारा था.’ भीतर एक साफ सुथरी गुफा थी जिसमें कुछ ऊनी कम्बल और कमंडल रखे थे. युवक योगी ने एक कम्बल की ओर संकेत कर उनसे पूछा, ‘क्या तुम इस आसन को पहचानते हो ‘? लाहिड़ी महाशय जो पहाड़ में इतनी चढ़ाई चढ़ और फिर अचानक ही युवा संत के मिलने से किंचित भय विह्वल थे बोले, ‘नहीं,मैं नहीं जानता. अब मुझे वापस जाना है, नहीं तो रात हो जाएगी. कल सुबह ऑफिस में बहुत काम भी है ‘. उनकी बात सुन उस युवा संत ने अँग्रेजी में उत्तर दिया, ‘ऑफिस को तुम्हारे लिए यहाँ लाया गया है, न कि तुमको ऑफिस के लिए ‘. लाहिरी हतप्रभ हो गये. संत की बात जारी रही, ‘मालूम होता है कि मेरे तार का प्रभाव हुआ है ‘? लाहिड़ी यह बात समझ न पाए सो उन्होंने इसका अभिप्राय पूछा.

संत ने कहा, ” मेरा अभिप्राय उस तार से है, जिसके कारण तुम्हारा स्थानांतरण इस निर्जन प्रदेश में हुआ है. मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में यह प्रेरणा उत्पन्न की कि तुम्हारा स्थानांतरण रानीखेत के लिए कर दिया जाय. जब मनुष्य मानव -मात्र के साथ एकता अनुभव करता है, तब उसके लिए सभी मन संवाद – संचार के केंद्र बन जाते हैं. जिनके द्वारा वह इच्छानुसार कार्य कर सकता है.मैंने भी बस यही किया. अब यह गुफा तुमको सुपरिचित प्रतीत होती होगी “? लाहिरी हतबुद्धि हो मौन थे. अब वह युवा सन्यासी उनके पास आया और उनके कपाल पर अपने हाथो से स्पर्श के साथ मृदु आघात किया.उसके इस चुम्बकीय स्पर्श से जैसे मस्तिष्क में एक अद्भुत प्रवाह -तरंग उत्पन्न हो गई. उन्हें बहुत कुछ याद आने लगा. बीता हुआ बहुत कुछ याद आने लगा.पूर्व जन्म की मधुर स्मृतियाँ जाग्रत हो उठीँ . अरे ये तो मेरे गुरु हैं बाबाजी. यहीं इसी गुफा में मैं अनेक वर्षों तक रहा हूं.उन्हें ऐसा आभास हुआ.

 “तीन दशाब्दियों से भी अधिक समय से तुम्हारी यहाँ वापसी की प्रतीक्षा में हूं मैं “. बाबा अविरत बोल रहे थे.”तुम मुझे देख नहीं सकते थे, पर मेरी दृष्टि सदा तुम पर लगी हुई थी. जब तुमने माता के गर्भ में नियत काल पूरा कर शिशु रूप में जन्म लिया, तब भी मेरी दृष्टि तुम्हारे ऊपर थी. तुम बचपन में नदी की बालू में अपने छोटे शरीर को छुपाने का खेल करते थे. मैं तब भी वहाँ अदृश्य रूप से उपस्थित रहता था. महीनों महीनों वर्षों तक आज के इस शुभ दिन के लिए मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की है. अब तुम मेरे पास आ गये हो. ये देखो, यह ही है तुम्हारी प्रिय गुफा. तुम्हारे लिए मैंने इसे हमेशा साफ सुथरा रखा है. यह है तुम्हारा पवित्र कम्बल आसन, जिस पर बैठ तुम प्रति दिन ध्यान किया करते थे. और यह है वह पीतल की कटोरी जिससे तुम मेरे द्वारा बनाए औषधि रस का पान किया करते थे. देखो इसे मैंने कितना चमका कर रखा है. अब तुम फिर इसका प्रयोग करोगे. मेरे बच्चे, क्या तुम अब सब कुछ समझ गये हो”?

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