कब बदलेगी नियती- नागपुर से वरिष्‍ठ पत्रकार- प्रभा ललित सिंह

High Light# अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस – महिला दिवस किसी उत्सव की तरह उभारा # कुछ निर्धारित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिलाओं को सम्मानित कर दिए जाने से वाकई इस उत्सव इस पर्व की सार्थकता पूर्ण हो जाती है ? # अधिकांश महिलाओं के लिए जिंदगी में भी सफलता का रास्ता बेहद कटीली ,पथरीले और दर्दनाक रास्तों से होकर गुजरता है # महिला दिवस का औचित्य तब तक प्रमाणित नहीं होता जब तक कि सच्चे अर्थों में महिलाओं की दशा नहीं सुधरती # Himalayauk Newsportal & Print Media Publish at Dehradun & Haridwar

हर कामयाब महिला के पीछे कई अन्य महिलाओं की उसे बढ़ाने, भेदभाव से लड़ाई में भूमिका होती है. तब जाकर कोई महिला अपनी इच्छा के मुताबिक बन पाती है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस हर साल 8 मार्च को ऐसी महिलाओं की महानता, दया, उपलब्धि और योगदान को याद करने के लिए मनाया जाता है. ये रूढ़िवादि मान्यतों को तोड़ने में उनके साहस को स्वीकार करने और मजबूत शक्तिशाली महिला के तौर पर बाहर आने  का दिन है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021 का थीम ‘चुनौती का चयन’ रखा गया है. थीम को चुनने के पीछे विचार ये है कि ‘एक चुनौतीपूर्ण दुनिया एक सतर्क दुनिया है और चुनौती से बदलाव आता है.’

हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल तथा प्रिन्‍ट मीडिया के लिए नागपुर से वरिष्‍ठ पत्रकार- प्रभा ललित सिंह की एक्‍सक्‍लूसिव रिपोर्ट

यदि हम बात करें भारत मे पिछले एक, डेढ़ दशक की तो महिला दिवस किसी उत्सव की तरह उभर कर सामने आया है और अब तो यह आलम है कि महिला दिवस पर न सिर्फ सरकार बल्कि कई संस्थाएं भी अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित करके उनका उत्साहवर्धन करती हैं। जो बखूबी जायज भी है लेकिन बार-बार एक बात मन में उठती है कि महिलाओं को सम्मान देने के लिए इस दिवस को उत्सव की तरह मनने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? कारण साफ है पितृसत्तात्मक समाज वाले सोच के पुरुष हमेशा से ही घर, समाज, प्रशासन ,शासन, राजनीति और तमाम अन्य तरह के क्षेत्रों में भी लीड करते रहे लेकिन फिर समय बदला और बदलते हुए समय के साथ साथ जब महिलाओं ने भी अपने शोषण और बंधन की बेडिया खोल कर अपने प्रतिकार का विरोध किया और अपने क्रांतिकारी विचारों की मशाल को प्रज्वलित कर अपने दम पर तमाम क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो उन का समान होने लगा।

लेकिन फिर भी कई सवाल है जिनका जवाब खोजा जाना चाहिए सबसे पहला तो यही की, क्या कुछ निर्धारित क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली महिलाओं को सम्मानित कर दिए जाने से वाकई इस उत्सव इस पर्व की सार्थकता पूर्ण हो जाती है ? या फिर कुछ और भी प्रयास बाकी है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारतवर्ष की गौरव गाथा कहने वाले शिवाजी की परवरिश भी उनकी माताजी ने ही की थी ।

एक महिला ही है जो देश नव निर्माण के लिए अपने बेटे के अंदर भी अच्छे संस्कारों और मानवता का बीजारोपण करती है और शिवाजी जैसे महान योद्धा भारत के ललाट को गौरवान्वित करते हैं। तो वहीं कुछ अशिक्षित माताएं पुत्र और पुत्री का भेद कर बचपन से ही बेटे को श्रेष्ठ और बेटी को निम्न स्तर का व्यवहार कर पुरुष प्रधान सत्तात्मक मानसिकता की खाई को और भी ज्यादा बढ़ा देती है जिसका परिणाम यह होता है की युवा होने पर वही बेटा अपनी पत्नी बेटी या फिर समाज में किसी भी महिला को अपने से तुच्छ समझकर ही व्यवहार करता है और इसी मानसिकता के चलते समाज में महिलाएं कई तरह के अपराधों का शिकार होती हैं। चाहे वह बलात्कार हो छेड़छाड़ फब्तियां कसना या फिर घरेलू हिंसा यह सब इसी का परिणाम है। और महिलाओं की इस फेहरिस्त में सिर्फ अशिक्षित महिला ही नहीं बल्कि कुछ शिक्षित महिलाएं भी शामिल हैं।

चाहे आज हम कितना भी विकसित होने का ढोल पीट ले, समानता के अधिकार के नगाड़े बजा ले, लेकिन वास्तविकता यही है कि यदि कुछ महिलाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश महिलाओं के लिए अपने कार्यस्थल या फिर जिंदगी में भी सफलता का रास्ता बेहद कटीली ,पथरीले और दर्दनाक रास्तों से होकर गुजरता है। अगर वह सम्मान पूर्वक मर्यादा में रहकर सिद्धांतों का पालन करते हुए आगे बढ़ना चाहे तो वर्तमान परिदृश्य में यह लगभग नामुमकिन सा लगता है या तो वह उसूल, ईमानदारी और आदर्शवाद के वस्त्र खोलकर नग्न खड़ी हो जाए और या फिर इन वस्त्रों को धारण किए जिंदगी भर संघर्ष करती हुई एड़िया रगड़ती हुई अंधकार और गुमनामी का जीवन यापन करें।

समाज में उस से टकराने वाला हर मर्द एक ही दृष्टि से उसे देखता है या तो नयनसुख लेकर आंखों को ठंडक पहुंचाना चाहता है या फिर उसे अपने बिस्तर पर पड़ा देखने की कल्पना से खुद को आनंदित करता है और अपनी यह मंशा पूरी करने के लिए उसे जो भी जतन करने पड़े वे करते है साम दाम दंड भेद सारे पैतरे आजमाने के बाद भी वे हमेशा इसी प्रयास में रहता है की किस तरीके से वह संघर्षरत महिला का फायदा उठाया जाए सहानुभूति देकर या फिर उसका शुभचिंतक बनकर जरिया चाहे जो भी हो अंततः उद्देश्य बस एक ही है।

यदि भारत में कभी कोई सर्वे हुआ और उसके स्पष्ट आंकड़े प्रसारित किए गए तो यकीनन 95% महिलाओं के साथ उनके बचपन से लेकर बुढ़ापे तक कोई ना कोई एक ऐसा प्रकरण कोई ना कोई एक ऐसा वाकिया जरूर हुआ होगा जब किसी पराए पुरुष ने उन्हें किसी गलत इरादे के साथ छुआ हो ।चाहे वह बचपन में खेलते हुए कोई दूर का कोई मामा चाचा, ताऊ ,भाई या फिर मामा हो या फिर गली मोहल्ले का कोई अन्य व्यक्ति ।

हर किसी के अपने अलग-अलग तजुर्बे होंगे और अलग-अलग तरह की यादें भी ,लेकिन उन सभी पीड़ादायक यादों में एक चीज जो कॉमन होगी वह है किसी जानने वाले या अनजान हाथों का अनचाहा स्पर्श।

आज भी समाज में महिलाओं की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है आज भी समाज की मानसिकता जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं महिलाओं के प्रति बदली नहीं है महिलाओं को इस तरीके से पाला पोसा या बड़ा किया जाता है कि हमेशा उन्हें यही लगता रहे कि घर परिवार समाज जात बिरादरी देश सबकी इज्जत की पोटली सिर्फ और सिर्फ महिलाओं के सर पर ही रख दी जाती है और उसका बोझ सिर्फ और सिर्फ महिलाओं को ही ढोना पडता है यह सिलसिला निरंतर उनके जन्म से अंतिम यात्रा तक चलता ही रहता है।

हमेशा लड़कियों को ही है सुनने को मिलता है परिवार की इज्जत का ख्याल नहीं ,समाज के इज्जत का ख्याल नहीं, कुछ ऊंच-नीच हो गई तो कौन ज़िम्मेदारी लेगा?

क्यों हमेशा से ही उन्हें जिम्मेदारी का ठेका लेने के लिए तैयार किया जाता है क्यों कोई लड़कों से नहीं कहता कि उनकी भी कोई जिम्मेदारी है।

महिला दिवस का औचित्य तब तक प्रमाणित नहीं होता जब तक कि सच्चे अर्थों में महिलाओं की दशा नहीं सुधरती। पुरुषों की मानसिकता नहीं बदलती । महिला नीति है लेकिन क्या उसका क्रियान्वयन गंभीरता से हो रहा है और साथ ही साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या उन्हें उनके अधिकार प्राप्त हो रहे हैं। वास्तविक सशक्तीकरण तो तभी होगा जब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होंगी।

इसके अलावा यह भी महत्वपूर्ण है कि महिला दिवस का आयोजन सिर्फ रस्म अदायगी भर नहीं रह जाए। इसीलिए सभी अपने अपने स्तर पर प्रयत्न करें । वैसे यह शुभ संकेत है कि महिलाओं में अधिकारों के प्रति समझ विकसित हुई है और अपनी शक्ति को स्वयं समझकर, जागृति आने से ही महिला घरेलू अत्याचारों से निजात पा सकी है। कामकाजी महिलाएं भी अपने उत्पीड़न से छुटकारा पा सकती हैं और इसके लिए उन्हें खुद ही नए रास्तों की तलाश करनी होगी। जिसमें उन्हें ना तो अपने सपने पूरे करने के लिए किसी प्रकार की समझौते करने की आवश्यकता होगी और ना ही मुक्त आसमान में पंख फैलाकर उड़ने के लिए किसी के सहारे की, तभी महिला दिवस की सार्थकता सिद्ध होगी।

प्रभा ललित सिंह नागपुर- से हिमालयायूके न्‍यूजपोर्टल तथा प्रिन्‍ट मीडिया केे लिए-

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