होली एक मस्ती से भरा त्यौहार

कुमाऊँ की होली विश्व व्याप्त है। होली महिला और पुरुष दोनों वर्गों द्वारा अपने अपने अंदाज में देखने को मिलती है। महिलाएं समहू बना कर नाच गाने के साथ होली गीत एवं चाँचरी गाती हैं-  (www.himalayauk.org) Leadidg Web & Print Media; publish at Dehradun & Haridwar. CS JOSHI- EDITOR  

 बरसाने की होली के बाद सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊॅनी होली को याद किया जाता है। फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है। शाम ढलते ही कुमाऊॅ के घर-घर में बैठक होली की सुरीली महफिले जमने लगती हैं। होली की यह रिवायत महज महफिल नहीं बल्कि एक संस्कार भी हैं। पूरे विश्व में इस होली की अलग पहचान है। मुख्य रूप से होली के दो अंग है। १- बैठकी होली तथा खडी होली।      बैठकी होली बैठकर शास्त्रीय धुनों पर गायी जाने वाली होली को कहा जाता है जिसमें होल्यार रंग से सरोबार होकर होली गाते हैं। यह होली बसंत पंचमी से शुरू हो जाती है। इसी प्रकार खडी होली- होली के दिनों में खडे होकर गायी जाती है।

PHOTO; कूर्माचल परिषद देहरादून के पदाधिकारी – जिनके द्वारा प्रत्‍येक वर्ष शानदार होली पर्व मनाया जाता है- 

       बैठकी होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और ख्ामाज गाये जाते हैं वहीं महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं। इसमें नृत्य संगीत भी होता है। हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाको और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं।  बैठकी होली में तो आजादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखण्ड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पडे हैं। कुमाऊॅ में यह त्यौहार ६-७ दिन तक धूमधाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटियां, गंगोली, द्वाराहाट आदि की होलियां प्रसिद्ध हैं। कुल मिलाकर होली एक सांस्कृतिक विरासत  है।

रंग में होली कैसे खेलूं री मैं सांवरियां के संग….
तबला बाजे, सारंगी बाजे, और बाजे मिरदंग…सखी री और बाजे मिरदंग
कान्हा जी की बंसी बाजे, राधा जी के संग…
रंग में होली कैसे खेलूं री मैं सांवरियां के संग….
कोरे कोरे माट मंगाये, तापर घोला रंग, सखी री तापर घोला रंग
भर पिचकारी सनमुख मारी, अंखिंया हो गयी बंद…
रंग में होली कैसे खेलूं री मैं सांवरियां के संग….
लंहगा तेरा घूम घुमेला, चोली तेरी तंग
खसम तुम्हारे बड़ निकट्ठू , चलो हमारे संग
रंग में होली कैसे खेलूं री मैं सांवरियां के संग….
होली एक मस्ती से भरा त्यौहार है और दुनिया में सभी जगह होली बड़ी ही धूमधाम से मनाई जाती है। लेकिन कुमाऊंनी होली का एक अलग ही रंग है, पूरे विश्व में इस होली की अलग पहचान है, मुख्य रूप से इस होली के दो अंग हैं १- बैठकी होली २- खडी होली. बैठकी होली बैठकर शाष्त्रीय धुनों पर गाये जाने वाली होली को कहा जाता है, जिसमें होल्यार रंग से सरोबार होकर होली गाते हैं यह होली बसंत पंचमी से शुरु हो जाती है। इसी प्रकार से खड़ी होली होली के दिनों में खड़े होकर गायी जाती है।
बैठकी होली महिलाओं के द्वारा भी की जाती है। उत्तराखण्ड के कुमाऊं मंडल में होली की नियत तिथि से काफी पहले (बसंत पंचमी से) ही होली की मस्ती और रंग छाने लगते हैं. इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है. बरसाने की होली के बाद अपनी सांस्कृतिक विशेषता के लिए कुमाऊंनी होली को याद किया जाता है. फूलों के रंगों और संगीत की तानों का ये अनोखा संगम देखने लायक होता है. शाम ढलते ही कुमाऊं के घर घर में बैठक होली की सुरीली महफिलें जमने लगती है. बैठक होली घर की बैठक में राग रागनियों के इर्द गिर्द हारमोनियम तबले पर गाई जाती है.

“…..रंग डारी दियो हो अलबेलिन में…
……गए रामाचंद्रन रंग लेने को गए….
……गए लछमन रंग लेने को गए……
……रंग डारी दियो हो सीतादेहिमें….
……रंग डारी दियो हो बहुरानिन में….”
यहां की बैठ होली में नजीर जैसे मशहूर उर्दू शायरों का कलाम भी प्रमुखता से देखने को मिलता है.
“….जब फागुन रंग झमकते हों….
…..तब देख बहारें होली की…..
…..घुंघरू के तार खनकते हों….
…..तब देख बहारें होली की……”

बैठकी होली में जब रंग छाने लगता है तो बारी बारी से हर कोई छोड़ी गई तान उठाता है और अगर साथ में भांग का रस भी छाया तो ये सिलसिला कभी कभी आधी रात तक तो कभी सुबह की पहली किरण फूटने तक चलता रहता है. होली की ये रिवायत महज़ महफिल नहीं है बल्कि एक संस्कार भी है. ये भी कम दिलचस्प नहीं कि जब होली की ये बैठकें खत्म होती हैं-

आर्शीवाद के साथ. और आखिर में गायी जाती है ये ठुमरी…..
“मुबारक हो मंजरी फूलों भरी……ऐसी होली खेले जनाब अली….. ”

बैठकी होली की पुरूष महफिलों में जहां ठुमरी और खमाज गाये जाते हैं वहीं अलग से महिलाओं की महफिलें भी जमती हैं. इनमें उनका नृत्य संगीत तो होता ही है, वे स्वांग भी रचती हैं और हास्य की फुहारों, हंसी के ठहाकों और सुर लहरियों के साथ संस्कृति की इस विशिष्टता में नए रोचक और दिलकश रंग भरे जाते हैं.

इनके ज्यादातर गीत देवर भाभी के हंसी मज़ाक से जुड़े रहते हैं जैसे… फागुन में बुढवा देवर लागे…….

होली गाने की ये परंपरा सिर्फ कुमाऊं अंचल में ही देखने को मिलती है. इसकी शुरूआत यहां कब और कैसे हुई इसका कोई ऐतिहासिक या लिखित लेखाजोखा नहीं है. कुमाऊं के प्रसिद्द जनकवि गिरीश गिर्दा ने बैठ होली के सामाजिक शास्त्रीय संदर्भों और इस पर इस्लामी संस्कृति और उर्दू के असर के बारे में गहराई से अध्ययन किया है. वो कहते हैं कि “यहां की होली में अवध से लेकर दरभंगा तक की छाप है. राजे-रजवाड़ों का संदर्भ देखें तो जो राजकुमारियां यहां ब्याह कर आईं वे अपने साथ वहां के रीति रिवाज भी साथ लाईं. ये परंपरा वहां भले ही खत्म हो गई हो लेकिन यहां आज भी कायम हैं. यहां की बैठकी होली में तो आज़ादी के आंदोलन से लेकर उत्तराखंड आंदोलन तक के संदर्भ भरे पड़े हैं .”
फाल्गुन सुदी ११ को चीर-बंधन किया जाता है। कहीं-कहीं ८ अष्टमी कोचीर बाँधते हैं। कई लोग आमलकी ११ का व्रत करते हैं। इसी दिन भद्रा-रहित काल में देवी-देवताओं में रंग डालकर पुन: अपने कपड़ों में रंग छिड़कते हैं, और गुलाल डालते हैं। छरड़ी पर्यन्त नित्य ही रंग और गुलाल की धूम रहती है। गाना, बजाना, वेश्या-नृत्य दावत आदि समारोह से होते हैं। गाँव में खड़ी होलियाँ गाई जाती हैं। नकल व प्रहसन भी होते हैं। अश्लील होलियों तथा अनर्गल बकवाद की भी कमी नहीं रहती। कुमाऊँ में यह त्यौहार ६-७ दिन तक बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। सतराली, पाटिया, गंगोली, चम्पावत, द्वाराहाट आदि की होलियाँ प्रसिद्ध हैं। गाँवों में भी प्राय: सर्वत्र बैठकें होती हैं। मिठाई व गुड़ बाँटा जाता है। चरस व भांग की तथा शहरों में कुछ-कुछ मदिरा की धूम रहती है। फाल्गुन सदी १५ को होलिका दहन होता है। दूसरे दिन प्रतिपदा का छरड़ी मनाई जाती है। घर-घर में घूमकर होलिका मनाकर सायंकाल को रंग के कपड़े बदलते हैं। धन भी एकत्र करते हैं, जिसका देहातों में भंड़ारा होता है।

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 वसंत की रंगता का प्रतीक  होली

—— डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई

वसंत की रंगता का प्रतीक , होली प्रत्येक साल फ़ाल्गुन महीने की पूर्णमासी को मनाया जाता है । उज्ज्वल वासंती वातावरण के कारण धरती शीतल –मन्द सुगंध से सुगंधित हो , धरती से आसमां तक को गमकाती हुई, एक उद्यान सी लगती है । प्रकृति के इन नये उमंगों , नयी तरंगों से मानव प्राण में नया रुधिर दौड़ने लगता है । आम्र के पेड़ों में मंजर भर आता है, जो वातावरण को चंदन वन में बदल देता है ।
हर भारतीय, चाहे वह देश में हो या देश के बाहर परदेश में, होली की प्रतीक्षा बड़ी व्यग्रता से करता है । लोग गाँव से शहर तक होली के कई दिन पहले से ही तैयारियों में जुट जाते हैं । ढ़ोलक, झाँझ , करतास व मजीरों के संगीत में मस्त , गली-गली में घूमती टोलियाँ फ़ाग व होली के गीत गातीं, मस्ती में खो जाती हैं । होली में केवल यौवन की फ़ुहारें होती हैं । इस त्योहार का केवल यही एक पक्ष है, ऐसा नहीं है । इससे जुड़ी ऐतिहासिक और पौराणिक कथाएँ हैं ; जिसके कारण इस त्योहार को हिन्दू समाज में धार्मिक दृष्टि से भी, बहुत मान्यता मिली है ।
इतिहासकारों का कहना है कि होली के पर्व का प्रचलन, पहले आर्यों में भी था , लेकिन इस त्योहार को अधिकतर पूर्वी भारत में ही मनाया जाता है । इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक ग्रन्थों में मिलता है । नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रन्थों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है । आज भी विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में इसका उल्लेख किया गया है । 
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक ’अलबरूनी’ ने अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होली के त्योहार के बारे में लिखा है, भारत में हिन्दू के साथ  मुसलमान भी इस पर्व को मनाते थे । इसके ऐतिहासिक प्रमाण में उन्होंने लिखा है, अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ 
( अलवर के संग्रहालय में लगे एक चित्र से ) यह साबित होता है, वहाँ एक दूजे के साथ होली खेलते दिखाया गया है । अंतिम मुगल बादशाह, बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में भी यह बात प्रसिद्ध है कि होली के दिन उनके दरवार के मंत्री, उन्हें रंग लगाने जाते थे । 
हिन्दुओं के इस प्राचीन त्योहार , होली से अनेक कथाएँ जुड़ी हुई हैं । इनमें सबसे प्रसिद्ध है, प्रह्लाद की कहानी । प्रह्लाद , राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र था । पिता कट्टर नास्तिक थे, तो पुत्र कट्टर आस्तिक । कहते हैं, उस समय किसी का मजाल नहीं था,कि ईश्वर भक्ति करे । हिरण्यकश्यप को भगवान का दर्जा मिला हुआ था । पुत्र प्रह्लाद को भी उन्होंने बहुत समझाया, कि तुम मेरे नाम की पूजा करो ; मैं ही तुम्हारा भगवान हूँ । अन्यथा, इसका दंड बहुत बुरा होगा ; लेकिन प्रह्लाद ने पिता के आदेश को हर बार नकार दिया । उसकी इस उद्दंडता से क्रुद्ध होकर, पिता ने उसे अनेक कठोर दंड दिये । ; बावजूद प्रह्लाद ने भक्ति की राह नहीं छॊड़ी । हिरण्यकश्यप की बहन, होलिका जिसको यह वरदान प्राप्त था कि उसे आग भस्म नहीं कर सकता । हिरण्यकश्यप ने आदेश दिया, होलिका बड़े भाई का हुक्म तामिल करती हुई , प्रह्लाद को गोद में लेकर धधकती आग में बैठ गई । होलिका जल गई, लेकिन प्रह्लाद को आग छूआ तक नहीं । इसी ईश्वर भक्त की याद में इस दिन ( होलिका दहन ) होता है, इसलिये इसका नाम ’होली’ पड़ा । लोग इसी पौराणिक कथन के आधार पर होली जलाते हैं , और भक्त प्रह्लाद के विजय के लिये रंग खेलते हैं ।
इस पर्व का सम्बन्ध कृषि से भी है, लोग उस शुभ दिन की याद में मनाते हैं । जब मानव ने धरती पर पहली बार अन्न उगा बालियों को आग पर पकाकर खाया था, होली का अर्थ ,’होरा’ से भी जोड़कर देखते हैं { बिहार में ओढा़ ) कच्चे चने, गेहूँ के दाने को आग में भूनकर , इस दिन लोग खाते हैं । किसान अपने खेत का पहला अन्न, अग्नि को समर्पित किये बिना 

खुद खा ले, ऐसा नहीं होता । अत: यह कहा जाता है,कि प्राचीन काल में सामूहिक यग्य होता था । इस यग्य में पकाये गए अन्न के दाने को लोग 
प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे । ऐसी अनेक किंबदंती कथाएँ हैं, इसका कारण जो भी रहा हो, लेकिन आज इसे क्या गरीब, क्या अमीर सभी बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं ।
होली के पहले दिन, झंडा या डंडा गाड़ना होता है, जो किसी सार्वजनिक स्थल या घर के अहाते में गाड़ा जाता है । अग्नि जलाने के लिये लकड़ियाँ या उपले जिसके बीचो-बीच छेद होता है, उसमें मूँज की रस्सी डालकर माला बनाई जाती है । फ़िर इसमें रात को होलिका दहन के समय इस माला को उसमें झोंक दिया जाता है ।
होली के दिन, घर-घर में मिठाइयाँ, पकवान बनते हैं ; काजू,भांग और ठंडाई, इस पर्व का विशेष पेय होता है । पर ये कुछ लोगों को ही भाते हैं । इस अवसर पर सरकारी दफ़्तरों में छुट्टी घोषित कर दी जाती है, जिससे कि लोग खुलकर , और झूमकर इस पर्व को मना सकें । होली की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है, कि कुछ संगीत की विशेष शैली का नाम होली है, जिनमें अलग-अलग प्रांतों की अलग-अलग भाषाओं में होली की धार्मिक और ऐतिहासिक गाथाएँ छुपी रहती हैं ; जैस अवध में ( राम और सीता के लिए ’होली खेले रघुवीरा अवध में’ ), राजस्थान के अजमेर में, ख्वाज़ामोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली है ,’ आज रंग है री, मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री ’— इसी प्रकार होली से सम्बन्धित क्षेत्रों में गाये जाते हैं ।
इस प्रकार होली केवल एक त्योहार नहीं बल्कि अनेकों प्राचीन घटनाओं से जुड़े विश्वासों का साकार.रंगीन रूप भी है होली । इसलिए इस दिन लोग,सारे गिले-शिकवे को भुलाकर, एक दूसरे से गले मिलते हैं । घर-घर जाकर मिठाइयाँ बाँटते हैं । लेकिन कुछ लोग इस अवसर पर शराब पीकर, कीछड़ उछालकर अपनी अश्लीलता का प्रदर्शन करके ,इस पवित्र त्योहार के रूप को बिगाड़ देते हैं और जब इन्सान खुद नशे में हो तो, 

वह त्योहार का मजा कैसे ले सकता है ! नशा और आनंद, दोनों एक साथ संभव नहीं है । होली का त्योहार हो या अन्य खुशियों का अवसर, नशामुक्त
होकर मनाना चाहिये । तभी हमारे त्योहार की पवित्रता, और शालीनता बनी रहेगी, अन्यथा. सब बेकार होगा ।
इस संदर्भ में मेरे काव्य- संग्रह, ’समर्पिता” की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं ——

मिटे धरा से ईर्ष्या, द्वेष,अनाचार, व्यभिचार
जिंदा रहे जगत में , मानव के सुख हेतु
प्रह्लाद का प्रतिरूप बन कर प्रेम,प्रीति और प्यार
बहती रहे, धरा पर नव स्फ़ूर्ति का शीतल बयार
भींगता रहे, अंबर- जमीं, उड़ता रहे लाल -नीला
पीला , हरा , बैंगनी , रंग – बिरंगा गुलाल

 

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