बेरोज़गारी के मसले पर वोट डाले गये तो बड़ी मुश्किल

अगर अर्थव्यवस्था और बेरोज़गारी के मसले पर वोट डाले गये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। हो सकता है कि वह दुबारा प्रधानमंत्री न बनें। शायद यही कारण है कि मोदी 11 अप्रैल को होने वाले पहले चरण के चुनाव से ठीक पहले अपनी सरकार की उपलब्धियों की जगह राष्ट्रवाद, पुलवामा हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक और हिंदू-मुसलिम विवाद को मुद्दा बनाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। मोदी सरकार एनएसएसओ और सीएमआईई जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के बेरोज़गारी के आँकड़ों को मानने के लिए तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी जहाँ पकौड़ा बनाने को भी रोज़गार से जोड़ दे रहे हैं तो उनके दूसरे मंत्री बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं कि पिछले पाँच साल में कई करोड़ रोज़गार पैदा किये गये हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बेरोज़गारी की यह समस्या मोदी जी के गले की हड्डी बनेगी?

हाल ही में बेरोज़गारी पर एनएसएसओ की एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें कहा गया था कि देश में बेरोज़गारी 45 साल में सबसे ज़्यादा हो गई है। यह रिपोर्ट सरकार ने जारी नहीं की थी, लेकिन अंग्रेज़ी दैनिक बिज़नेस स्टैंडर्ड ने एनएसएसओ के आँकड़े छाप दिये थे। नएसएसओ के आँकड़े हर पाँच साल में एक बार आते हैं। एनएसएसओ देश भर में सर्वेक्षण कर रोज़गार, शिक्षा, ग़रीबी, स्वास्थ्य और कृषि की स्थिति पर रिपोर्ट देता है। विडंबना यह है कि 2014 में अपनी चुनावी रैलियों में नरेंद्र मोदी हर साल दो करोड़ नये रोज़गार देने का वादा कर रहे थे। लेकिन हुआ बिलकुल उलटा। उनके शासन के पिछले पाँच सालों में नये रोज़गार तो पैदा हुए नहीं, बेरोज़गारी ज़रूर तीन गुना बढ़ गई।  मोदी सरकार नहीं चाहती थी कि लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बेरोज़गारी की ऐसी ख़राब तसवीर सामने आये। इसीलिए वह एनएसएसओ यानी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफ़िस की यह रिपोर्ट जारी नहीं करना चाहती थी। इसी कारण नेशनल स्टटिस्टिक्स कमीशन के कार्यवाहक अध्यक्ष सहित दो सदस्यों ने इस्तीफ़ा दे दिया था।

एनएसएसओ की अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, 2017-18 में बेरोज़गारी दर 6.1 फ़ीसदी रही। यह 1972-73 के बाद सबसे ज़्यादा है। इससे पहले के वित्तीय वर्ष 2011-12 में बेरोज़गारी दर सिर्फ़ 2.2 फ़ीसदी रही थी।

2017-18 से पहले बेरोज़गारी की दर 2.6 से ज़्यादा नहीं हुई थी। 1987-88 में यह सबसे ज़्यादा 2.6 फ़ीसदी तक पहुँची थी। 2007 और 2011-12 के बीच तो यह दर दो फ़ीसदी के आसपास थी।

सीएसडीएस-लोकनीति-द हिंदू-तिरंगा टीवी-दैनिक भास्कर के चुनाव पूर्व सर्वे में यह बात बिलकुल साफ़ उभर कर आयी है कि बेरोज़गारी का मुद्दा गंभीर रूप ले चुका है। इस सर्वे से यह साफ़ है कि रोज़गार देने के मसले पर मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड मनमोहन सिंह सरकार के रिपोर्ट कार्ड की तुलना में ख़राब है। 24 मार्च से 31 मार्च के बीच 19 राज्यों में किये गये इस सर्वेक्षण में यह तथ्य उभरकर आया है कि 47 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि पिछले तीन-चार सालों में नौकरी पाना मुश्किल हो गया है। 18 से 35 साल की उम्र वालों के बीच यह आँकड़ा 50 फ़ीसदी है, जबकि कॉलेज से पढ़कर निकले युवाओं में यह संकट और बड़ा है। इस तबक़े के बीच क़रीब 53 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि नौकरी पाना एक बड़ी समस्या है। 2014 लोकसभा चुनाव के समय मोदी ने वादा किया था कि वह हर साल 2 करोड़ लोगों को रोज़गार देंगे। इसके उलट हाल के आँकड़े बताते हैं कि बेरोज़गारी पिछले 45 साल में ऊँचे पायदान पर खड़ी है।

UTTRAKHAND (DEHRADUN) बेरोजगारी भी क्या-क्या करवाने को मजबूर कर देती है। उत्‍तराखण्‍ड के कोटद्वार के मनोज जखमोला को ही देखिए। 20 दिन पहले राहुल गांधी की रैली में कांग्रेस के रंग में रंगे मनोज शुक्रवार को पूरी तरह भाजपा के रंग में रंगे नजर आए। शरीर और चेहरे पर नमो और नरेंद्र मोदी लिखने के साथ ही भाजपा का चुनाव चिह्न भी पेट पर बनाया था।   
पीएम मोदी के रैली में पहुंचने से घंटाभर पहले ही मनोज मैदान में पहुंचे। ताजा ताजा रंग लगा था, इसलिए सेल्फी खिंचाते हुए वह लोगों से पर्याप्त दूरी भी बना रहे थे। जब उनसे नाम पूछा गया तो सिर्फ मनोज बताया, फिर उनसे पूछा कि मनोज क्या मनोज जखमोला कोटद्वार वाले तो वह बोले हां। मनोज से पूछा गया कि 20 दिन पहले वह राहुल की रैली में इसी अंदाज में थे। तो बोले,  भाई बेरोजगारी है कुछ तो करना पड़ता है। हालांकि उन्होंने 16 मार्च को राहुल की रैली में कांग्रेस के रंग में पहुंचने पर कहा था कि वह 2014 में भाजपा के साथ थे, उम्मीदें थी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, इसलिए राहुल को समर्थन देने पहुंचे हैं। मनोज जखमोला पेशे से टैक्सी ड्राइवर हैं। मनोज ने बताया कि पहले वह एक पार्टी के लिए शरीर पर रंग लगाते थे, लेकिन अब राजनीतिक पार्टियां उन्हें ऐसा करने के लिए मेहनताना 
देने लगी हैं।  

उत्तर भारत में यदि 46 फ़ीसदी लोग यह कहते हैं कि नौकरी पाना मुश्किल हो गया है तो पूरब में भी 46 फ़ीसदी लोग बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं। जबकि दक्षिण में 44 फ़ीसदी, पश्चिम और मध्य भारत में 51 फ़ीसदी लोग बेरोज़गारी से त्रस्त हैं। इन आँकड़ों से साफ़ है कि कॉलेज से पढ़कर निकले युवाओं को नौकरी के लाले पड़े हुए हैं। लेकिन मोदी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि बेरोज़गारी कोई मुद्दा भी है।

सीएसडीएस-लोकनीति-द हिंदू-तिरंगा टीवी-दैनिक भास्कर का सर्वे अर्थव्यवस्था की स्थिति की भी अच्छी तसवीर नहीं पेश करता। सिर्फ़ 34 फ़ीसदी लोग यह मानते हैं कि अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में है। जबकि 58 फ़ीसदी लोग अर्थव्यवस्था की स्थिति से बहुत संतुष्ट नहीं हैं। 58 फ़ीसदी में 33 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि अर्थव्यवस्था बस ऐसे ही चल रही है, जबकि 25 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि अर्थव्यवस्था की स्थिति ख़राब हुई है।
पिछले पाँच सालों में खेती-किसानी का मुद्दा भी बहुत तेज़ी से ऊपर आया है। मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस की गोली से आंदोलन कर रहे छह किसानों की मौत हुई थी। कई बार देश के दूसरे हिस्सों से दिल्ली आकर किसानों ने अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर किया और धरने पर बैठे। महाराष्ट्र के किसान पदयात्रा कर मुंबई पहुँच कर अपनी माँग बुलंद की। लेकिन सीएसडीएस का यह सर्वे बड़ा चौंकाने वाला आँकड़ा पेश करता है। सर्वे में यह बात निकलकर सामने आयी कि किसान वाक़ई में तकलीफ में हैं, लेकिन इस वजह से प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी को बहुत परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।

सर्वे के आँकड़े कहते हैं कि 47 फ़ीसदी इस राय के हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दुबारा मौक़ा नहीं मिलना चाहिए।
सरकार में आने से पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सबका साथ और सबका विकास’ का नारा दिया था। पिछले पाँच सालों में इस मसले पर उनकी जमकर आलोचना हुई और यह आरोप भी लगा कि उनकी सरकार अल्पसंख्यक तबक़े की परवाह नहीं करती। इस सर्वे में जब अलग-अलग धर्मों के लोगों से पूछा गया कि क्या वाक़ई मोदी सरकार सबका विकास कर रही है तो आँक़ड़े बहुत चौंकाने वाले नहीं दिखाई दिये। जहाँ हिंदू समाज के लोग मोदी सरकार की राय से सहमत दिखे वहीं अल्पसंख्यक तबक़ा मानता है कि मोदी के विकास मॉडल सबको साथ लेकर नहीं चलता। हिंदुओं में ऊँची जाति के लोग सबसे ज़्यादा संतुष्ट दिखे। 55 फ़ीसदी लोगों की राय है कि मोदी सबको साथ लेकर विकास कर रहे हैं। जबकि पिछड़ों में यह आँकड़ा 49 फ़ीसदी, दलितों में 41 फ़ीसदी और आदिवासियों में 32 फ़ीसदी है। सिर्फ़ 33 फ़ीसदी मुसलमान मानते हैं कि मोदी सरकार सबका विकास कर रही है जबकि ईसाइयों में यह आँकड़ा 26 और सिखों में 14 फ़ीसदी है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक़, रिटर्न दाख़िल नहीं करने वालों की संख्या 2015-16 में 8.56 लाख थी जो नोटबंदी वाले साल यानी 2016-17 में यह 10 गुना बढ़कर 88.04 लाख हो गई। ऐसा तब है जब सरकार ने दावा किया था कि नोटबंदी के बाद 2016-17 में 1.06 करोड़ करदाताओं की संख्या बढ़ गयी थी और इसमें पिछले साल के मुक़ाबले 25 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई थी। तो सवाल उठता है कि इतने करदाताओं ने रिर्टन क्यों नहीं भरा? क्या इन लोगों की आमदनी कम हो गयी या नौकरी चली गयी?
करदाताओं की संख्या कम होने पर ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक रिपोर्ट छापी है। अख़बार ने कर अधिकारियों का बयान छापा है जिसमें उन्होंने कहा है कि 2000-01 के बाद से यह लगभग दो दशकों में सबसे अधिक वृद्धि है। अधिकारियों के अनुसार रिटर्न नहीं भरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी नोटबंदी के बाद नौकरियों में कमी या आय में कमी आने के कारण हो सकती है। ये वे करदाता हैं जो पिछले साल रिटर्न भरते हैं, लेकिन वर्तमान में वह रिर्टन नहीं भर पाते हैं।

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