जिन्‍होने इंकलाब को बनाया था अमिताभ, कौसानी के इस अप्रतिम कवि की आज है पुण्‍यतिथि

सुमित्रानंदन पंत छायावाद और सौंदर्य के अप्रतिम कवि। प्रकृति उनके विशाल शब्द-संसार की आत्मा है। पंत जी का जन्म 20 मई, 1900 में अल्मोड़ा के कौसानी गाँव में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही उनकी माँ चल बसीं। सात साल के होते-होते उन्हें शिद्दत से एहसास हुआ कि वह माँ की ममता से वंचित हैं। इसी उम्र में पहली कविता लिखी। इसमें बिछोह की अद्भुत प्रतिध्वनि है। Presents by Chandra Shekhar Joshi- Editor

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सुमित्रानंदन को हिंदी का विलियम वर्ड्सवर्थ कहा जाता है.  कहते हैं कि पंत लोगों से जल्द ही प्रभावित हो जाते थे. इस क्रम में पंत ने राष्‍ट्रपिता महात्मा गांधी और कार्ल मार्क्‍स से प्रभावित होकर उन पर रचनाओं का सृजन किया.

सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के कैसोनी गांव में 20 मई 1900 को हुआ था. पंत के जन्‍म के कुछ घंटों बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था. दादी के लाड़ प्यार में पले पंत ने अपने लिए नाम का चयन भी खुद ही किया. जी हां, पंत का वास्तविक नाम गुसाई दत्त था, जिसे उन्‍होंने बदल कर सुमित्रानंदन पंत रखा. पंत हरिवंश राय बच्‍चन के अच्‍छे मित्र थे और उन्‍होंने ही महानायक अमिताभ बच्चन को ‘अमिताभ’ नाम दिया था.

मां की ममता से वंचित और प्रकृति को अपनी मां मानने वाले सुमित्रानंदन पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्रीलिंग पर कविता लिखते रहे। उनके दौर में देश में ‘नारीवाद’ तो नहीं था, लेकिन नारी स्वतंत्रता के पक्ष में आवाजें उठती थीं और इनमें एक हस्तक्षेपकारी बुलंद आवाज पंत की भी थी।

28 दिसम्बर 1977 को हिंदी साहित्य के इस मूर्धन्य उपासक का संगम नगरी इलाहबाद में देहांत हो गया. उनकी मृत्यु के पश्चात उनके सम्मान में सरकार ने उनके जन्मस्थान उत्तराखंड के कुमायूं में स्थित गाँव कौसानी में उनके नाम पर एक संग्रहालय बनाया है. यह संग्रहालय देश के युवा साहित्यकारों के लिए एक तीर्थस्थान है और हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत भी | सही मायने में सुमित्रा नंदन पंत छायावाद के अग्रिम पंक्ति की कवियों में एक थे. नैसर्गिक सौंदर्य के साथ प्रगतिशील विचारधारा और फिर अध्यात्म के कॉकटेल से उन्होंने जो रचा वह अविस्मर्णीय बन गया और हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ. उन्होंने हिंदी काव्य को एक सशक्त भाषा प्रदान की, उसे संस्कार दिया और फिर पुष्ट तथा परिष्कृत किया. हिंदी साहित्य में इस अनमोल योगदान के लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे |

कौसानी यानी उनका गाँव मानो प्रकृति का अद्भुत दस्तख़त था। पंत जी वहाँ फूल से खिले। इस गाँव की प्रकृति को उन्होंने बाक़ायदा अपनी माँ माना और जीवनपर्यंत मानते रहे। बचपन में नेपोलियन का प्रभाव ग्रहण किया और उनकी तसवीर देखकर उन जैसे बाल रखने का निर्णय लिया और रखे भी। पिता ने नाम रखा था गुसाईं दत्त। यह उन्हें पसंद नहीं आया तो ख़ुद को सुमित्रानंदन पंत बना लिया।

कौसानी यानी उनका गांव मानो प्रकृति का अद्भुत दस्तखत था। पंत जी वहां फूल से खिले। इस गांव की प्रकृति को उन्होंने बाकायदा अपनी मां माना और जीवनपर्यंत मानते रहे। बचपन में नेपोलियन का प्रभाव ग्रहण किया और उनकी तस्वीर देखकर उन जैसे बाल रखने का निर्णय किया और रखा भी। पिता ने नाम रखा था गुसाईं दत्त। यह उन्हें पसंद नहीं आया तो खुद को सुमित्रानंदन पंत बना लिया।

उन्हें प्रकृति की संतान कहा जाता था। शब्द साधना का सफर बचपन से शुरू हुआ और संगीत साधना का भी। तब, जब आमतौर पर बचपन का एक नाम ‘शरारत’ भी होता है। लेकिन पंत जी के बचपन से शरारत सिरे से लापता थी। वहाँ कविता थी। संगीत था। काव्य सृजन के साथ-साथ वो हारमोनियम की धुन पर गीत भी गाते थे।

सुमित्रानंदन पंत से जुड़े दो तथ्यों से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। एक, भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण दूरदर्शन पंत जी ने किया था। दूसरा, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नामकरण भी उन्होंने किया था। हरिवंश राय बच्चन उनके सबसे करीबी और अच्छे दोस्तों में शुमार थे। अमिताभ आज भी सुमित्रानंदन पंत को पिता तुल्य मानते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पंत की एक-एक काव्य पंक्ति उन्होंने पढ़ी है और कभी-कभी वह उन्हें अपने पिता (बच्चन जी) से बड़े कवि लगते हैं।

स्कूली शिक्षा अल्मोड़ा में हुई और उसके बाद बड़े भाई देवी दत्त के साथ काशी के क्वींस कॉलेज में दाखिल हुए। तब तक उनका कवि अक्स निखरकर सार्वजनिक हो चुका था। कविता छायावादी थी लेकिन विचार मार्क्सवादी और प्रगतिशील। गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर तक ने उनकी कविताओं का नोटिस लिया। माँ की ममता से वंचित और प्रकृति को अपनी माँ मानने वाले पंत 25 वर्ष तक केवल स्त्रीलिंग पर कविता लिखते रहे। उनके दौर में हिंदुस्तान में ‘नारीवाद’ तो नहीं था लेकिन नारी स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज़ें उठती थीं और इनमें एक हस्तक्षेपकारी बुलंद आवाज़ सुमित्रानंदन पंत की भी थी। 

उन्होंने कहा था, ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पूर्ण उदय तभी संभव है, जब नारी स्वतंत्र वातावरण में जी रही हो।’ एक कविता में उन्होंने लिखा:

मुक्त करो नारी को मानव, चिर वंन्दिनी नारी को। युग-युग की निर्मम कारा से, जननी सखी प्यारी को।’

महात्मा गाँधी के प्रभाव में आकर वह पूरी तरह गाँधीवादी हो गए थे। पंत जी ने गाँधी की अगुवाई में चले असहयोग आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया और इसका खामियाजा भी भुगता। हालात यहाँ तक आ गए कि उन्हें अल्मोड़ा की अपनी जायदाद बेचनी पड़ी। आर्थिक बदहाली के चलते उनकी शादी नहीं हुई। ताउम्र अविवाहित रहे। नारी उनके समूचे काव्य में विविध रूपों- मां, पत्नी, प्रेमिका और सखी- में मौजूद है। नारीत्व उनके वजूद-व्यवहार का स्थायी हिस्सा था।

सुमित्रानंदन पंत से वाबस्ता दो तथ्यों से बहुत कम लोग वाकिफ हैं। एक, भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण दूरदर्शन पंत जी ने किया था। दूसरा, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नामकरण भी उन्होंने किया था।

हरिवंश राय बच्चन उनके सबसे क़रीबी और अच्छे दोस्तों में थे। अमिताभ आज भी सुमित्रानंदन पंत को पिता तुल्य मानते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि पंत की एक-एक काव्य पंक्ति उन्होंने पढ़ी है और कभी-कभी वह उन्हें अपने पिता (बच्चन जी) से बड़े कवि लगते हैं। पंत 1955 से 1962 तक प्रयाग स्थित आकाशवाणी केंद्र के मुख्य कार्यक्रम निर्माता तथा परामर्शदाता रहे।

उनकी कविता ने नारी चेतना और उसके सामाजिक पक्ष के साथ-साथ ग्रामीण जीवन के कष्टों और विसंगतियों को भी बख़ूबी ज़ाहिर किया है। पल्लव, ग्रंथि, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धूलि, कला और बूढ़ा चांद, सत्यकाम, गुंजन, चिदंबरा, उच्छ्वास, लोकायतन, वीणा आदि उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। 

साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सुमित्रानंदन पंत को पद्मभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कारों से नवाजा गया। छायावादी दौर के इस महत्वपूर्ण स्तंभ का जिस्मानी अंत 28 दिसंबर, 1977 को घातक दिल के दौरे से हुआ। तब अंग्रेजी-हिंदी के तमाम बड़े अखबारों ने उनके अवसान पर संपादकीय लिखे थे। डॉ हरिवंश राय बच्चन का कथन था कि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु से छायावाद के एक युग का अंत हो गया है।

पंत- काव्य का फलक बेहद विस्तृत है। वह कालिदास, रविंद्र नाथ टैगोर और ब्रजभाषा के कतिपय रीतिवादी कवियों के असर में थे। वह निराला जी से दो वर्ष छोटे थे लेकिन निराला उनकी प्रतिभा के कायल थे। हालाँकि दोनों के बीच (पंत के कविता संग्रह) ‘पल्लव’ को लेकर हुआ अप्रिय विवाद आज भी साहित्य के इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है। हिंदी के शिखर आलोचना पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा ने भी उस पर विस्तार से लिखा है। निराला जी ने पंत पर आरोप लगाया था कि ‘पल्लव’ की कविताएँ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता की नकल हैं। इस पर पंत जी ने लगातार अपना एतराज़ दर्ज कराया। वह विवाद बहुत लंबा चला था।

बहरहाल, साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए सुमित्रानंदन पंत को पद्मभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कारों से नवाजा गया। छायावादी दौर के इस महत्वपूर्ण स्तंभ का जिस्मानी अंत 28 दिसंबर, 1977 को घातक दिल का दौरा पड़ने से हुआ। तब डॉ. हरिवंश राय बच्चन का कथन था कि सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु से छायावाद के एक युग का अंत हो गया है।

सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० – २८ दिसम्बर १९७७) हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका जन्म कौसानी बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।

सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी नामक ग्राम में 20 मई 1900 ई॰ को हुआ। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माँ का निधन हो गया। उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। उनका नाम गोसाईं दत्त रखा गया। वह गंगादत्त पंत की आठवीं संतान थे। १९१० में शिक्षा प्राप्त करने गवर्नमेंट हाईस्कूल अल्मोड़ा गये। यहीं उन्होंने अपना नाम गोसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रनंदन पंत रख लिया। १९१८ में मँझले भाई के साथ काशी गये और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे। वहाँ से हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर म्योर कालेज में पढ़ने के लिए इलाहाबाद चले गए। १९२१ में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर उन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बँगला और अंग्रेजी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद में ही उनकी काव्यचेतना का विकास हुआ। कुछ वर्षों के बाद उन्हें घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। कर्ज से जूझते हुए पिता का निधन हो गया। कर्ज चुकाने के लिए जमीन और घर भी बेचना पड़ा। इन्हीं परिस्थितियों में वह मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुये। १९३१ में कुँवर सुरेश सिंह के साथ कालाकांकर, प्रतापगढ़ चले गये और अनेक वर्षों तक वहीं रहे। महात्मा गाँधी के सान्निध्य में उन्हें आत्मा के प्रकाश का अनुभव हुआ। १९३८ में प्रगतिशील मासिक पत्रिका ‘रूपाभ’ का सम्पादन किया। श्री अरविन्द आश्रम की यात्रा से आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ। १९५० से १९५७ तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे। १९५८ में ‘युगवाणी’ से ‘वाणी’ काव्य संग्रहों की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन ‘चिदम्बरा’ प्रकाशित हुआ, जिसपर १९६८ में उन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार प्राप्त हुआ। १९६० में ‘कला और बूढ़ा चाँद’ काव्य संग्रह के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ। १९६१ में ‘पद्मभूषण’ की उपाधि से विभूषित हुये। १९६४ में विशाल महाकाव्य ‘लोकायतन’ का प्रकाशन हुआ। कालान्तर में उनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। वह जीवन-पर्यन्त रचनारत रहे। अविवाहित पंत जी के अंतस्थल में नारी और प्रकृति के प्रति आजीवन सौन्दर्यपरक भावना रही। उनकी मृत्यु 28 दिसम्बर 1977 को हुई।

हिंदी साहित्य सेवा के लिए उन्हें पद्मभूषण(1961), ज्ञानपीठ(1968), साहित्य अकादमी , तथा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार  जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया। सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने घर को, जिसमें वह बचपन में रहा करते थे, ‘सुमित्रानंदन पंत वीथिका’ के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है।  इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।

उत्तराखण्ड में कुमायूँ की पहाड़ियों पर बसे कौसानी गांव में, जहाँ उनका बचपन बीता था, वहां का उनका घर आज ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय बन चुका है। इस में उनके कपड़े, चश्मा, कलम आदि व्यक्तिगत वस्तुएं सुरक्षित रखी गई हैं। संग्रहालय में उनको मिले ज्ञानपीठ पुरस्कार का प्रशस्तिपत्र, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा मिला साहित्य वाचस्पति का प्रशस्तिपत्र भी मौजूद है। साथ ही उनकी रचनाएं लोकायतन, आस्था आदि कविता संग्रह की पांडुलिपियां भी सुरक्षित रखी हैं। कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह और हरिवंश राय बच्चन से किये गये उनके पत्र व्यवहार की प्रतिलिपियां भी यहां मौजूद हैं।

संग्रहालय में उनकी स्मृति में प्रत्येक वर्ष पंत व्याख्यान माला का आयोजन होता है। यहाँ से ‘सुमित्रानंदन पंत व्यक्तित्व और कृतित्व’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित की गई है। उनके नाम पर इलाहाबाद शहर में स्थित हाथी पार्क का नाम ‘सुमित्रानंदन पंत बाल उद्यान’ कर दिया गया है।

सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक परिचय

उस समय अल्मोड़ा में कई साहित्यिक व सांस्कृतिक से जुड़े कार्यक्रम होते रहते थे जिसमें पंत अक्सर भाग लेते रहते। स्वामी सत्यदेव जी के प्रयासों से नगर में ‘शुद्ध साहित्य समिति‘ नाम से एक पुस्तकालय चलता था। इस पुस्तकालय से पंत जी को उच्च कोटि के विद्वानों का साहित्य पढ़ने को मिलता था। कौसानी में साहित्य के प्रति पंत जी में जो अनुराग पैदा हुआ वह यहां के साहित्यिक वातावरण में अब अंकुरित होने लगा। कविता का प्रयोग वे सगे सम्बन्धियों को पत्र लिखने में करने लगे। शुरुआती दौर में उन्होंने ‘बागेश्वर के मेले’, ‘वकीलों के धनलोलुप स्वभाव’ व ‘तम्बाकू का धुंआ’ जैसी कुछ छुटपुट कविताएं लिखी। आठवीं कक्षा के दौरान ही उनका परिचय प्रख्यात नाटककार गोविन्द बल्लभ पंत, श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचन्द्र जोशी व हेमचन्द्र जोशी से हो गया था। अल्मोड़ा से तब हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधाकर‘ व ‘अल्मोड़ा अखबार‘ नामक पत्र निकलता था जिसमें वे कविताएं लिखते रहते। अल्मोड़ा में पंत जी के घर के ठीक उपर स्थित गिरजाघर की घण्टियों की आवाज़ उन्हें अत्यधिक सम्मोहित करती थीं। अक़्सर प्रत्येक रविवार को वे इस पर एक कविता लिखते। ‘गिरजे का घण्टा‘ शीर्षक से उनकी यह कविता सम्भवतः पहली रचना है-

नभ की उस नीली चुप्पी पर घण्टा है एक टंगा सुन्दर  जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज बज कर”

दुबले पतले व सुन्दर काया के कारण पंत जी को स्कूल के नाटकों में अधिकतर स्त्री पात्रों का अभिनय करने को मिलता। 1916 में जब वे जाड़ों की छुट्टियों में कौसानी गये तो उन्होंने ‘हार‘ शीर्षक से 200 पृष्ठों का ‘एक खिलौना’ उपन्यास लिख डाला। जिसमें उनके किशोर मन की कल्पना के नायक नायिकाओं व अन्य पात्रों की मौजूदगी थी। कवि पंत का किशोर कवि जीवन कौसानी व अल्मोड़ा में ही बीता था। इन दोनों जगहों का वर्णन भी उनकी कविताओं में मिलता है।

वर्ष 1930 में पंत महात्मा गाँधी के साथ ‘नमक आंदोलन’ में शामिल हुए और देश सेवा के प्रति गंभीर हुए. इसी दौरान वह कालाकांकर में कुछ समय के लिए रहे. यहाँ उन्हें ग्राम्य जीवन की संवेदना से रूबरू होने का मौका मिला. किसानों की दशा के प्रति उनकी संवेदना उनकी कविता ‘वे आँखें’ से स्पष्ट झलकती है |

 “अंधकार की गुहा सरीखी, उन आँखों से डरता है मन, भरा दूर तक उनमें दारुण, दैन्य दुःख का नीरव रोदन”

सुमित्रा नंदन पंत ने अपनी रचना के माध्यम से केवल प्रकृति के सौंदर्य का ही गुणगान नहीं किया, वरन् उन्होंने प्रकृति के माध्यम से मानव जीवन के उन्नत भविष्य की भी कामना की है. उनकी कविता की इन पंक्तियों से उनके उसी सौन्दर्यबोध का उद्घाटन होता है |

“धरती का आँगन इठलाता शस्य श्यामला भू का यौवन
अन्तरिक्ष का ह्रदय लुभाता! जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता..”

सुमित्रा नंदन पंत का भाषा पर पूर्ण अधिकार था. उपमाओं की लड़ी प्रस्तुत करने में भी वे पारंगत थे. उनकी साहित्यिक यात्रा के तीन प्रमुख पड़ाव माने जाते हैं – पहले पड़ाव में वे छायावादी हैं, दूसरे पड़ाव में प्रगतिवादी और तीसरे पड़ाव में अध्यात्मवादी. ये तीनों पड़ाव उनके जीवन में आते रहे बदलाव के प्रतीक भी हैं. जीवन के अठारहवें वर्ष तक वे छायावादी रहे. फिर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान मानवता को नजदीक से देखने के साथ मार्क्स और फ्रायड की विचारधारा से प्रभावित होने के कारण पंत प्रगतिवादी हो गए. बाद के वर्षों में जब वह पोंडिचेरी स्थित अरविंदो आश्रम गए तो, वहां वे श्री अरविंदो के दर्शन के प्रभाव में आए. इसके बाद उनकी रचनाओं पर अध्यात्मवाद का प्रभाव पड़ा. हिंदी साहित्य को वृहद् रूप देने के उद्देश्य से सुमित्रा नंदन पंत ने 1938 में “रूपाभ” नामक एक प्रगतिशील मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया था. इस दौरान वे प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे. आजीविका के लिए पंत ने वर्ष 1955 से 1962 तक आकाशवाणी में बतौर मुख्य प्रोड्यूसर के पद पर कार्य किया था | पंत द्वारा कृत पल्लव, ज्योत्सना तथा गुंजन (1926-33) उनकी सौंदर्य एवं कला-साधना से परिचय करवाते हैं. इस काल को पंत का स्वर्णिम काल कहा जाना भी गलत नहीं होगा. वह मुख्यत: भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आदर्शवादिता से प्रेरित थे, किंतु युगांत (1937) तक आते-आते बाहरी जीवन के प्रति खिंचाव से उनके भावात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन आने लगे |

सुमित्रानंदन पंत का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

1921 के असहयोग आंदोलन में उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया था, पर देश के स्वतंत्रता संग्राम की गंभीरता के प्रति उनका ध्यान 1930 के नमक सत्याग्रह के समय से अधिक केंद्रित होने लगा, इन्हीं दिनों संयोगवश उन्हें कालाकांकर में ग्राम जीवन के अधिक निकट संपर्क में आने का अवसर मिला। उस ग्राम जीवन की पृष्ठभूमि में जो संवेदन उनके हृदय में अंकित होने लगे, उन्हें वाणी देने का प्रयत्न उन्होंने युगवाणी (1938) और ग्राम्या (1940) में किया। यहाँ से उनका काव्य, युग का जीवन-संघर्ष तथा नई चेतना का दर्पण बन जाता है। स्वर्णकिरण तथा उसके बाद की रचनाओं में उन्होंने किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक सत्य को वाणी न देकर व्यापक मानवीय सांस्कृतिक तत्त्व को अभिव्यक्ति दी, जिसमें अन्न प्राण, मन आत्मा, आदि मानव-जीवन के सभी स्वरों की चेतना को संयोजित करने का प्रयत्न किया गया।

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