कांग्रेस सपा/बसपा को समर्थन देकर सरकार में आने में होगी कामयाब

sheelaउ0प्र0- में इस बार कांग्रेस सरकार में होगी, कांग्रेस अपने बूते तो सरकार नही बना सकती, परन्‍तु सपा या बसपा को समर्थन देकर वह सरकार में आने में कामयाब होगी; कांग्रेस सपा/बसपा को समर्थन देकर सरकार में आने में होगी कामयाब; हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल- एक्‍सक्‍लूसिव 
यूपी में बीजेपी के लिए मुश्किल है, इसको आम विश्‍लेषक तथा कांग्रेस के रणनीतिकार यह मान रहे हैं कि वर्तमान स्थिति में 2017 में होने वाले यूपी चुनाव में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलता नहीं दिखाई दे रहा है। पार्टी भले ही सपा, बसपा व भाजपा की तरह यूपी में मज़बूत न हो लेकिन अपनी नई टीम के सहारे प्रदेश में सीटें बढ़ाकर 2017 चुनाव में जरूरत पड़ने पर सपा या बसपा को समर्थन देकर सरकार बनाने का प्रयास करेगी तथा भाजपा को सत्तात में आने से रोकेगी। कांग्रेस या बीजेपी को सत्ता में आने के लिए ज़रूरी है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व मिट जाए या उसकी सीटे घट जाये।
वही कांग्रेस ने तैयारी तो अच्छी की है, बस अब वोटर की तलाश है, जातीय समीकरण की राजनीति के महत्व को समझते हुए कांग्रेस ने मुस्लिम चुनाव प्रभारी आज़ाद, ब्राह्मण सीएम उम्मीदवार शीला दीक्षित व ओबीसी राज बब्बर को यूपी चुनाव की कमान सौंपी है। कांग्रेस ने इस जातीय समीकरण से लगभग चालीस साल से ज़्यादा पुराने फॉर्मूला को फिर से दोहराया है जिसका 1970 व 1990 के बीच पार्टी को बेहद फ़ायदा मिला। इन दो दशकों में कांग्रेस के 8 बड़े नेता यूपी में मुख्यमंत्री रहे। यूपी से आने वाले कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद, पूर्व कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, आरपीएन सिंह, राजीव शुक्ला, संजय सिंह, प्रमोद तिवारी ,रीता बहुगुणा जोशी को भी बेहद महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां सौंपी हैं प्रियंका गांधी भी यूपी चुनाव में पार्टी की मुख्य प्रचारक होंगी।
शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके पार्टी प्रदेश के लगभग 10 फीसदी ब्राह्मण वोट को लुभाने की कोशिश करेगी जो बीते कई वर्षों से भाजपा व बसपा को अपना हिमायती मानती आई है। शीला दीक्षित का यूपी से पुराना नाता भी है। वह कांग्रेस के एक बड़े नेता उमाशंकर दीक्षित की बहु हैं जो यूपी के उन्नाव जिले से ताल्लु क रखते हैं। शीला दीक्षित यूपी के कन्नौज ज़िले से 1984 में सांसद भी रह चुकी हैं।

शीला 1998 से 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रही जिन्हें देश के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री का ख़िताब भी मिला लेकिन केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, दिल्ली में हुए भ्रष्टाचार व पार्टी के प्रति जनता के रोष ने करीब चार साल पहले उनके तीन दशक से भी पुराने राजनीतिक करियर को पूरी तरह से खत्म कर दिया था। 78 वर्षीय अनुभवी शीला की यूपी चुनाव में मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में राजनीति में यह दूसरी पारी है लेकिन उनका सामना इस चुनाव में सीधे तौर पर युवा अखिलेश यादव व ताकतवर नेता मायावती से होगा जोकि हर मामले में शीला पर भारी पड़ेंगे।

रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कहने पर ब्राह्मण नेता शीला पर कांग्रेस ने दांव तो खेला है लेकिन जिस ढंग से दिल्ली में उन्हें शिकस्त मिली उसे देखकर लगता है कि यह बेहद मुश्किल है कि जनता उन पर भरोसा करेगी। कांग्रेस अगर उनकी जगह किसी युवा को मैदान में उतारती तो शायद जनता उसे एक विकल्प के रूप में देखती। हालांकि यूपी में पहली बार मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस का यह फैसला शायद बीजेपी के ऊपर भी सीएम कैंडिडेट घोषित कर चुनाव लड़ने पर मजबूर कर सकता है ।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती ने राज बब्बर को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री वरिष्ठ कांग्रेस नेता शीला दीक्षित को पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने को यह प्रयास सर्वसमाज के साथ-साथ राज्य के ब्राहमण समाज की आंखों में धूल झोंकने जैसा है।’ मायावती ने शुक्रवार को लखनऊ में जारी एक बयान में कहा कि दिल्ली में अपना ज़्यादातर राजनीतिक जीवन गुजारने वाली कांग्रेस नेता शीला को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना वास्तव में नाराज चल रहे ब्राहमण समाज की आंखों में धूल झोंकने जैसा है, क्योंकि कांग्रेस पार्टी सत्ता में आना तो दूर उसके करीब भी नहीं दिख रही है। विभिन्न पार्टियों में चक्कर लगाने के बाद कांग्रेस पार्टी में शामिल होने वाले राज बब्बर को प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बनाना वास्तव में प्रदेश में कांग्रेस की खस्ताहाल और दिवालिएपन को दर्शाता है। इस प्रकार की नियुक्तियों से आगामी विधानसभा आमचुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा नहीं मिलेगा।

बसपा मुखिया ने कहा कि कांग्रेस ने राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष और शीला को पार्टी का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके जो अंधेरे में तीर चलाया है उसका चूकना निश्चित है। मायावती ने कांग्रेस, बीजेपी और सपा पर ब्राह्मणों की लगातार उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि प्रदेश मंब बसपा ही अकेली ऐसी पार्टी है, जिसने इस समाज के लोगों को पार्टी संगठन में जगह दी और सरकार बनने पर भी भरपूर आदर-सम्मान दिया जाएगा और चुनाव मैदान में भी काफी बड़ी संख्या में उतार कर उन्हें ‘पुनर्जीवित’ किया।

मायावती ने कहा कि अब प्रदेश का ब्राह्मण समाज आदर-सम्मान के लिए दूसरी पार्टियों से कहीं ज़्यादा बसपा नेतृत्व पर भरोसा करता है, ऐसे समय में कांग्रेस द्वारा शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके आगे करना इस समाज की आंखों में धूल झोंकने के सिवाय और कुछ नहीं है।

‘शीला दीक्षित पर भ्रष्टाचार के कई मामले लंबित’
शीला पर हमला करते हुए बसपा प्रमुख ने कहा, ‘यह वही शीला दीक्षित हैं जिन्होंने दिल्ली के विकास के नाम पर खासकर दलितों, पिछड़ों, गरीबों आदि के हित और कल्याण हेतु बजट के धन को सही जगह खर्च नहीं करके उसे अन्य ग़ैर-जरूरी काम पर खर्च किया और साथ ही राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के कई मामले भी इनके ऊपर लम्बित हैं।’

चर्चा में नहीं है तो आप चुनाव में नहीं हैं। सोशल मीडिया पर वायरल न हुए तो लोग समझेंगे कि आपको वायरल हो गया है इसलिए कहीं दिख नहीं रहे हैं। इसलिए आप देखेंगे कि चुनाव से पहले चर्चा में बने रहने का संग्राम छिड़ जाता है। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कांग्रेस की रणनीतियों को देखकर क्या यह पूछा जा सकता है कि वहां कांग्रेस चुनाव लड़ रही है इसलिए चर्चा में है या चुनाव हो रहे हैं इसलिए चर्चा में बने रहने की लड़ाई लड़ रही है।

दिल्ली में शीला दीक्षित पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहीं। इस दौरान उन्होंने जितनी बार ये नहीं कहा होगा कि वे यूपी की बहू हैं उससे कहीं ज्यादाबार वे पिछले कुछ दिनों में कह चुकी हैं। उनकी पार्टी के लोग कह चुके हैं और मीडिया तो फ्लैश ही करने लगा कि वे यूपी के उन्नाव की बहू हैं। शीला दीक्षित को कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया है। शीला दीक्षित पंजाब जाते ही खत्री हो जाती हैं, यूपी जाते ही ब्राह्मण हो जाती हैं। पर शीला दीक्षित की एक बात तो है। जहां की वो न बेटी हैं, न बहू हैं वहां पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहीं। ये समस्या शीला दीक्षित की नहीं है। हमारी राजनीति की है। 2014 में बनारस गए प्रधानमंत्री कहने लगे कि उन्हें मां गंगा ने बुलाया है। बल्कि वे जहां भी गए, कई जगहों पर ज़रूर बताते हैं कि उस जगह से उनका क्या नाता है। सतही हो चुकी हमारी राजनीति में आप इससे ज़्यादा क्या उम्मीद कर सकते हैं।

2015 में जब दिल्ली में चुनाव हुआ तब कांग्रेस ने शीला दीक्षित की जगह अजय माकन को अपना उम्मीदवार बनाया था। शीला दीक्षित चुनाव भी नहीं लड़ी थीं। केरल की राज्यपाल बनकर दिल्ली छोड़ चुकी थीं। बहरहाल कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर साफ कर दिया कि राज्य में उसका किसी से गठबंधन नहीं होगा। दो-दो मुख्यमंत्री के उम्मीदवार गठबंधन नहीं करते हैं। कांग्रेस के पास यूपी में कोई पूर्व मुख्यमंत्री अब नहीं है इसलिए दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया है। बीजेपी के पास अभी भी बहुत से पूर्व मुख्यमंत्री हैं मगर जिस तरह से उसकी राजनीति अब आगे की ओर देख रही है, नहीं लगता कि पार्टी कि किसी पूर्व को उम्मीदवार बनाएगी। बहुजन समाज पार्टी में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। समाजवादी पार्टी में भी अखिलेश यादव के अलावा अब ये संभावना समाप्त हो चुकी है। यूपी के टेम्पो ट्रक पर पोस्टर भी लग गया है कहो दिल से, अखिलेश फिर से। चार प्रमुख पार्टियों में से तीन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार आपके सामने हैं।

1989 से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में वापसी की राह देख रही है। चुनाव के छह महीने पहले उसने संगठन के ऊपरी स्तर पर बदलाव कर चर्चा में जगह पा ली है। अब उसे ज़मीन पर जगह पाने का प्लान बताना होगा। 2012 में राहुल गांधी कांग्रेस की वापसी का चेहरा थे। 2016 में अब राहुल की जगह प्रियंका गांधी का नाम चलने लगा। तरह तरह की ख़बरें आती रहीं मगर आ गईं शीला दीक्षित। यूपी के जानकार ज़मीन पर पार्टी खोज रहे हैं मगर पार्टी ने कागज़ पर अपना नेता रख दिया है।

राज बब्बर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। आरपीएन सिंह को वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया है। वरिष्ठ उपाध्यक्ष के नीचे चार चार उपाध्यक्ष बनाए गए हैं। जितिन प्रसाद प्रदेश, अब्दुल मन्नान अंसारी, कोरी समाज के नेता गयादीन अनुरागी, जाट नेता पूर्व सांसद चौधरी विजेंद्र सिंह। प्रमोद तिवारी समन्वय समिति के चेयरमैन बनाए गए हैं। समनव्य समिति में जो नेता हैं, उनके नाम से लगा कि तिवारी जी इन्हीं के बीच समन्वय कर लें, तो बहुत है। संजय सिंह चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैंन हैं। लखीमपुर खीरी के पूर्व सांसद ज़ाफ़र अली नक़वी संयोजक बनाए गए हैं।

मोटा मोटी ये कांग्रेस के सेनापति हैं। मीडिया में हर सेनापति की जाति भी बताई जा रही है। यूपी में 10 से 13 प्रतिशत के बीच ब्राह्मण हैं। क्या इतना आसान है कि ब्राह्मण शीला दीक्षित, प्रमोद तिवारी और जितिन प्रसाद के पीछे चले जाएंगे। बीजेपी ने अति पिछड़ा और अति दलित सम्मेलनों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। ब्राह्मण वोटों की दावेदारी बीजेपी के पास भी है और बसपा भी लेकिन खुलकर कांग्रेस ही संकेत दे रही है कि वह उपेक्षित ब्राह्मणों की पार्टी है। पर क्या यही यूपी में कांग्रेस के पतन का कारण नहीं था। जो पतन का कारण था क्या वो उत्थान का भी कारण बन सकता है। पिछले पांच चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन देख लीजिए कि उसे कहां से कहां पहुंचना है।

– 2012 में कांग्रेस को मिलीं 28 सीटें और वोट प्रतिशत रहा 15%
– 2007 में कांग्रेस ने जीती 22 सीटें और वोट प्रतिशत था 8.61%
– 2002 में कांग्रेस के खाते में 25 सीटीं आईं और उसे 8.96% वोट मिले थे
– 1996 में कांग्रेस ने 33 सीटें जीती थीं और वोट प्रतिशत था 8.35%
– 1993 में कांग्रेस को 15.08% वोटों के साथ 28 सीटें मिली थीं।

1993 में 28 सीट। 12 साल बाद 2012 में भी 28 सीटें। 2012 में राहुल गांधी कांग्रेस प्रचार का मुख्य चेहरा थे। इस बार यूपी चुनाव के संदर्भ में उनकी जगह प्रियंका गांधी की ही चर्चा हो रही है। क्या किसी रणनीति के तहत राहुल गांधी को इन चर्चाओं से अलग रखा जा रहा है। यूपी में ऐसा क्या हो गया है कि कांग्रेस 28 सीटों से चलकर 200 के करीब पहुंच जाएगी। 2012 में करीब 300 सीटों पर कांग्रेस को 20,000 वोट मिले थे। चौथे नंबर पर रहते हुए ये कांग्रेस का बैंक है। क्या कांग्रेस यह संदेश देने का प्रयास कर रही है इस बार वो एक पार्टी के तौर पर संगठित तौर से उतर रही है। उसे भी गंभीरता से लिया जाए। चुनाव से छह महीने पहले कांग्रेस ने इन बदलावों से अभ्यास मैच में उतर रही है या फाइनल मैच में। यूपी में कांग्रेस के साथ बीजेपी भी 2002 से वापसी का ज़ोर लगा रही है। एक बार फिर से भाजपा भी उम्मीद कर रही है।

उम्मीद का कारण है यह शख्स। अमित शाह। जून 2013 में अमित शाह ने यूपी का प्रभार संभाला था। सीधे अहमदाबाद से लखनऊ। उसके बाद यूपी में क्या किया, कहां गए, किससे मिले किसी को नहीं पता। सिर्फ इतना पता है कि जब नतीजा आया तो बसपा को शून्य सीट और सपा को पांच सीटें ही मिली हैं। बीजेपी को 80 सीटों में से अकेले 71 सीटें मिली हैं। अमित शाह अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं मगर असम चुनाव के बाद प्रभारी की तरह ही यूपी यूपी घूम रहे हैं। हमारे पास पूरी सूची तो नहीं है मगर पिछले कुछ महीनों में वे कानपुर, कासगंज, मेरठ, बारांबकी, बस्ती, जौनपुर, लखनऊ, वाराणसी, मऊ जैसे कई जगहों पर जा चुके हैं। कार्यकर्ता सम्मेलन से लेकर सभाएं तक कर चुके हैं। जाति सम्मेलन भी कर रहे हैं। अमित शाह अकेले राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं जो इस तरह से चुनाव प्रचार में लगे हैं। लगे तो बिहार में भी थे मगर नतीजा नहीं मिला। यही अमित शाह की राजनीतिक खूबी है। हारने के बाद भी उसी तरह से जुट जाते हैं। गली गली की खाक छानने की धुन आपको वर्तमान में किसी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष में नहीं मिलेगी। अमित शाह की झोली में भले कोई वोट बैंक नहीं है मगर यूपी चुनाव में वे अपने दम पर ही फैक्टर बन गए हैं। अमित शाह ने पिछड़ों अति पिछड़ों और अति दलितों का समीकरण बनाना शुरू कर दिया है। उनकी सभाएं शुरू कर दी हैं।

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