मिशन-2019- कैसे कदम ठिठक सकते हैं ?

HIGH LIGH; #मिशन-2019- कैसे कदम ठिठक सकते हैं ?# सत्‍ता जाने का अहसास तक नही # हालिया सर्वे के मुताबिक # यूपी में बीजेपी को 43 सीटों का नुकसान # 3 राज्‍‍‍यो मेंं बीजेेपी का सत्‍‍‍‍ता से हटना # ओडिशा की 21 में 15 लोकसभा सीटो पर बीजेपी को संभावित नुकसान का अनुमान # केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के एक बयान ने फिर सियासी भूचाल ला दिया है # गडकरी ने कहा कि अगर मैं पार्टी का अध्यक्ष हूं और मेरे विधायक या सांसद अच्छा नहीं करते तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है # राम मंदिर पर घिरी सरकार? भगवाई जनता पार्टी का मुकाबला भगवाई कांग्रेस  से # 2019 के लोकसभा चुनाव ; अब मोदी के सामने राहुल गांधी एक मजबूत रणनीतिज्ञ के तौर पर अनुभवी सिपहसालारो के साथ मजबूती के साथ खड़े # क्या 2019 की लड़ाई हकीकत में राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की होगी और क्या इस लड़ाई में राहुल गांधी मोदी को मात दे पाएंगे ? # 2019 के चुनाव में एक बदली हुई कांग्रेस लोगों के बीच होगी. जिसका मुखिया मंदिरों में दर्शन की अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी के साथ पोस्ट कर रहा होगा # अब राहुल गांधी के पास राजनीतिक लड़ाई का एक पक्का हथियार तैयार # ऐसे हालात क्यों बनते जा रहे है? सत्‍ता जाने का अहसास तक नही हो पाता– कारण- #  हिमालय की अद़श्‍य शक्‍तियां का हस्‍तक्षेप किस ओर- प्रसिद्व ज्‍योतिषविदो की स्‍पष्‍ट राय – 2014 वाली स्‍थिति नही रोचक
# एक्‍सक्‍लूसिव आलेख- ठोस बिन्‍दुओ के साथ- हिमालयायूके-

2014 के आम चुनाव में बीजेपी की शानदार जीत में यूपी का बड़ा योगदान रहा था, जहां पार्टी ने 80 में 71 लोकसभा सीटें जीती थीं. वहीं इस हालिया सर्वे के मुताबिक अगर आज चुनाव होते हैं तो उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी गठबंधन 50 सीटें जीत सकती है, वहीं बीजेपी को महज 28 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है. इस हिसाब से उसे 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 43 सीटों का नुकसान होता दिख रहा है.

वहीं अगर इस महागठबंधन में अगर कांग्रेस भी शामिल होती है, जिसके लिए पार्टी भरसक कोशिश कर रही है, तो उसकी जीत का आंकड़ा और बढ़ सकता है. राज्य में तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में इसने अपना दम दिखाया भी है, जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट गोरखपुर, उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की सीट फूलपुर के अलावा कैराना में इसने जीत का परचम लहराया था.

इस सर्वे की एक और ध्यान देने वाली बात यह रही कि इसमें ओडिशा की 21 में 15 लोकसभा सीटें बीजेपी के खाते में जाने का अनुमान लगाया गया है. वहीं महाराष्ट्र और तमिलनाडु में यूपीए को अच्छी सफलता मिलने की उम्मीद जताई गई है.

गडकरी के बयान को अप्रत्यक्ष तौर पर भारतीय जनता पार्टी आलाकमान के नेतृत्व पर निशाना माना जा रहा है. केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के एक बयान ने फिर सियासी भूचाल ला दिया है. गडकरी ने कहा कि अगर मैं पार्टी का अध्यक्ष हूं और मेरे विधायक या सांसद अच्छा नहीं करते तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है. नितिन गडकरी ने इससे पहले भी एक और बयान दिया था, जिसमें कहा था कि नेतृत्व को हार और विफलता की भी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए. इशारों-इशारों में गडकरी ने कहा था कि कोई भी सफलता की तरह विफलता की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है.
गडकरी ने कहा था, ‘सफलता के कई पिता हैं, लेकिन विफलता अनाथ है. जब भी सफलता मिलती है को उसका श्रेय लूटने की होड़ मच जाती है, लेकिन जब विफलता होती है तो हर कोई एक दूसरे पर उंगली उठाना शुरू कर देता है.’

अब समय बदल गया है. एक नेता, एक प्रधानमंत्री यहां तक कि एक वोट खींचने वाले व्यक्ति के बतौर भी मोदी की कमज़ोरियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ‘शहज़ादा’ और ‘विधवा’ जैसे तानों से भरी उनकी चुनावी अभियानों की शैली बेहद अशिष्ट लगती है. लेकिन केवल इमेज से ही काम नहीं चलता. एक राजनेता की जिम्मेदारी उसके समूह को संगठित रूप में आगे लेकर जाना होती है. उनकी पार्टी चुनावों में विजयी होनी चाहिए. हार या चुनावी मैदान में औसत प्रदर्शन संगठन के लोगों को निराश करते हुए उनमें यह संदेह भर सकता है कि उनका नेता इस काबिल भी है या नहीं.

इस बीच राहुल गांधी एक सभ्य, शिक्षित और विनीत व्यक्ति के रूप में सामने आये हैं. ‘इमेज मेकिंग’ के इस दौर में बात करें तो केवल इसी आधार पर राहुल गांधी मोदी से बीस साबित होते हैं. यहां राहुल गांधी सफल हुए, लेकिन एक लंबे इंतज़ार के बाद. आखिरकर, इसने उनके पक्ष में काम किया. कई झूठी शुरुआतों के बाद, कांग्रेस ने वो कर दिखाया जो 2014 के बाद नामुमकिन लगता था- उसने तीन हिंदी-भाषी राज्यों में  भाजपा को सीधे मुकाबले में हराया है.

गुजरात में भी कांग्रेस का उभार देखने को मिला और कर्नाटक में हारने के बावजूद जेडीएस के साथ गठबंधन कर वो भाजपा को बाहर रखने में कामयाब हुई. इससे पहले हुए गोवा के चुनाव में कांग्रेस असफल रही थी. अब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इसने जीत दर्ज की. आज की तारीख में भाजपा की ताकत और मजबूत फंडिंग को देखते हुए यह एक बड़ी उपलब्धि है. इसका श्रेय राहुल गांधी को जाता है. वे अपने मजबूत और स्पष्ट संदेश के साथ न केवल मतदाताओं, बल्कि उससे भी ज़रूरी कांग्रेस पार्टी के अंदर विरोधियों को, उनके बीच के मतभेदों को भुलाकर चुनावी अभियान में एक साथ लाने में कामयाब रहे. दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तिकड़ी की साथ मिलकर काम करना अप्रत्यशित था, जिसका फल भी मिला. राजस्थान में भी ऐसा हुआ, जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने साथ मिलकर चुनावी तस्वीर पेश की.पार्टी का संदेश स्पष्ट था- पुराने खिलाड़ियों को उचित सम्मान दिया जाएगा, और युवा नेताओं को उनका जनाधार बनाने का मौका मिलेगा, भले ही उन्हें नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए थोड़ा और इंतज़ार करना पड़े. उनके व्यक्तित्व और एक नेता के बतौर एक डूबती पार्टी को उबारने वाली उनकी छवि ने उनके नए समर्थकों की संख्या बढ़ाई है, यहां तक ऐसे लोगों के बीच भी, जो उन्हें एक अच्छा मगर अनिच्छुक राजनीतिज्ञ समझते थे.

उनके बारे में किए गए मज़ाक अब उनकी तारीफ में बदल गए हैं और भाजपा द्वारा उनका लगातार अपमान करते रहना अशिष्ट और घटिया लगता है. भाजपा के प्रवक्ताओं का बात-बेबात, किसी भी विषय के बीच राहुल गांधी को घसीट कर उनको निशाना बनाना अब मूर्खतापूर्ण दिखता है. अब समय आ गया है कि वे कुछ नया बोलें.

कांग्रेस इस समय मुख्य भूमिका में है और जो पार्टियां भाजपा से लड़ना चाहती हैं, उन्हें उसके साथ आना होगा, लेकिन यह अपने आप किसी तरह के गठबंधन में तब्दील नहीं होगा. 2019 में कामयाबी की राह लंबी है, लेकिन राहुल गांधी ने शुरुआत अच्छी की है.

2019 के लोकसभा चुनाव ; अब मोदी के सामने राहुल गांधी एक मजबूत रणनीतिज्ञ के तौर पर अनुभवी सिपहसालारो के साथ मजबूती के साथ खड़े हो सकेंगे. ; हिमालयायूके की रिपोर्ट

विधानसभा चुनाव में मिली कांग्रेस की जीत के बाद उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी को हराने का दावा किया है. दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष और उनकी पार्टी इस बात से काफी हद तक खुश है कि 2019 में अब मोदी बनाम राहुल की लड़ाई की बात अगर बीजेपी करती है, तो अब इस लड़ाई में मोदी के सामने राहुल गांधी भी मजबूती के साथ खड़े हो सकेंगे. कांग्रेस के भीतर यह ताकत मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली जीत के बाद आई है.

क्या 2019 की लड़ाई हकीकत में राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की होगी और क्या इस लड़ाई में राहुल गांधी मोदी को मात दे पाएंगे ?   2013 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का असर था. तीनों राज्यों में एकतरफा जीत दर्ज करने के बाद बीजेपी विजय रथ पर सवार थी.

अब हालात बदल गए हैं. तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार है. ऐसे में पार्टी के लिए 2014 के प्रदर्शन को दोहरा पाना आसान नहीं होगा. फिर भी, बीजेपी को अभी भी मोदी मैजिक पर भरोसा है. बीजेपी के रणनीतिकारों को लग रहा है कि विधानसभा चुनाव का परिणाम राज्य सरकार के काम के आधार पर आया है. जबकि, 2019 की लड़ाई मोदी सरकार के काम और मोदी के चेहरे पर होगा.

लेकिन, अब 2019 का मुकाबला दिलचस्प होगा, क्योंकि मोदी बनाम राहुल की लड़ाई के नाम पर अबतक ताल ठोंकने वाली बीजेपी को अब मोदी बनाम राहुल की लड़ाई के नाम पर कांग्रेस भी चुनौती देती दिख सकती है.

2019 के चुनाव में एक बदली हुई कांग्रेस लोगों के बीच होगी. जिसका मुखिया मंदिरों में दर्शन की अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी के साथ पोस्ट कर रहा होगा.

2014 के चुनाव में बीजेपी के हाथों राजनीतिक धोबीपाट खाने के बाद कांग्रेस पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगा था. इसके बाद राज्य दर राज्य सत्ता गंवाते राहुल गांधी से जब इंतजार न हुआ तो उन्होंने धर्म के साथ अपने प्रयोग शुरू किए, फिर वो ब्राह्मण, जनेऊधारी, शिवभक्त, रामभक्त राहुल गांधी के रूप में बाहर आए.   

अगर आप राहुल गांधी के इस नए प्रयोग को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं तो एक बार मध्यप्रदेश में कांग्रेस का घोषणा पत्र जरूर पढ़िएगा. आपको बेहद शानदार रणनीति देखने को मिलेगी, जैसे राज्य की हर पंचायत में गोशाला का निर्माण कराना, राम गमन पथ का निर्माण करवाने जैसे कई दिलचस्प वादे जो सुनने में भले ही भाजपाई लगते हों लेकिन उन्हें जगह राहुल की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी ने दी है. सबसे दिलचस्प तो ये है कि पार्टी ने राज्य में गोमूत्र के व्यावसायिक उत्पादन का वचन भी जनता को अपने घोषणा पत्र में दिया है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी धर्म के साथ एक और प्रयोग किया. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अपनी गोत्र बताई. गोत्र बताने में राहुल ने धर्म के साथ एक नया प्रयोग किया. सामान्य तौर हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की गोत्र उसके पैतृक पक्ष के आधार पर बताई जाती है लेकिन राहुल गांधी ने अपनी दादी यानी इंदिरा गांधी के पिता जवाहर लाल नेहरू के पक्ष से अपनी गोत्र बताई. चुनाव के बीच इस मुद्दे पर खूब चर्चा हुई. राहुल गांधी अपने रास्ते अडिग रहे. वे कभी राजस्थान में किसी मंदिर में दिखाई देते तो कभी मध्यप्रदेश में किसी मंदिर में माथा टेकते दिखाई देते. चुनाव प्रचार से कुछ ही समय पहले वो हिंदु धर्म के सबसे पवित्र तीर्थों में से एक मानसरोवर की यात्रा पर भी गए. वहां से उन्होंने अपनी तस्वीरें भी पोस्ट कीं, जिससे लोगों के बीच तैयार की जा रही धार्मिक छवि को और मजबूत किया जा सके.

गुजरात विधानसभा चुनावों से बीजेपी को पटखनी देने के लिए शुरू हुई राहुल गांधी की मंदिर दौड़ एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव के दौरा खूब जमकर चली. गुजरात चुनाव में इस मंदिर दौड़ के प्रयोग के फायदे देखकर आए राहुल गांधी एक और प्रैक्टिकल करके देखना चाहते थे कि क्या ये प्रयोग अन्य जगह भी लागू होगा?

एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी ने न सिर्फ इस प्रयोग पर जमकर काम किया बल्कि पार्टी का मेनीफेस्टो भी ऐसा तैयार करवाया जिसमें धार्मिकता की तरफ झुकाव शामिल हो. राहुल अपने धार्मिक प्रयोग की पूरी पुष्टि करके देख लेना चाहते थे. इसी वजह से न सिर्फ धार्मिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया बल्कि लिखित में गोशाला और राम गमन पथ बनवाने का वादा भी किया. अब जबकि चुनाव नतीजे सामने आ चुके हैं राहुल गांधी धर्म के साथ अपने प्रयोग पर जरूर गौरवांवित महसूस कर रहे होंगे.

चुनाव पंडित राहुल गांधी की राजनीति पर मुहर की तरह साबित हुए हैं. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार के भ्रष्टाचार के साथ राहुल गांधी ने लोगों के बीच अपनी धार्मिक छवि तैयार करने का काम किया उसका फायदा तो कांग्रेस होता दिख ही रहा है. राहुल भाषण घोटालों पर देते थे और उसके बाद फिर किसी मंदिर दर्शन करने पहुंच जाते थे. उसके मीडिया से अगर बात होती थी तो अपनी सेकुलरिजम की राजनीति पर व्याख्यान भी दे देते थे.

 अब राहुल गांधी के पास राजनीतिक लड़ाई का एक पक्का हथियार तैयार हो चुका है. सत्‍ताशासित राज्‍यो में जल्दी ही कुछ हिंदुवादी योजनाओं पर कांग्रेस की तरफ से तेजी काम भी शुरू कर दिया जाए जिससे लोगों की बीच तैयार की गई पार्टी की धार्मिक इमेज को बनाए रखा जा सके.

  बीजेपी राहुल गांधी की इस धार्मिक इमेज से बैकफुट पर आ जाती है और उन पर प्रहार करना शुरू कर देती है. और जैसे ही राहुल की धार्मिक वायदों या फिर धार्मिक क्रियाकलापों पर चर्चा शुरू होती है, वो अपने ध्येय में कामयाब होते हुए दिखाई देते हैं.

अब जनवरी की भारी ठण्‍ड में भी लोकसभा चुनावों की गर्मी छाने लगेगी. बहुत उम्मीद की जा रही है कि इस बार कांग्रेस का पीएम फेस राहुल गांधी ही होंगे. अब राहुल गांधी के पास दो जगहों पर धार्मिक छवि और धर्म के चुनाव में प्रयोग का पॉजिटिव अनुभव भी है. बीजेपी इस मसले पर गुस्साती भी है.

2019 के चुनाव में एक बदली हुई कांग्रेस लोगों के बीच होगी. जिसका मुखिया मंदिरों में दर्शन की अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी के साथ पोस्ट कर रहा होगा. संभव है कि वो चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों के मुद्दे से कन्नी भी काट जाए . लेकिन एक बात तय है इस बार भगवाई जनता पार्टी का मुकाबला भगवाई कांग्रेस से होने वाला है.

उकताए भारतीय वोटर ने एक नए चलन का आविष्कार किया है. इसे हम ‘लैंपपोस्ट इलेक्शन’ या ‘बिजली के खंभे’ वाला चुनाव कहते हैं. इस नाम का मतलब ये है कि अगर जनता ठान ले, तो वो किसी बड़े से बड़े प्रत्याशी के मुक़ाबले किसी ‘चूं चूं के मुरब्बे’ को भी इलेक्शन जिता सकती है. किसी असाधारण नेता के मुक़ाबले बिजली के खंभे को भी भारी मतों से विजयी बना सकती है, हमारे देश की जनता. हालांकि, पिछले कुछ चुनावों से लैंपपोस्ट इलेक्शन के जुमले को लोगों ने भुला सा दिया था. जाति और संप्रदायों के समीकरणों और पूर्वाग्रहों की देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका हो गई थी. भारत के सियासी मानचित्र में अंदरूनी तौर पर कई दरारें खिंच गई थीं.

चुनाव परिणाम के बाद मध्यप्रदेश से शिवराज के खत्म होने का मलाल बीजेपी को तो है लेकिन, क्लीन स्वीप से बचने के बाद अभी भी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर इस हार से उबरने की आशा भी जिंदा है. बीजेपी ने अपने लिए राजस्थान में ‘सम्मानजनक हार’ पा कर काफी हद तक संतुष्ट दिख रही है, भले ही निराशा उसके हाथ लगी है. बीजेपी को लोकसभा चुनाव में निराशा के बादल छंटने के आसार दिख रहे हैं. बीजेपी को लगता है कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ का यह नारा लोकसभा चुनाव तक भी अपना असर दिखाएगा. उसे लगता है कि वसुंधरा के खिलाफ नाराजगी का असर दिख गया, अब राजस्थान की जनता लोकसभा चुनाव में मोदी को ही वोट करेगी. छत्तीसगढ़ में 15 साल राज करने वाले रमन सिंह आराम से बैठकर चौथी बार जीतने की उम्मीद पाले हुए थे. रमन सिंह इस मुगालते में जी रहे थे कि उन्हें हराना नामुमकिन है.

सत्‍ता में रहते वक्‍त सत्‍ता के जाने का अहसास तक नही हो पाता- क्‍या कारण है- स्‍वयं श्रेष्‍ठ होने का अहंकार-  वो अजेय हैं. वो अपने पैरों तले से खिसकती जा रही सियासी जमीन, का अंदाज़ा ही नहीं लगा पाते हैं. ; हिमालयायूके ब्‍यूरो

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